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असम पुलिस द्वारा 21 मई को असम के मध्य में स्थित नागांव जिले के सालनाबारी क्षेत्र के एक गरीब मछली व्यापारी सफीकुल इस्लाम को गिरफ्तार किया गया था. पुलिस का कहना है कि वह (सफीकुल इस्लाम) नशे में था, जबकि उसके (सफीकुल इस्लाम) परिवार का कुछ और ही कहना है. जिस समय उसे गिरफ्तार किया गया था उस समय वह काम के लिए शिवसागर जिले की तरफ जा रहा था, वह रास्ते पर था. लेकिन गिरफ्तारी के बाद में उसे बटाद्रवा पुलिस स्टेशन ले जाया गया. उसके परिवार के सदस्यों का दावा है कि पुलिस ने उसकी रिहाई के लिए बतौर रिश्वत 10 हजार रुपये और एक बत्तख की मांग की थी. सफीकुल के परिवार को बत्तख तो मिल गई लेकिन तुरंत 10 हजार रुपये की व्यवस्था करने असफल रहा, जिसके (पैसों) बिना पुलिस उसे स्टेशन से रिहा नहीं करती. किसी तरह से उसकी (सफीकुल) पत्नी ने पैसों की व्यवस्था की, लेकिन तब तक परिस्थितियां काफी बदतर हो चुकी थीं. सफीकुल के परिवार का आरोप है कि पीट-पीट कर उसको मार दिया गया.
पुलिस हिरासत में हुई इस नृशंस ''हत्या'' से परिवार के सदस्य आक्रोश में हैं, सगे-संबंधी व ग्रामाीण उत्तेजित हैं. उनमें से कुछ ने बदला लेने की भावना से कथित तौर पर आगजनी करते हुए बटाद्रवा थाने का एक हिस्सा जला दिया. अगले दिन पुलिस ने महली वेंडर के परिजनों को गिरफ्तार कर लिया और इसके बाद उन्होंने (पुलिस ने) सफीकुल के साथ उन सभी लोगों के घर पर बुल्डोजर चलवा दिया जिनके बारे में कहा जा रहा था कि वे कथित तौर पर थाने में हुए हमले में शामिल थे. जिनके घरों पर बुल्डोजर चलाया गया उन्हें घर खाली करने या तोड़ने के लिए किसी भी तरह से कोई नोटिस या ऑर्डर नहीं दिया गया था.
पुलिस और प्रशासन ने पूरी तरह से अपनी पावर का दुरुपयोग किया. सफीकुल की मौत के अगले दिन ही घरों पर ध्वस्त करते हुए उन्होंने सभी कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार कर दिया.
30 मई को इस घटना (थाने में आगजनी) के मुख्य आरोपी आशिकुल इस्लाम की मौत हो गई. आशिकुल इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि उसने इस हिंसा के लिए भीड़ को उकसाया था. अधिकारियों का कहना है कि उसकी (आशिकुल) मौत पुलिस कस्टडी से भागने के दौरान एक दुर्घटना में हो गई.
यह एक और उदाहरण है जो यह दिखाता है कि असम में किस कदर पुलिस की क्रूरता जारी है और वह सजा से मुक्ति का आनंद उठा रहे हैं. एक अन्य मामला नीरज दास का भी है जिसे पिछले साल कुछ ऐसा ही अंजाम पुलिस के हाथों भुगतना पड़ा था.
पुलिस ने 21 मई को असम के नागांव जिले के एक गरीब मछली व्यापारी सफीकुल इस्लाम को हिरासत में लिया था. परिवार वालों के दावों के अनुसार पुलिस ने उसकी (सफीकुल की) रिहाई के लिए बतौर रिश्वत एक बत्तख और 10,000 रुपये की मांग की थी.
सफीकुल के परिवार का आरोप है कि उसे पीट-पीटकर मार डाला गया. वहीं बाद में जब आक्रोशित भीड़ ने थाने पर हमला किया तो पुलिस ने कई ग्रामीणों के घर तोड़ दिए. साथ ही सफीकुल के परिवार के खिलाफ यूएपीए (UAPA) लगा दिया गया.
पुलिस का कहना है कि 30 मई को भीड़ द्वारा जो हिंसा की गई थी उसके मुख्य आरोपी आशिकुल इस्लाम की भागने की कोशिश में मौत हो गई.
कानून से ऊपर कोई नहीं है, लेकिन असम में पुलिस को राज्य सरकार ने खुली छूट दे दी है. पिछले साल एक अन्य शख्स नीरज दास को भी पुलिस के हाथों कुछ ऐसा ही अंजाम भुगतना पड़ा था.
ज्यादा पीछे मत जाइए. कुछ समय पहले ही असम पुलिस अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर जिग्नेश मेवाणी को गुजरात से गिरफ्तार किया था.
यह सब कुछ 21वीं सदी के असम में देखने को मिल रहा है कि वहां पुलिस कस्टडी में एक शख्स की मौत हो जाती है, जिस व्यक्ति की मौत हुई उसको घर पर सरकार द्वारा बुल्डोजर चलाकर गिरा देती है, उसकी पत्नी और एक नाबालिग बेटी को गिरफ्तार कर लिया जाता है. वहीं पुलिस कस्टडी से भागने के दौरान एक आरोपी की मौत हो जाती है और गिरफ्तार किए गए लोगों पर जो चार्ज लगाए गए हैं उनमें एक चार्ज यूएपीए यानी गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) का भी है.
हालांकि असम की क्षेत्रीय मीडिया ने इस घटना के दो अहम पहलुओं (सफीकुल इस्लाम की हिरासत में मौत और पीड़ित व उसके रिश्तेदारों के घरों पर बुल्डोजर चलाकर ध्वस्त करना) को मिटा दिया है. उनकी पूरी कहानी एक ही पॉइंट (थाने में आगजनी) पर टिकी हुई है. हिरासत के दौरान सफीकुल इस्लाम की मौत हो गई, लेकिन इस मामले में अब तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है. तो ऐसे में यह सवाल उठता है कि सफीकुल को किसने मारा?
थाने में आग लगाने वाली बात या घटना का हम समर्थन नहीं करते हैं, लेकिन सफीकुल की मौत के बारे में सरकार को जवाब देना चाहिए और परिवार के उन सदस्यों को मुआवजा देना चाहिए जिनके घर गैरकानूनी रूप से तोड़े गए हैं. उन्हें यह बात भी स्वीकार करनी चाहिए कि पावर का दुरुपयोग करने को लेकर वे गलत थे और पुलिस व प्रशासन जो भी इसके पीछे था उसकी जांच होनी चाहिए और उन्हें सजा मिलनी चाहिए.
कानून से बढ़कर कोई नहीं है, लेकिन असम में राज्य सरकार ने पुलिस को खुली छूट दे दी है. सफीकुल की हिरासत में मौत और बाद में उसके घर को तोड़ना, यह एक उदाहरण है जो हमें दिखाता है कि कैसे असम में पुलिस राज का नया दौर देखा जा रहा है. कुछ समय पहले जिग्नेश मेवाणी को असम पुलिस ने गुजरात (उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर) से गिरफ्तार किया था. मेवाणी को जमानत देते हुए बारपेटा सत्र न्यायाधीश (सेशन जज) ने असम में पुलिस कार्रवाई के संबंध में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बात कहीं थी. सेशन जज ने अपने नोट में कहा :
"आरोपी व्यक्तियों की गिरफ्तारी और आधी रात में पुलिस हिरासत से भागने का प्रयास करने वाले आरोपी व्यक्तियों की गिरफ्तारी जैसी घटनाओं के पुलिस वर्जन को विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए पुलिस कर्मियों द्वारा आरोपी पर फायरिंग और उनकी हत्या या उन्हें घायल करने की घटनाएं राज्य में लगातार देखी जा रही हैं. जबकि आरोपी कथित तौर पर कुछ पता लगाने या बताने में पुलिस कर्मियों की मदद कर रहा था. इस तरह की घटनाओं को देखते हुए हाई कोर्ट असम पुलिस को कुछ उपाय करते हुए खुद में सुधार करने के निर्देश दे सकता है.... अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमारा राज्य एक पुलिस स्टेट (पुलिस राज्य) बन जाएगा और ऐसे राज्य को समाज बर्दाश्त नहीं कर सकता."
असम पुलिस ने जिस तरह का व्यवहार दिखाया है वह चिंताजनक है क्योंकि यह (व्यवहार) राज्य की हिंसा को खुली छूट देता है. जब जनता की नजर में हिंसा सामान्य हो जाती है तब इससे कुछ भी अच्छा हासिल नहीं हो सकता. हिंसा को सामान्य बनाना अधिकारों, समानता, न्याय और मानवता के विचारों के खिलाफ जाना है.
असम में प्रचलित अल्पसंख्यक विरोधी भावनाओं को भी सफीकुल का मामला उजागर करता है. जिस समय पुलिस थाने को जलाया गया उसी समय कथित हमलावरों को 'जिहादी' और 'अवैध' कहा गया. उनको लेकर ऐसी टिप्पणी इसलिए की गई क्योंकि वे सिर्फ मुसलमान थे. न केवल मुस्लिम बॉडीज को प्रोफाइल करते हुए उन्हें 'अवैध' और अनवांटेड कहा जाता है बल्कि जिस स्थान पर वे बसते हैं उन्हें भी एक ही बार में अवैध करार कर दिया जाता है. इस तरह का व्यवहार और विचार न केवल सरकार द्वारा बल्कि वहां की ज्यादातर जनता, मीडिया और इस तरह के लोगों द्वारा व्यक्त किया जाता है.
उदाहरण के लिए वॉयस ऑफ एक्सोम नामक इस मीडिया प्लेटफार्म की पोस्ट को देखिए. इसमें जो लिखा है उसे पढ़िए. यह नफरत और दुष्प्रचार को फैलाने का एक बड़ा जरिया है.
असमिया अखबारों ने ऐसी भी खबरें प्रकाशित की हैं जिनमें उन्हें अवैध बांग्लादेशी के रूप में बताया गया है. यहां तक कि उन अखबारों ने उनके 'जिहादी' कनेक्शन के बारे में भी होने वाली अटकलों को भी हवा देने का काम किया है.
पूरे समुदाय को नफरत के घेरे में खड़ा करने के लिए केवल एक घटना की जरूरत होती है. यह तभी संभव है जब आप असम में एक मुसलमान हों, जहां इस तरह की प्रोफाइलिंग को असमिया राष्ट्रवाद की असली जड़ों और "विदेशी" होने के सवाल से जोड़ा गया है. 'न्यू इंडिया' में भी यह ट्रेंड काफी प्रचलित है.
जैसा कि हमारे समाज के सामाजिक ताने-बाने के टुकड़े-टुकड़े किए जा रहे हैं, उसको देखते हुए यहां पर नागांव के बटाद्रवा (सफीकुल इस्लाम के घर) को लेकर एक ऐतिहासिक रिमाइंडर है. यह संत श्रीमंत शंकरदेव का जन्मस्थान है. असम के कल्चलरल आईकॉन बिष्णु राभा ने नागांव को असम की नब्ज कहा है. उनके लिए यह एक नब्ज जैसा था क्योंकि यह एक ऐसा था जहां कई संस्कृतियां मिलती थीं और आपस में घुल-मिल गई, जिन्हें आज हम 'असमिया' के नाम से जानते हैं.
इस्लाम की मौत असमिया समाज के सांस्कृतिक विरोधी तत्वों सहित राज्य सरकार की नफरत का प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिसने इस तरह के अल्पसंख्यक विरोधी नफरत और हिंसा को सामान्य कर दिया है. नगांव में सफीकुल की मौत इस बात की याद दिलाती है कि कैसे असमिया संस्कृति की एकता व समरूपता, सरलता या मासूमियत और बहुलता को एक संकीर्ण पहचान को बनाए रखने के लिए लगातार कमजोर किया जा रहा है. जिसमें सरकार और एक समुदाय अपने अल्पसंख्यक पड़ोसियों के खिलाफ हो जाते हैं, और हिंसा सामान्य हो जाती है - यहां तक कि सम्मानजनक भी.
(सूरज गोगोई, एक समाजशास्त्री हैं. ये सिंगापुर में रहते हैं. वे @char_chapori से ट्वीट करते हैं. नजीमुद्दीन सिद्दीकी, यह असम के एक रिसर्चर हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
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