मेंबर्स के लिए
lock close icon

Asad Ahmed का एनकाउंटर: ये कानून की भी धीमी मौत है

बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती मनाने के साथ-साथ हमें उनके सबसे बड़े उपहार संविधान को भी याद रखना चाहिए.

हर्षित आनंद
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>असद अहमद का एनकाउंटर: ये कानून की भी धीमी मौत है</p></div>
i

असद अहमद का एनकाउंटर: ये कानून की भी धीमी मौत है

(फोटो: Altered by Quint)

advertisement

गैंगस्टर से राजनेता बने अतीक अहमद (Atiq Ahmed) के सबसे छोटे बेटे असद अहमद (Asad Ahmed) के झांसी में उत्तर प्रदेश स्पेशल टास्क फोर्स के साथ एनकाउंटर में मारे जाने के फौरन बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म उसकी मौत का जश्न मनाने वाली पोस्ट से भरे हुए थे.

मेन स्ट्रीम टीवी मीडिया का एक बड़ा तबका भी एकजुट होकर एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्या के जश्न में शामिल था; हालांकि, कुछ चैनलों पर संयम रखने की मामूली कोशिश की गई, मगर ज्यादातर का लहजा बधाई देने वाला ही था.

हालांकि, इसमें शायद ही किसी को अचंभा हुआ हो, क्योंकि पिछले कुछ हफ्तों से न्यूज चैनल एक सुर में अतीक अहमद और उसके कथित अपराधों के मामले में ‘इंसाफ’ करने के लिए सरकारी मशीनरी पर दबाव बना रहे थे.

प्राइम टाइम टीवी कई दिनों से लगातार उसकी मौत के लिए फूहड़पन हुंकार भर रहे थे; स्टार एंकर सवाल पूछ रहे थे कि क्या अतीक को ले जा रही पुलिस वैन ‘पलटेगी’, ये मुहावरा करीब तीन साल पहले कानपुर के गैंगस्टर विकास दुबे के मामले में कुख्यात हुआ था. 13 अप्रैल को ऐसा लगा मानो उनकी खून की पुकार सुन ली गई हो.

उस दिन बाद में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एसटीएफ का एक्शन के लिए हौसला बढ़ाया और एनकाउंटर पर उसकी तारीफ की. उनके कार्यालय ने बताया कि एनकाउंटर पर एक ‘रिपोर्ट’ मुख्यमंत्री को पेश की गई है.

जाहिर है, सूचना में संबंधित पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज की गई किसी FIR का कोई जिक्र नहीं है, जो कि 2014 में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से दी गई व्यवस्था के तहत पुलिस एनकाउंटर में मौत से जुड़े मामलों में जांच के लिए पहली मानक प्रक्रिया है.

किसी को लग सकता है कि ऐसे संदिग्ध हालात में हुई एक हिंसक घटना सिविल सोसायटी में गुस्से को जन्म देगी और संबंधित हितधारकों, जैसे कि संवैधानिक अदालतों को कदम उठाने पर मजबूर करेगी, लेकिन जहां कानून का उल्लंघन रोज की बात हो, वहां अवैधता तो मामूली बात है.

सरकारी हत्याएं और संविधान

सबसे पहली बात, भारतीय संविधान हर शख्स को सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ मौलिक अधिकार की गारंटी के रूप में ‘जीवन का अधिकार’ देता है, जिसे ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के अलावा किसी और तरीके से नहीं छीना जा सकता है.

संवैधानिक अदालतों ने बार-बार दोहराया है कि ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का मतलब ‘कायदे की प्रक्रिया’ से है.

आम आदमी की नजर में इसका मतलब ये होगा कि किसी शख्स को उसके जीवन से वंचित करने के लिए तयशुदा प्रक्रिया और कानून को न्यायसंगत, ईमानदार, आनुपातिक और सही होना चाहिए. इस ‘जीवन के अधिकार’ का संवैधानिक न्यायशास्त्र में काफी ज्यादा महत्व है, मगर सरकारी हत्याएं इस अधिकार के मूल सिद्धांत, यानी जीने के अधिकार पर चोट करती हैं.

भारत में सिर्फ सरकार के पास जिंदगी को खत्म करने का कानूनी अधिकार है; भारतीय दंड संहिता (IPC) में तमाम सजाओं में से एक सजा मौत की तय की गई है, जो IPC के तहत अपराधों की एक श्रेणी के मामले में दी जा सकती है.

मौत की सजा की अपरिवर्तनीय प्रकृति को देखते हुए इस तरह की सजा सिर्फ जिला अदालत, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट द्वारा पक्ष और विपक्ष के सभी तर्कों पर विचार करने के बाद ‘दुर्लभ में भी दुर्लभ’ मामलों में ही दी जा सकती है.

इस तरह ये साफ है कि भारतीय संविधान जीवन को बहुत पवित्र मानता है, और न्यायपालिका के अनुभवी सदस्यों द्वारा तथ्यों की गहराई से जांच और विचार करने बाद ही किसी शख्स को मौत की सजा की इजाजत देता है. इस प्रक्रिया से इतर कोई भी मौत ‘एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्या’ मानी जाती है; कुछ मामलों में आत्मरक्षा के अधिकार के इस्तेमाल में होने वाली मौत के अलावा देश के कानून में इस बारे में किसी भी अपवाद की गुंजाइश नहीं है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याएं और कोर्ट

हालांकि, कथित या सजायाफ्ता मुजरिमों और पुलिस के जवानों के बीच हिंसक भिड़ंत के नाम पर एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याएं सरकारी हत्याएं भारत में पुलिस व्यवस्था की एक बदनुमा हकीकत हैं.

1990 के दशक के बीच के सालों में मुंबई पुलिस और कथित मुजरिमों के बीच भिड़ंतों के कारण होने वाली मौतों से संबंधित कई अपीलों की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम महाराष्ट्र सरकार के मुकदमे में विस्तार से प्रक्रिया तय की, जिनका पुलिस एनकाउंटर के मामले में गहराई से और पक्षपात रहित जांच के लिए पालन होना चाहिए.

इनमें से कुछ में अन्य बातों के साथ-साथ, एक दूसरी पुलिस टीम द्वारा स्वतंत्र जांच, फौरन FIR दर्ज किया जाना और सबूतों की बरामदगी, संबंधित पुलिस अधिकारी द्वारा बैलिस्टिक जांच के लिए हथियारों का पेश करना, मजिस्ट्रियल जांच, तेजी से जांच और अगर ये पता चलता है कि मौत फायर आर्म के इस्तेमाल से हुई है और IPC के तहत अपराध हुआ है, तो संबंधित कर्मियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए.

बताने की जरूरत नहीं है कि पुलिस एनकाउंटर के मामलों में अधिकारियों की पीठ थपथपाने का कोई प्रावधान नहीं है. इसके उलट कानून इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण, टाली जा सकने वाली घटना के तौर पर देखता है जिसकी कड़ाई से सच्चाई की जांच और अदालती पड़ताल की जरूरत होती है.

फिर भी कानून के साफ निर्देशों के बावजूद भारत में हाल के सालों में बड़ी संख्या में सरकारी हत्याएं हुई हैं.

साल 2019 में तेलंगाना में बलात्कार और हत्या के आरोपी चार लोगों को पुलिस हिरासत में एनकाउंटर में मार डाला गया था. पिछले साल सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नियुक्त एक पैनल जांच के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि एनकाउंटर फर्जी था, और ये कि पुलिस ने जानबूझकर गोली चलाई थी और आरोपी को बिना उकसावे के मार डाला था. आरोपियों में तीन नाबालिग थे.

हाल के सालों में उत्तर प्रदेश ने लगातार पुलिस एनकाउंटरों के लिए खासी बदनामी हासिल की है. अपने खुद के आंकड़े (द हिंदू द्वारा पेश यूपी सरकार की एक प्रेस रिलीज) के अनुसार, राज्य में बीते छह सालों में करीब 11,000 एनकाउंटर हुए हैं, जिसमें 63 एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याएं हुई हैं.

संविधान ‘कानून के शासन’ का वादा करता है

इन एनकाउंटरों का सबसे चिंताजनक पहलू – जिसमें दो दिन पहले का असद अहमद का एनकाउंटर भी शामिल है – वो खुशी है, जो इन हत्याओं से आम जनता को मिली है.

पुलिस एनकाउंटरों में होने वाली मौतों को उन दुष्ट अपराधियों का ‘सफाया' या ‘फटाफट इंसाफ’ कह कर सराहा गया, जिन्हें शायद अदालतों में कभी मुजरिम ठहराना मुमकिन नहीं होता.

भारत की जनता में सरकारी हत्याओं के लिए इतने ज्यादा उत्साह की वजह क्या है? क्या ये आपराधिक न्याय प्रणाली में घटता भरोसा है, जो किसी मुकदमे में फैसला आने में सालों का समय ले लेती है? क्या खून की इस प्यास की वजह कानून की लंबी प्रक्रिया है?

कुल मिलाकर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक ढीली-ढाली और बदहाल न्यायिक प्रणाली ने भरोसे में कमी में योगदान दिया. ऐसे में कार्यपालिका अपनी हथियारबंद पुलिस के साथ सुस्त और नतीजन बेअसर अदालतों के मुकाबले इंसाफ के ज्यादा सक्षम प्रदाता के रूप में देखी जा रही है.

हालांकि, ये बदलाव एक गहरी सड़ांध की भी निशानी है: बंदूक के इंसाफ पर खुश होने वाला समाज कानून के शासन की तारीफ नहीं करता है.

कानून का शासन – और इसके नतीजे में अपनाई जाने वाली सही प्रक्रिया – धीमी और बेनतीजा लग सकती है, मगर ये एक प्रतिबद्धता है जो इंसान को बर्बरता के ख्याल से दूर करती है और उन्हें सभ्यता की ओर ले जाती है.

ये प्रतिबद्धता मांग करती है कि हम सबसे दुष्ट अपराधी को भी सुनवाई का मौका दें और निष्पक्ष मुकदमा चलाएं, उनके वास्ते नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की जड़ें गहरी होने के लिए. इस प्रतिबद्धता के अभाव में हम बर्बरता और जंगलीपन के एक जानलेवा भंवर में फंस जाएंगे.

भारत ने 14 अप्रैल को बाबा साहेब की जयंती मनाई है, हमें इस देश के लिए उनके सबसे बड़े उपहार को याद रखना चाहिए: संविधान के रूप में एक सामाजिक अनुबंध, जो अपनी खामियों के बावजूद, भारत में राजनीतिक और सामाजिक व्यवहार का सबसे आदर्श पथ-प्रदर्शक है.

प्रताप भानु मेहता के 2017 के लेख को कोट करते हुए, “हमारे लोकतंत्र की जो भी खामियां हों, इसके रास्ते से हट जाने में ज्यादा बड़ा खतरा है.” भारत को कानून हाथ में लेने के लालच से बहुत सावधानी से बचते हुए अपने संविधान का देश बनाना होगा. कोई और कोई रास्ता नहीं है.

(एडवोकेट हर्षित आनंद दिल्ली में प्रेक्टिस करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @7h_anand और उनसे 7h.anand@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. ये एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT