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अयोध्या में भूमि पूजन उत्सव पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए था. 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ‘मस्जिद की जगह मंदिर’ आंदोलन- मंदिर वहीं बनाएंगे - को जबरदस्त समर्थन सुनिश्चित कर दिया था. इस फैसले में पूरी जमीन हिन्दू पक्षों के नाम कर दी गयी थी. 5 अगस्त को मंदिर का शिलान्यास कर मोदी इस सबका अकेले श्रेय लेने में कामयाब रहे.
इस मौके पर धोती और सुनहरे सिल्क के पूरी बांह वाले कुर्ते के खास पहनावे के साथ, जो हॉलमार्क स्टाइल में सिले हुए थे, प्रधानमंत्री पर सबकी निगाहें तब से टिकी रहीं जब उनका हेलीकॉप्टर राम मंदिर के इस शहर में उतरा. जिस आंदोलन में मोदी का कोई खास योगदान नहीं था, उसे जब मोदी अपने नाम कर रहे थे तो पूजा स्थल के इर्द-गिर्द बैठे लोग या भाषण के दौरान जो लोग वहां बैठे थे, वो मोदी के इस ग्रांड आयोजन में महज मूकदर्शक थे.
पहले इस बात का खुलासा नहीं किया गया था कि वे समग्रता में इस भूमि पूजन को स्वयं करेंगे और दूसरे लोग महज अपनी श्रद्धा रखेंगे और इस अवसर के गवाह होंगे. धर्म और शासन के बीच का फर्क इस उत्सव में पूरी तरह से खत्म दिखा. पीएम मोदी ने राम मंदिर आंदोलन के वेटरन के तौर पर नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के तौर पर पूजा की.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और शासन की शक्ति के बीच जो एक लकीर है वह भी इस उत्सव में धुंधलाता नजर आया. धार्मिक अनुष्ठान के दौरान चार दिग्गज लोगों में मोहन भागवत को आमंत्रित किया गया- उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अन्य दो लोग थे. ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि जिस आंदोलन ने भारत को बांटने और सामाजिक विवाद पैदा करने का काम किया, वह आरएसएस की पहल पर शुरू हुआ था.
संगठन के प्रमुख के तौर पर केवल भागवत ने ही अपने भाषण में इस बात की याद दिलायी कि आंदोलन को आगे बढ़ाने में जिन लोगों का योगदान रहा, वे लोग इस मौके पर अलग-अलग कारणों से मौजूद नहीं हैं.
20वीं सदी में राष्ट्र की प्रतीक हिन्दू देवी ‘भारत माता’ के जयकारे को शामिल करने का फैसला, मंत्रों में वे मंत्र जिनके बारे में दावा किया जाता है कि वे ‘परंपरागत’ हैं- इसने धार्मिक-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्राथमिक उद्देश्य को चिन्हित किया. यह वह सोच है जिसे लेकर संघ परिवार चलता है. बहरहाल, यह मोदी का 35 मिनट का लंबा भाषण था जो चरित्र में बहुस्तरीय था. सुन तो रहे थे सामने बैठे लोग लेकिन लक्ष्य वो भी थे जो वहां नहीं थे.
पीएम मोदी के भाषण में चौंकाने वाले कई पहलू थे- कई बार उनके शब्द मंदिर आंदोलन के उग्र दिनों में हुई घटनाओं के उलट थे. इससे संघ परिवार की कथनी और करनी में फर्क की ओर फिर ध्यान गया.
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि जब सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया तो हिन्दुओं ने इसका उत्सव नहीं मनाया. उन्होंने दावा किया कि इससे साबित होता है कि बहुसंख्यक समुदाय कटुता को पीछे छोड़ने और सामूहिक भविष्य तैयार करने को उत्सुक है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि ‘सारे लोग’ भगवान राम को भारतीय राष्ट्रीय चरित्र के तौर पर ‘स्वीकार’ करें.
प्रधानमंत्री मोदी ने प्रलयकाल की बाइबिल वाली कल्पना का इस्तेमाल किया जब उन्होंने कहा कि इस स्थल का इतिहास विध्वंस और पुनर्निर्माण का है- “टूटना और फिर उठके खड़ा होना”. वह अतीत था. अब समय है कि भव्य मंदिर का निर्माण हो. मुक्ति, त्याग-बलिदान, संघर्ष, व्यतिकर्म जैसे शब्दों और मुहावरों के लगातार इस्तेमाल और सदियों के कठिन परिश्रम की बात करते हुए मोदी ने लगातार याद दिलाया कि राम मंदिर स्थल का अतीत में विरोध हुआ - जो नेता ध्रुवीकरण की अपनी छवि से दूर जाना चाह रहा हो, वो शायद ही ऐसी रणनीति बनाए.
कई साल पहले जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और मैंने उनकी आत्मकथा लिखने के दौरान उनका साक्षात्कार लिया, तब हमने हिन्दुत्व को लेकर उनके दृष्टिकोण पर चर्चा की. और, उन्होंने बताया कि चूंकि भारत में कई आस्थाओं से जुड़े लोग रहते हैं इसलिए पूजा पाठ आदि अलग-अलग हो सकते हैं. लेकिन, उससे देश अलग नहीं होता है, परंपराएं तो अलग नहीं होतीं.
मुख्यमंत्री मोदी का जवाब तब बहुत स्पष्ट था और उसे यहां खास तौर पर याद करने की जरूरत है जब उन्होंने अपने शब्दों को तौलते हुए कहा था और अपने लोगों को संदेश दिया था- “हां, वह मूल तर्क था, मुख्य दर्शन कि भगवान राम देश के महापुरुष (श्रद्थेय या आदर्श पुरुष) थे. और इस देश के हरेक व्यक्ति को यह मानना चाहिए. जिन्होंने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, उन्होंने इसी अभियान को बढ़ाया.”
मोदी की अभिव्यक्ति में यह भावना मजबूत है : “राम हमारे मन में विराजमान हैं, हमारे भीतर घुलमिल गये हैं.” और यह कि “जब हम किसी भी नये प्रॉजेक्ट की शुरुआत करते हैं तो प्रेरणा के लिए भगवान राम की ओर ही देखते हैं.”
बहु धर्मी देश में यह सोच विवादास्पद रहने वाला है, क्योंकि संघ परिवार की शब्दावली में ‘संस्कृति’ की परिभाषा ‘धर्म’ का अतिक्रमण करती है क्योंकि ‘धर्म’ का अर्थ व्यापक है. उन लोगों को यह सोच बहुसंख्यकवादी दबाव लग सकती है जो भारत भूमि से बाहर के धर्म से जुडे हैं.
इस बातचीत में परंपरागत हिन्दी की अभिव्यक्ति और दैनिक अभिवादन का संस्कृतिकरण ध्यान देने योग्य है जिस पर घमासान छिड़ सकता है. क्या यह अपने लोगों को इशारा है कि वे अपनी आवाज़ और अंदाज को बदल लें? अगर ऐसा है तो यह मुश्किल होगा क्योंकि पुरानी आदतें इतनी जल्दी नहीं बदलतीं. टकराव के आदी रहे सीएम आदित्यनाथ को ही ले लीजिए.
बदलाव के लिए मोदी ने ‘कई रामायणों’ की चर्चा की, जो भारतीय भाषाओं में हैं और विदेशों में भी. लेकिन महाकाव्य के नायक के बारे में किसी भी व्याख्या को स्वीकार करने का अवसर उन्होंने नहीं दिया. इसके बजाए उन्होंने इसका अंत इस संदेश के साथ किया कि भारत के मुसलमान भी राम का अनुसरण करना शुरू करें क्योंकि इंडोनेशियाई भी उनका बहुत आदर करते हैं.
हमेशा अपनी राजनीति और नीतियों को राम की परंपरा से जोड़ने का अवसर तलाशते रहने वाले मोदी ने यह बात खुलकर कह दी कि भगवान राम सामाजिक समरसता के लिए प्रतिबद्ध थे, जिसमें गरीबों का ख्याल रखने से लेकर सबके साथ सहानुभूति और भी बहुत कुछ शामिल है.
लेकिन, एक ऐसे समारोह में जिसका आधार विवाद और टकराव है, ‘मेरी राह-मेरी परंपरा’ में सुधार लाते हुए उसे स्थापित करने की कोशिश में ऐसे शब्दों के इस्तेमाल के अपने मायने होंगे और यह अलंकारिक रहेगा. इसका इस्तेमाल क्या खास मौकों पर नहीं होगा क्योंकि इस पर दुनिया की नजर है?
निस्संदेह भारतीय राजनीति में नये अध्याय की शुरुआत हुई है. इसका चरित्र इस बात पर निर्भर करेगा कि मोदी के ये शब्द महज ‘प्रभाव’ के लिए थे या फिर उनके कार्यकर्ता इस पर अमल करने वाले हैं.
(लेखक दिल्ली स्थित लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘डेमोलिशन: इंडिया एट द क्रॉसरोड्स’ और ‘नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स’ जैसी किताबें लिखी हैं. उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है.)
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