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पिछले हफ्ते पूर्व केंद्रीय गृह सचिव माधव गोडबोले का 85 साल की उम्र में कार्डियक अरेस्ट से देहांत हो गया. उनके लिए लिखी गई कई श्रद्धांजलियों में ये लिखा गया कि वो भारतीय प्रशासनिक सेवा के महाराष्ट्र कैडर से जुड़े एक निडर और स्पष्ट अधिकारी थे.
जब 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराई गई तब गोडबोले केंद्रीय गृह सचिव थे. यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को मनाने के लिए ओवरटाइम काम किया जिससे बाबरी विध्वंस की तबाही को रोकने के लिए राव तब उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दें.
उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री को ये समझाने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पर यकीन नहीं किया जा सकता क्योंकि, भगवा भीड़ को सोच समझकर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की मंशा से इस विध्वंसकारी तोड़-फोड़ में शामिल किया जा रहा था, जिसे शांत कराना मुश्किल होगा.
अगर राव ने उनकी सलाह मानी होती तो बाबरी मस्जिद को बचाया जा सकता था और देश उस साम्प्रदायिक कड़ाही में जाने से बच जाता जिसमें आज उबल रहा है.
संविधान को बचाने के अपने प्रयासों में विफल होने के बाद गोडबोले ने अपनी सेवाएं खत्म होने से 18 महीने पहले स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपने सम्मान को बचाए रखा.
गोडबोले ने ये सबकुछ हवा में नहीं किया था. जैसे ही हिंदू संगठनों और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने 9 जुलाई 1992 को कारसेवा शुरू की. उनके मंत्रालय के पास एक आकस्मिक योजना तैयार थी.
ये योजना थी, पहले आधी रात के समय विवादित जगह पर नियंत्रण हासिल करना जब कोई वहां नहीं होगा और इसके बाद राज्य सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाना. गोडबोले ने इसे लेकर बाद में कहा था, हमारे पास सूचना थी कि राज्य सरकार इस जगह को सुरक्षित करने के केंद्र के निर्देश पर कोई कार्रवाई नहीं करेगी और इसलिए राष्ट्रपति शासन लागू करना जरूरी हो गया था.
जब सभी चीजों पर काम कर लिया गया तब नवंबर के दूसरे हफ्ते में मंजूरी के लिए गोडबोले ने गृह मंत्री और प्रधानमंत्री से बात की. इसमें 22 नवंबर की रात को ही संरचना को नियंत्रण में लेने की बात शामिल थी. ये सबकुछ संविधान की अनुच्छेद 355 के तहत किया जाता, जो केंद्र सरकार को राज्य को बाहरी आक्रमकता और आंतरिक गड़बड़ी से बचाने का अधिकार देता है.
कैबिनेट से मंजूरी के लिए इस पर काम किया गया कि देर रात होने वाली बैठक 22 नवंबर की रात को बुलाई जाएगी. इसी बैठक में एक और प्रस्ताव भी लाया गया और वो था, अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करना जिसे पेश किया गया और इसे मंजूरी मिल गई. कानून मंत्रालय ने बारीकी से इस प्रस्ताव को देखा और कैबिनेट की तरफ से एक नोट तैयार करके रखा गया था. हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव लगातार निर्णय लेने में देरी कर रहे थे.
24 नवंबर को प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने केंद्रीय बलों को उत्तर प्रदेश भेजे जाने के लिए क्लियरेंस दे दी. ये फोर्स 26 नवंबर को अयोध्या की तय जगहों पर पहुंच गई और तैनाती के लिए अंतिम आदेश का इंतजार करने लगीं. लेकिन ये आदेश कभी नहीं आया. 30 नवंबर ने नरसिम्हा राव ने गोडबोले को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने को लेकर एक कैबिनेट नोट तैयार करने के लिए बुलाया. लेकिन अगले दो दिनों तक कोई कैबिनेट की कोई बैठक नहीं हुई और जब तक गोडबोले कैबिनेट नोट को 6 दिसंबर तक ले जाते, मस्जिद ढहा दी गई.
नोट नहीं आया पर वो प्रलय आ गया और भारत और उसके लोग आज तक इसकी भारी कीमत चुका रहे हैं.
जिस दिन गोडबोले के देहांत की खबर सामने आई, उसी दिन 108 पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों ने जो Constitutional Conduct Group (CCG) से आते थे, उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चुभने वाला संदेश लिखा और इसकी शुरुआत कुछ इस तरह की गई थी—
हम देश में एक सनक और नफरत से भरे विध्वंस के गवाह बन रहे हैं, जहां बलिवेदी पर सिर्फ मुस्लिम और दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के लोग ही नहीं बल्कि संविधान खुद है.
इस स्पष्टवादी पत्रव्यवहार के जवाब में जो भारत के “Charter of Governance” पर साफ और मौजूदा खतरे को लेकर आगाह करने वाला था, पूर्व जज, जन अधिकारियों और आर्म्ड फोर्सेज अधिकारियों के एक समूह ने तुरंत कुछ ही घंटों के भीतर कड़ा जवाब दिया. इसमें कहा गया,
यहां इन ढोल पीटने वालों ने जो लिखा वो बस कॉन्स्टीट्यूशल कंडक्ट ग्रुप (Constitutional Conduct Group) के सबसे भयावह डर की पुष्टि ही करता है.
तो बाबरी मस्जिद की घटना का जिक्र करने का यहां पूरा सार ये है कि एक सजग प्रशासनिक अधिकारी ने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर संविधान को बचाने की कोशिश की वहीं एक प्रधानमंत्री ने सत्ता में बने रहने के लिए अपने सबसे महत्वपूर्ण मूल्यों से समझौता किया.
या फिर क्या एजी नूरानी सही थे, जब उन्होंने कहा था कि नरसिम्हा राव हिंदूवादियों के करीबी थे, जैसा कि हैदराबाद के उनके रिकॉर्ड को देखकर लगता है और जो उन्होंने तब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर साबित किया. क्या उन्होंने अपने उस स्वभाव को पीछे छोड़ दिया?
ये उस तथ्य से नजर आता है जब भारी गलती करने के बाद शक्तिहीन गुस्सा दिखाते हुए नरसिम्हा राव ने साल 1993 में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की तीन बीजेपी सरकारों को बर्खास्त कर दिया.
अब साल 1975 के इमरजेंसी के दिनों के फ्लैशबैक की तरफ चलते हैं, जब ये लेखक चंडीगढ़ का डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट था. वो पद जो केंद्रीय गृह सचिव के पद से बहुत छोटा होता है. लेकिन उस दौरान मेरे अंदर का आईएएस संविधान के साथ खड़ा रहा और अपनी सीमित क्षमता के भीतर लोकतंत्र की रक्षा की.
ये तब की बात है जब 1 जुलाई 1975 को विशाल जेपी मूवमेंट के नेता और सरकार के नंबर वन दुश्मन जयप्रकाश नारायण को दिल्ली से चंडीगढ़ लाया गया था. केंद्र शासित राज्य के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के तौर पर उनका संरक्षक मैं था. चंडीगढ़ के पूर्व चीफ कमिश्नर टीएन चतुर्वेदी जो बाद में संसद सदस्य और कर्नाटक के राज्यपाल बने वो लिखते हैं—
जेपी को उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए चंडीगढ़ के प्रतिष्ठित पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च के परिसर में रखा गया था.
मुझे भारत के एक महान व्यक्ति से मिलने और बात करने का मौका मिला, ये वो वक्त था जो देश के इतिहास में एक टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. मैंने जेपी को सरकार के अतिथि के रूप में नहीं देखा और न वैसा व्यवहार उनके साथ किया. मैंने जेपी को उस व्यक्ति के रूप में देखा जिसने लाखों भारतीय को प्रेरित किया कि वो अपने अधिकारों के लिए लाठी उठा सकें.
मैं जेपी को एक लिविंग कनेक्शन के रूप में देखता था, महात्मा गांधी के उन विचारों और आदर्शों के मूर्त रूप की तरह जो उन्होंने हमारे स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों के मन में भरा था.
बहुत खराब स्थिति में जाने के बाद जेपी धीरे धीरे ठीक हुए और अपने पुराने रूप में लौटे. तबीयत खराब होने के बाद भी उन्होंने तय कर लिया था कि देश के साथ जो गलत हुआ, वो उसे ठीक करेंगे और उन्होंने इमरजेंसी को हराया.
हालांकि इतने प्रयासों के बाद इंंदिरा और जेपी जैसे धुर्वों के मेल मिलाप की मेरी कोशिश काम नहीं कर पाई और इसकी वजह थी, दिल्ली दरबार में गहरे तक समाई व्यवहारिक राजनीति, जो लोकतंत्र की वापस बहाली की आलोचक थी.
इसे पूरा करने करने के लिए मैंने बंदियों के साथ इंटरव्यू और चिट्ठियां लिखने को लेकर केंद्र सरकार के कड़े नियमों को नहीं माना जो एक बूढ़े व्यक्ति पर उनके एकांत कारावास के कष्टों को बढ़ाने के लिए थोपा जा सकता था.
इसके बाद दो बार मैंने जेपी की जान बचाई. पहली बार तब अगस्त 1975 में जब उन्होंने इमरजेंसी हटाने को लेकर आमरण अनशन पर जाने का तय किया. मैंने उन्हें इसके खिलाफ मनाया और दूसरी बार नवंबर में जब मैंने जेपी को रिहा कराने के लिए गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय पर दबाव बनाने के लिए ‘pincer movement’ की शुरुआत की और इसके तुरंत बाद उनकी किडनी को बचाने के लिए तुरंत उन्हें बॉम्बे के जसलोक अस्पताल भेजा. इसके बाद जेपी चार साल और जिंदा रहे. उन्होंने मार्च 1977 में हुए चुनावों में इमरजेंसी को हरा दिया और भारत को वापस लोकतंत्र में लेकर आए.
प्रशासनिक अधिकारी खास तौर पर वो होते हैं, जो IAS और IPS जैसी सेवाओं से आते हैं. यहां तंजपूर्ण तरीके से कही गई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात को ही लें तो प्रशासनिक अधिकारी बाबू या क्लर्क बनने के लिए नहीं होते. ये संविधान की रक्षा करने वाले होते हैं, जो इसे कट्टर समर्थकों और सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों की सनक और हेरफेर से बचाते हैं.
सेवा में आते ही वो ये महत्वपूर्ण शपथ लेते हैं
और वो जो इस शपथ को बनाए रखने में विफल होते हैं, अपना सम्मान भी खो देते हैं.
(लेखक एक पूर्व आईएएस अधिकारी और "इलेक्टोरल डेमोक्रेसी: एन इंक्वायरी इन द फेयरनेस एंड इंटीग्रिटी ऑफ इलेक्शन इन इंडिया" पुस्तक के संपादक हैं. यह एक ओपिनयन आर्टिकल है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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