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आईएएस अफसरों को हटाने से बात नहीं बनेगी, उनके दिमाग को बदलना होगा

जब तक ये कुप्रथा ठीक नहीं हो जाती, तब तक भारत के आर्थिक सुधार हमेशा आधे-अधूरे ही रहेंगे

राघव बहल
नजरिया
Published:
ब्यूरोक्रेसी पर राघव बहल का आर्टिकल
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ब्यूरोक्रेसी पर राघव बहल का आर्टिकल
(फोटो- क्विंट हिंदी)

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सब कुछ बाबू ही करेंगे. आईएएस बन गए मतलब वो फर्टिलाइजर का कारखाना भी चलाएंगे, केमिकल का कारखाना भी चलाएंगे, आईएएस हो गया तो वो हवाई जहाज भी चलाएगा. ये कौन की बड़ी ताकत बना के रख दी है हमने?

संसद में आईएएस अधिकारियों के खिलाफ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के इस तीखे बयान ने, एक ऐसे वर्ग के लिए जो उनका ‘दुलारा’ माना जाता है, सबको हैरान कर दिया. कभी नियंत्रण न खोने या हमेशा शब्दों का सोच समझ कर इस्तेमाल करने वाले, वो साफ तौर पर बेपरवाह नौकरशाहों को झटका देना चाहते थे. मुझे ये काफी अच्छा लगा. मैंने इस बारे में अपनी शिकायत प्रकट करते हुए अनगिनत कॉलम लिखे हैं कि कैसे आईएएस की जमात ने हमारी अर्थव्यवस्था को जकड़ रखा है और पुराने, प्रतिस्पर्धा विरोधी, ‘समाजवादी’ नीतियों में कैद रखा है जिससे क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा मिला है.

इससे पहले कि मैं अपनी बात आगे बढ़ाऊं, ईमानदारी से एक बात का खुलासा कर दूं कि-मेरे पिता 1957 बैच के एक आईएएस अधिकारी थे, मेरी पत्नी भी एक प्रतिष्ठित आईएएस परिवार से आती हैं. इसके बावजूद भी मैं अपनी धारणा पर कायम हूं. आईएएस अधिकारी शानदार सामान्य प्रशासक हो सकते हैं लेकिन आर्थिक नीति निर्माण के मामलों से अनभिज्ञ और सिद्धांतवादी हैं.

एक दशक पहले, 'सुपरपावर : द एमेजिंग रेज बिटविन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉयज (पेग्विन एलेन लेन, 2010)', में मैंने ये लिखा था:

भारतीय नौकरशाह बहुत ही बुद्धिमान हैं. वो देश के सबसे तेज दिमाग वाले लोगों में एक हैं. वो जल्दी से चीजों को समझ लेते हैं. वो आम तौर पर अच्छे वक्ता और आसानी से मिलने वाले हैं. वो किसी समस्या को अच्छी तरह से देख सकते हैं और उसका समाधान समझ सकते हैं. लेकिन अक्सर वो ‘जस्ट डू इट’ का साहस नहीं जुटा पाते. उनकी ट्रेनिंग ग्लास को आधा खाली देखने के लिए हुई है, कभी आधा भरा देखने के लिए नहीं. उनकी सहज प्रवृत्ति किसी फैसले को टालना है, न कि फैसले लेना. वो ‘बीच का रास्ता’ निकालने के चैंपियन हैं न कि ‘स्वर्णिम मध्य’ यानी सबसे अच्छे विकल्प को ढूंढने के. वो किसी भी ऐसी चीज से दूर रहते हैं जो थोड़ा भी विवादित, नाटकीय या साहसिक हो. वो खुद को बचाने के लिए ‘आम सहमति’ और ‘परामर्श’ का इस्तेमाल करते हैं. उनका पसंदीदा वाक्य है ‘सरकारी फैसले एक प्रक्रिया हैं-परिणामों से जुड़े नहीं होते हैं’. बेशक, ऐसे असाधारण अधिकारी भी होते है जो स्वभाव के विरुद्ध जाते हैं, जो नई चीजें करते हैं और जोखिम उठाते हैं लेकिन एक और पसंदीदा वाक्यांश उधार लें तो ‘कुल मिलाकर’ ये लोग जोखिम उठाने से बचते हैं. विडंबना ये है कि इनमें से कई ने मुझे ऑफ द रिकॉर्ड बताया है कि ‘आप हमारे पास आए ही क्यों? लेकिन अब जब आप आ गए हैं तो हम दोनों फंस गए हैं. आप जल्द फैसला चाहते हैं, लेकिन मुझे आपको ये बताने से पहले आधा दर्जन मंत्रालयों से परामर्श करना होगा कि आपकी कार्रवाई सही नहीं है, लेकिन ये सही है!’
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अब, वो किस तरह से सुधारों को नष्ट कर देते हैं

कुछ साल पहले, पीएम मोदी ने भारत के डिजिटल उद्यमियों को उनके वैश्विक प्रतिस्पर्धियों के बराबर या उनसे अधिक सशक्त बनाने के लिए एक आह्वान किया था. शायद बीबीसी के प्रतिष्ठित कार्यक्रम यस, प्राइम मिनिस्टर से प्रेरित होकर, मैंने इस बारे में एक आर्टिकल लिखा था कि कैसे आईएएस गैंग उनकी देश को डिजिटली डी-कॉलोनाइज करने की इस कोशिश को बरबाद कर देंगे:

श्रीमान आंकड़ों की दृष्टि से शक्की आईएएस अधिकारी: सर, हमें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि एक स्टार्ट-अप किसी बड़े विदेशी या घरेलू शेयरहोल्डर के लिए एक प्रॉक्सी/फ्रंट न बने. इसलिए, हमें ये नियम बनाना चाहिए कि “कोई भी सिंगल शेयरहोल्डर इक्विटी कैपिटल में 10 फीसदी से ज्यादा निवेश नहीं करे”.

श्रीमान आंकड़ों की दृष्टि से शक्की आईएएस अधिकारी: सर, हमें ये सुनिश्चित करना चाहिए कि एक स्टार्ट-अप किसी बड़े विदेशी या घरेलू शेयरहोल्डर के लिए एक प्रॉक्सी/फ्रंट न बने. इसलिए, हमें ये नियम बनाना चाहिए कि “कोई भी सिंगल शेयरहोल्डर इक्विटी कैपिटल में 10 फीसदी से ज्यादा निवेश नहीं करे”.

मिस्टर स्ट्रक्चरली-सस्पीसियस आईएएस ऑफिसर(मिस्टर संरचनात्मक दृष्टि से-शक्की आईएएस अधिकारी): लेकिन सर, आप जानते हैं कि ये बड़ी कंपनियां एक कॉर्पोरेट की आड़ में स्वामित्व की परतें बना सकती हैं. इसलिए हमें “सिंगल शेयरहोल्डर” की परिभाषा में “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष” जोड़ना चाहिए. (हे भगवान, इस “सहज प्रावधान” को शामिल कर हमारे अच्छे अधिकारी ने एक तरह से एक निवेशक के “पैरेंटेज” को प्रमाणित करना असंभव बना दिया. इस बेचारे व्यक्ति को कई आत्मकथाएं लिखनी होंगी जिनकी प्रमाणिकता की सुरक्षा जांच करनी होगी सैक्रेमैंटो (शहर) से सीतामढ़ी तक!).

श्रीमान बाल की खाल निकालने वाले आईएएस अधिकारी: और सर, क्या हम वास्तव में फ्लिपकार्ट के संस्थापकों द्वारा शुरू किए गए दूसरे वेंचर को “स्टार्ट-अप” कह सकते हैं? आखिरकार वो अब अरबपति हैं. इसलिए हमें एक “दूसरा नियम” जोड़ना चाहिए कि ये लाभ “केवल पहली पीढ़ी के उद्यमी के पहले वेंचर” के लिए ही उपलब्ध होंगे. (अब इस बात का पता लगाइए कि- कौन पहली पीढ़ी का है और उसका “पहले वेंचर से सफलतापूर्वक बाहर होने के बाद दूसरा वेंचर” क्या है. जैसा कि आप देख सकते हैं कि, अब तक नीति पूरी तरह से अमल में लाने लायक नहीं रह गई है.)

श्रीमान ताबूत में अंतिम कील वाले आईएएस अधिकारी: सर, हमें टेक/इनोवेशन के क्षेत्र में स्टार्ट-अप करने वालों और पकौड़ा दुकान जैसे स्टार्ट-अप के बीच अंतर करना चाहिए. इसलिए सर, ये रियायतें केवल उन्हीं स्टार्ट-अप्स को उपलब्ध कराई जानी चाहिए जो “इनोवेटिव बिजनेस ऑपरेशन” की पहचान करने के लिए डीआईपीपी के तहत स्थापित अंतर मंत्रालय बोर्ड द्वारा विधिवत प्रमाणित हैं.

फिर से वैसी ही बात! “दुनिया की चुनौती का सामना करने के लिए भारतीय उद्यमियों को समर्थ बनाने के प्रधान मंत्री मोदी के निर्देश की स्याही सूखने के पहले ही, उनके कुलीन आईएएस ब्रिगेड ने खौफनाक शक्तियां सीतामढ़ी, बिहार (और शायद सैक्रेमैंटो का इलाका भी, लेकिन हम इसको लेकर निश्चित नहीं हो सकते) के सेक्शन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) के हाथ में दे दी.

दोष निकालने वाले माइक्रो मैनेजर्स, पैदा होते ही नष्ट होने वाले सुधार

इसी तरह की एक कड़ी में, मुझे संदेह है कि प्रधान मंत्री मोदी का “सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में आईएएस मैनेजरों से छुटकारा पाने“ का नेक इरादा एक कमजोर आधा-अधूरा सुधार हो सकता है जिसका असफल होना तय है.

असली समस्या ये नहीं है कि कुछ मुट्ठी भर बाबू व्यावसायिक उद्यमों के समूह चलाते हैं. भयावह वास्तविकता ये है कि जब तक आईएएस अधिकारी आर्थिक नीति बनाने के लीवर को नहीं छोड़ते, तब तक उनका निराशावाद संक्रामक होगा. क्यों? क्योंकि उनका शुरुआत से अंत तक का सुरक्षा घेरा उन्हें अस्थिर सफलता और असफलता से बचाता है.

उन्हें कितना पैसा मिलेगा ये योग्यता या उपलब्धि पर निर्भर नहीं. चाहे आप तेजी से काम करने वाले हों या सुस्त काम करने वाले, आप उसी धीमी लेन में चलते है. यह गतिरोध अक्सर जोखिम लेने से रोकता है. ये मुक्त बाजारों के बारे में गहरा संदेह पैदा करता है. इसलिए माइक्रो मैनेज और “नियम बनाने” की जरूरत पड़ती है. जब तक ये कुप्रथा ठीक नहीं हो जाती, तब तक भारत के आर्थिक सुधार हमेशा आधे-अधूरे ही रहेंगे.

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