मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019दोबारा चुनाव जीतने के लिए बालाकोट को कारगिल 2.0 ना बनाएं मोदी जी

दोबारा चुनाव जीतने के लिए बालाकोट को कारगिल 2.0 ना बनाएं मोदी जी

मोदी ने पहली बार वोट डालने वालों से अपील की कि वे अपना मत ‘बालाकोट के योद्धाओं और पुलवामा के शहीदों’ को‘समर्पित’ करे

राघव बहल
नजरिया
Updated:
क्या यह कारगिल 2.0 रणनीति है?
i
क्या यह कारगिल 2.0 रणनीति है?
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधान सेवक और विकास के संत थे (मैं संत की जगह इवैंजलिस्ट लिखने जा रहा था, लेकिन लगा कि शायद मौजूदा शासकों को यह प्रयोग पसंद न आए या वे इस रूपक की बारीकी न समझ पाएं). आज प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को प्रधान सेनापति में बदल लिया है. उन्होंने कवच धारण किया हुआ है.

वह दुश्मन के हाथ काटने (पाकिस्तान या फिदायीन) को चेतावनी दे रहे हैं. मोदी कह रहे हैं कि शत्रु अंतरिक्ष में छिपा हो या पाताल में,वे उसे नहीं छोड़ेंगे. वह अपने विरोधियों को (कांग्रेस, गांधी परिवार और ममता बनर्जी) पाकिस्तान और आतंकवादियों का हमदर्द बताते हैं.

यहां तक कि मोदी ने पहली बार वोट डालने वालों से अपील की कि वे अपना मत ‘बालाकोट के योद्धाओं और पुलवामा के शहीदों’ को‘समर्पित’ करें. यह इशारों-इशारों में देश के वीर जवानों के नाम पर वोट मांगने की कोशिश थी. चुनावी रैलियों में मंच से वह खुद को थर्ड पर्सन में संबोधित करते हुए कहते हैं कि सिर्फ मोदी ही ‘हमें’ इन टुकड़े-टुकड़े देशद्रोहियों से बचा सकते हैं. उनकी राजनीतिक छाया माने जाने वाले अमित शाह भी इसी तर्ज पर राहुल गांधी पर ‘पाकिस्तान से चुनाव लड़ने’ का आरोप लगाते हैं, क्योंकि जिस वायनाड की दूसरी सीट से वह चुनाव लड़ रहे हैं,वहां आईयूएमएल कार्यकर्ता अपनी पार्टी के हरे झंडे के साथ उनके समर्थन में उतरे थे. आदित्यनाथ ने इसे ‘उनके अली और हमारे बजरंग बली’ का संघर्ष बताया.

बीजेपी के संकल्प पत्र (चुनावी घोषणापत्र) ने रहा-सहा शुबहा भी खत्म कर दिया. इससे स्पष्ट हो गया कि प्रधानमंत्री सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा और अंध-राष्ट्रवाद के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं. बालाकोट का हवाई हमला और उरी आतंकवादी हमले के बाद की सर्जिकल स्ट्राइक इसमें उनके शुभंकर हैं.‘देश को टुकड़े-टुकड़े होने से रोकना’ उनका मिशन है. संकल्प पत्र में बीजेपी ने कश्मीरियों को विशेष अधिकार देने वाले आर्टिकल 35ए को खत्म करने का अप्रत्याशित वादा किया है. कहने को तो यह सब राष्ट्रवाद है, लेकिन असल में प्रधानमंत्री और बीजेपी ने इनके जरिये सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का मिसाइल दागा है. कृषि, गरीबी, बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर उदासीन रिकॉर्ड पर परदा डालने के लिए यह कॉकटेल तैयार किया गया है.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

क्या यह कारगिल 2.0 रणनीति है?

कई मोदी भक्त इसे उनकी कारगिल 2.0 रणनीति बता रहे हैं. उनका कहना है कि जिस तरह से 1999 के कारगिल युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी की लोकप्रियता 10 परसेंटेज प्वाइंट्स बढ़ गई थी, उसी तरह से बालाकोट के बाद मोदी की लोकप्रियता लोगों के बीच बढ़ी है. जैसे वाजपेयी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली विधानसभा चुनावों में हुई हार से पीछा छुड़ाकर कुछ महीनों बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी, उसी तरह से मोदी भी मई 2019 में दोबारा फतह हासिल करेंगे.

यह सिंपल और एक सूत्रीय रणनीति है. युद्ध का कार्ड खेलो और जिस तरह से वाजपेयी को जीत मिली थी, उसी तरह से इस बार भी जीत मिलेगी. खुद को और वोटरों को दूसरे मुद्दों में मत उलझने दो. सिर्फ पाकिस्तान और मुस्लिम का हौवा दिखाओ, कट्टर हिंदुत्व, भय, आतंकवाद, विपक्ष के कमजोर और डरपोक नेताओं का शोर मचाओ तो जीत तुम्हारे कदम चुमेगी. गेम बड़ा सिंपल है और इसमें जीत पक्की मान ली गई है.

हालांकि, मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकार अति-आत्मविश्वास का शिकार हो गए हैं. वे चमचागीरी करने वाले टीवी चैनलों के ओपिनियन पोल से बहक गए हैं. मेरा मानना है कि वाजपेयी को 1999 में सिर्फ कारगिल की वजह से जीत नहीं मिली थी. वाजपेयी की जीत के चार कारण (मोदी के पास यह बेनेफिट नहीं है) थे और कारगिल ने इनके प्रभाव को और बढ़ा दिया था.

पहलाः एक वोट से सरकार गिरने के बाद जबरदस्त सहानुभूति

शेक्सपीयर के नाटकों जैसी त्रासदी से सिर्फ 13 महीने बाद वाजपेयी की सरकार गिर गई. वाजपेयी सरकार से तब जयललिता की एआईएडीएमके ने समर्थन वापस ले लिया था, जिसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री के सामने विश्वास मत साबित करने की चुनौती आ गई. विश्वास मत के दिन मायावती की सुबह वाजपेयी से मुलाकात हुई और उन्होंने सरकार के समर्थन का वादा किया. लोगों ने राहत की सांस ली. जनता ‘मजबूत’ नेता वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाए रखना चाहती थी, आखिर उन्होंने परमाणु परीक्षण किया था और अमेरिकी पाबंदियों का डटकर मुकाबला किया था.

हालांकि, मायावती ने वाजपेयी की पीठ में छुरा मारा और सरकार के खिलाफ वोट डाला. इससे सरकार के पक्ष और विपक्ष में 269-269 वोटों के साथ ड्रॉ हो गया. यह तूफान शायद गुजर गया होता, क्योंकि लोकसभा अध्यक्ष के वाजपेयी के समर्थन में वोट डालने से सरकार बच गई होती, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. प्रधानमंत्री के साथ नियति ने एक और क्रूर मजाक किया. ओडिशा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग (विडंबना देखिए कि 2019 लोकसभा चुनाव वह बीजेपी के टिकट पर लड़ रहे हैं) ने तब तक लोकसभा की सदस्यता नहीं छोड़ी थी, उन्होंने वाजपेयी के खिलाफ वोट डाला और 269-270 के स्कोर के साथ वाजपेयी की सरकार एक वोट से गिर गई.

क्या गमांग का वोट डालना नैतिक तौर पर ठीक था? क्या लोकसभा अध्यक्ष को उनके वोट को अस्वीकार कर देना चाहिए था? आखिर, वाजपेयी ने इसे अदालत में चुनौती क्यों नहीं दी? बहरहाल, वाजपेयी ने यादगार भाषण के साथ प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देने का फैसला किया- उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा, ‘सिर्फ एक वोट के आगे 80 करोड़ भारतवासियों की इच्छा हार गई.’ वाजपेयी मंझे हुए राजनेता थे. उन्हें पता था कि ‘धोखा, फरेब और एक वोट’ से सरकार गिरने से उनके पक्ष में सहानुभूति लहर पैदा होगी. उन्हें पता था कि अगर चुनाव जब भी होगा, लोग उनका जोरशोर से समर्थन करेंगे.

दूसराः 10 साल में 6 प्रधानमंत्री देखने के बाद देश स्थिरता की कामना कर रहा था

1989 से 1998 के बीच देश ने वीपी सिंह (11 महीने),चंद्रशेखर (एक तरह से पांच महीने), पीवी नरसिम्हा राव (पांच साल), अटल बिहारी वाजपेयी (पहले कार्यकाल में 13 दिन),एच डी देवेगौड़ा (11 महीने), और इंदर कुमार गुजराल (9 महीने) के रूप में छह प्रधानमंत्री देखे थे. भारत राजनीतिक अस्थिरता से तंग आ चुका था. इसके बाद दूसरे कार्यकाल में वाजपेयी सरकार ने स्थिरता की आस बंधाई थी,जो 13 महीने में टूट गई. वोटरों ने अगला मौका आने पर चुपचाप वाजपेयी के साथ न्याय करने की शपथ ली थी.

तीसराः वाजपेयी बड़े दिल वाले नेता थे और उनके पास गठबंधन का तंबू था

मोदी के उलट वाजपेयी ने कई दलों का साथ लेकर दायरा बढ़ाया था. सहयोगी दल वाजपेयी को बहुत मानते थे. उन्हें इस तरह से ऐसे 69 सांसदों का समर्थन मिला था, जो आज मोदी के शत्रु हैं. ममता की टीएमसी, नवीन पटनायक की बीजेडी, स्टालिन की डीएमके के पास 1999 में जितनी सीटें थीं, 2019 में उन्हें उससे दोगुनी या चार गुनी तक सीटें मिल सकती हैं.

चारः कांग्रेस की एकला चलो की पंचमढ़ी पॉलिसी भयानक भूल थी

सितंबर 1998 में सोनिया गांधी की कांग्रेस की मध्य प्रदेश के पंचमढ़ी में बैठक हुई,जिसमें देशव्यापी राजनीतिक आधार के लिए अलायंस की राजनीति से दूरी बनाने का फैसला हुआ. इसके बाद मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे संभावित सहयोगियों ने कांग्रेस पर ‘विश्वासघात’ का आरोप लगाया. वाजपेयी की समावेशी राजनीतिक के उलट कांग्रेस ने साहसी, लेकिन कमजोर अलगाव का रास्ता चुना. लिहाजा, चुनाव में उसकी हार हुई और इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं थी.

कारगिल की तरह ही बालाकोट भी सिर्फ एक कारण है

इस विश्लेषण से साफ है कि 1999 में वाजपेयी की जीत के चार बड़े कारण थे, लेकिन लोगों ने कारगिल को जीत का श्रेय दिया, जो भ्रामक और गलत है. इनकी अनदेखी करके प्रधानमंत्री मोदी आक्रामक अंदाज में कह रहे हैं कि ‘बालाकोट कारगिल 2.0 है, इसलिए मुझे चुनो.’ वह चुनाव में सारे तीर बालाकोट और पाकिस्तान को निशाने पर रखकर छोड़ रहे हैं. इससे एक संकीर्ण, टूटने वाला और एकसूत्रीय विमर्श बना है. हो सकता है कि इस वजह से 2014 की तुलना में उन्हें 2019 में कम सीटों से संतोष करना पड़े.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 13 Apr 2019,02:55 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT