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बांग्लादेश (Bangladesh) की शेख हसीना सरकार ने शुक्रवार, 19 जुलाई को पूरे देश में कर्फ्यू लागू कर दिया. लेकिन यह कदम 1 जुलाई को बांग्लादेश में शुरू हुए छात्रों के विरोध प्रदर्शन (Bangladesh Students Protests) को दबाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद हिंसा थमने की उम्मीद की जा रही है. बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण घटाकर 56 की जगह 7 प्रतिशत को सीमा बना दिया है और साथ ही प्रदर्शनकारी छात्रों से वापस लौटने की अपील की है.
पुलिस गोलीबारी में पहले ही 100 से अधिक प्रदर्शनकारी मारे जा चुके हैं और 25,000 प्रदर्शनकारी घायल हो गए हैं.
पीएम हसीना ने लॉ एंड ऑर्डर में भारी गिरावट के बाद कर्फ्यू लगा दिया है. सोशल मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि शुक्रवार को गाजीपुर के मेयर पर हमला किया गया और उनके बॉडिगार्ड की हत्या कर दी गई; प्रदर्शनकारियों ने मध्य बांग्लादेश के नरसिंगडी में एक जेल पर हमला किया. यहां 500 कैदी भाग गए और लगभग 4000 प्रदर्शनकारियों ने रंगपुर में एक पुलिस अड्डे पर हमला किया.
बांग्लादेश के इतिहास से पता चलता है कि छात्रों ने उन आंदोलनों का नेतृत्व किया है जिन्होंने इस देश को बदल दिया - 1952 के भाषा आंदोलन और 1971 के मुक्ति संग्राम से लेकर 1991 में जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद की सरकार को हटाने वाले आंदोलन तक.
हालांकि, मौजूदा आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार के खिलाफ शुरू नहीं हुआ था. लेकिन, अब की जब छात्र नारे लगा रहे हैं कि "यह अब एक युद्ध है" तो यह आश्चर्य होता है कि आंदोलन का राजनीतिक परिणाम क्या हो सकता है.
NOTE: बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने रविवार, 21 जुलाई को फैसला सुनाते हुए सरकारी नौकरियों में अधिकांश कोटा खत्म कर दिया है. अब कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि केवल 5% नौकरी ही मुक्ति संग्राम में लड़ने वालों के रिश्तेदारों के लिए आरक्षित की जा सकती हैं. वहीं 2% कोटा अन्य, जैसे अल्पसंख्यक समूह के लिए.
बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में अब तक कुल आरक्षण 56 फीसदी है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 7% तक सीमित कर दिया है. पिछले साल, लगभग 346,000 उम्मीदवारों ने केवल 3,300 सिविल सेवा नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा की थी. ध्यान रहे कि ये छात्र प्रदर्शनकारी विकलांग व्यक्तियों, महिलाओं और जातीय अल्पसंख्यकों के लिए कोटा के खिलाफ नहीं हैं.
हर तरह से बांग्लादेश में बेरोजगारी की स्थिति गंभीर है. प्राइवेट सेक्टर की नौकरियां कम हो गई हैं और कार्यकाल की अधिक सुरक्षा वाली सरकारी नौकरियां कम हैं. 2023 के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 15 से 24 आयु वर्ग के लगभग पांच बांग्लादेशी युवाओं में से एक न तो क्लास में पढ़ रहा है और न ही नौकरी में है. सालाना जॉब मार्केट में प्रवेश करने वाले 20 लाख से अधिक युवाओं में से लगभग 65,000 नए ग्रेजुएट हैं. उन्हें अपनी उम्र के कम पढ़े-लिखे लोगों की तुलना में बेरोजगारी की उच्च दर का सामना करना पड़ता है.
बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में मंदी स्पष्ट है. देश की जीडीपी विकास दर घट रही है, विदेशी निवेश गिर गया है और विदेशी मुद्रा भंडार सिकुड़ रहा है. इसका मतलब है कि कम नौकरियां पैदा होंगी और आय कम होगी.
नौकरी की बढ़ती कमी के साथ, कोई भी कोटा प्रणाली, चाहे वह कितनी भी उचित क्यों न हो, उसकी आलोचना होना स्वाभाविक है. ढाका और जहांगीरनगर यूनिवर्सिटी से शुरू हुआ आंदोलन खुलना, चटगांव, बारिसल, सिलहट, राजशाही और कोमिला की यूनिवर्सिटिज और कॉलेजों तक फैल गया है.
छात्रों का विरोध प्रदर्शन 1 जुलाई को शुरू हुआ, जब सरकार को दिया गया उनका अल्टीमेटम खत्म हो गया. हालांकि, प्रधान मंत्री हसीना की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद टकराव तेज हो गया, जहां उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों के कोटा को बनाए रखने के प्रति अपनी सरकार के फैसले का संकेत दिया. उन्होंने प्रदर्शनकारियों की मंशा पर सवाल उठाते हुए पूछा, “वे स्वतंत्रता सेनानी कोटा का विरोध क्यों कर रहे हैं? क्या वे चाहते हैं कि रजाकारों के वंशजों को सारी सुविधाएं मिलें?”
बता दें कि रजाकार एक अपमानजनक शब्द है जिसका इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जिन्होंने 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान सेना के साथ सहयोग किया था.
उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस ने छात्र नेताओं के इस संदेह की पुष्टि की कि हसीना स्वतंत्रता सेनानियों का कोटा बरकरार रखना चाहती थीं क्योंकि उनका मानना था कि उनकी संतानें उनकी समर्थक थीं और कोटा नीति एक वफादार नौकरशाही सुनिश्चित करेगी.
हसीना शासन के समर्थकों और कुछ नीति निर्माताओं ने गलत सुझाव दिया है कि छात्र आंदोलन का नेतृत्व प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी और विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) द्वारा किया जा रहा है. आंदोलन छात्र नेताओं के साथ विकेंद्रीकृत था और जारी रहेगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी राजनीतिक दल उनके आंदोलन का लाभ नहीं उठा सके. छात्रशिबिर (जमात-ए-इस्लामी की छात्र शाखा) या बीएनपी की छात्र शाखा, बांग्लादेश जातीयताबादी छात्र दल, जिसकी किसी भी तरह से व्यापक उपस्थिति नहीं है, विरोध प्रदर्शन में शामिल हो सकते हैं, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को आंदोलन को नियंत्रित करने की अनुमति नहीं दी जा रही है.
बीएनपी स्पष्ट रूप से आंदोलन को हसीना को सत्ता से बाहर करने की मांग में तब्दील होते देखना चाहेगी, लेकिन इसके नेताओं से इस संवाददाता ने बात की, तो उन्होंने स्वीकार किया कि आंदोलन शुरू करने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी. शुरू में, पार्टी ने केवल गिरफ्तार छात्रों की यातना की आलोचना की, पुलिस गोलीबारी में पहले छात्र की मौत के बाद ही आंदोलन का खुलकर समर्थन किया.
निर्वासित बीएनपी के एक पूर्व मंत्री, जो स्वयं "मुक्तिजोद्धा" हैं, उन्होंने कहा, "आंदोलन न तो हमारे नियंत्रण में है और न ही हम जानते हैं कि यह किस दिशा में जाएगा. लेकिन जब छात्र पुलिस फायरिंग में मरने लगें तो बीएनपी को चुप क्यों रहना चाहिए? आखिरकार यह हमारा देश है और ये हमारे बच्चे हैं.”
इसमें कोई संदेह नहीं है कि बांग्लादेश में भारत विरोधी भावना बढ़ रही है और यही कारण है कि नई दिल्ली को मौजूदा स्थिति से चतुराई से और परिपक्व तरीके से निपटने में ढाका की मदद करनी चाहिए - जिससे आगे होने वाली मौतों को कम किया जा सके. भारत को बांग्लादेश के लोगों के हितों के साथ अपने हितों को संतुलित करना होगा. इन्हें किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति के पास गिरवी नहीं रखा जा सकता.
(लेखक दिल्ली में वेस्ड एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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