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BBC का आयकर सर्वे: पत्रकारिता से ऊपर राष्ट्रवाद तो फिर प्रेस की आजादी का क्या?

बीजेपी को मोदी की भारत से बराबरी करने की आदत पड़ गई है और उनकी किसी भी आलोचना को देश पर हमला करार दे दिया जाता है.

माधवन नारायणन
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>BBC का आयकर सर्वे: पत्रकारिता से ऊपर राष्ट्रवाद तो फिर प्रेस की आजादी का क्या?</p></div>
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BBC का आयकर सर्वे: पत्रकारिता से ऊपर राष्ट्रवाद तो फिर प्रेस की आजादी का क्या?

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इनकम टैक्स (IT) अधिकारी दूसरे दिन ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (BBC) दफ्तर में अपनी तलाशी/सर्वे कर रहे थे, उसी दौरान इस मुद्दे पर एक पैनल चर्चा में मैंने जरा तंज भरे लम्हे में कहा, “पत्रकारिता पर राष्ट्रवाद की जीत हुई है.”

भारत में देशभक्ति का जुनून इस कदर हावी है कि सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थक और दूसरे लोग खुलेआम BBC पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं. कहा जा रहा है 2002 के गुजरात दंगों पर एक विवादास्पद डाक्यूमेंट्री बनाने के लिए उसने चीन से पैसे लिए. हर कहीं इस मीडिया कंपनी को “भारत विरोधी” करार दिया जा रहा है और कहा जा रहा है कि यह मीडिया संस्थान के तौर पर जरूरी बातों पर ध्यान नहीं दे रहा है.

पैनल चर्चा पूरी होने के फौरन बाद मुझे एक रिटायर्ड सिविल सर्वेंट मित्र का वाट्सएप मैसेज मिला, जिसमें मोदी सरकार से जुड़े एक बड़े कारोबारी घराने को लेकर मचा शोर-शराबा थम जाने को लेकर लिखा था-''मिशन पूरा हुआ”

मीडिया दफ्तरों में इनकम टैक्स विभाग की तलाशी किस तरह पत्रकारिता के अधिकारों का हनन करती है

इस फरवरी में नई दिल्ली में इतनी गर्म हवा चल रही है कि मौसम वसंत की शुरुआत जैसा नहीं लग रहा है और ऐसे में राजनीति का पारा भी गरम है. हमें पत्रकारिता, राष्ट्रवाद, बड़े कारोबारी घराने, भारत के संविधान और लोकतंत्र को बचाए रखने के वास्ते असल हालात को जानने के लिए इनका आपसी रिश्ता समझने की जरूरत है.

जो लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तौर-तरीकों के समर्थक हैं, वे इनकम टैक्स अधिकारियों की तलाशी को सही ठहराने के लिए “कोई भी कानून से ऊपर नहीं है” वाले सिद्धांत का सहारा ले रहे हैं, मगर जैसा कि दावा किया जा रहा है, उससे इतर कई असामान्य घटनाएं हैं जो बताती हैं कि सर्वे कानून का उल्लंघन करने वालों को पकड़ने की सामान्य कार्रवाई नहीं है.

इनमें से सबसे खास बात यह है कि हाल ही में BBC ने भारत में चुनावी साल से ठीक पहले 2002 के दंगों को फिर से उभारा है और वह भी तब जब मोदी भारत को जी20 ग्रुप की अध्यक्षता मिलना शान के साथ निजी उपलब्धि के तौर पर पेश कर रहे थे.

बदले की कार्रवाई के अलावा ये भी दिलचस्प बात यह है कि ऐसा बताया जा रहा है कि पत्रकारों के स्मार्टफोन और लैपटॉप की तलाशी ली गई और शायद उस सर्वे में उनकी कॉपी  (clone) बनाई गई. सवाल ये है कि अगर ट्रांसफर प्राइसिंग से गलत तरीके आर्थिक लाभ का पता लगाना सर्वे का बुनियादी मकसद था, तो पत्रकारों की इस तरह तलाशी क्यों ली गई जिससे उन दस्तावेजों या सूत्रों की गोपनीयता भंग हो सकती है, जो उनके काम का हिस्सा हैं.

यह भारतीय संविधान के तहत गारंटी किए गए तीन मौलिक अधिकारों के उल्लंघन जैसा लगता है: अभिव्यक्ति की आजादी, कोई भी पेशा अपनाने की आजादी और हाल ही में मौलिक हक बना- निजता का अधिकार.

ये बीबीसी के आईटी सर्वे को एक वित्तीय अनियमितता के केस से ज्यादा बनाता है. जबकि वित्तीय अनियमितताओं को अक्सर यहां के जटिल कानूनों के तहत सिविल केस माना जाता है. BBC कोई मुनाफा कमाने वाली संस्था नहीं है और इसके दफ्तरों में लंबे समय तक चलने वाली तलाशी संदेह पैदा करती है.

कठोर कार्रवाइयां, मीडिया ट्रायल: जब BBC को घेरने की कोशिशें की गईं

बड़ा सवाल यह है कि क्या केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI), प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate), इनकम टैक्स (Income Tax) अधिकारियों और पुलिस द्वारा कथित तौर पर विपक्षी नेताओं, कथित तौर पर उनसे मिलीभगत रखने वाले व्यापारिक घरानों, मीडिया संस्थाओं और विपक्ष शासित राज्य सरकारों से जुड़े मामलों में मारे गए छापे, इन सब में कोई समानता है?

ऐसा लगता है कि सिविल सेवाओं को हथियार बनाया जा रहा है, जिसकी स्वतंत्र न्यायिक समीक्षा की जरूरत है, लेकिन समर्थक टीवी चैनलों और अर्थहीन ब्रेकिंग न्यूज की हेडलाइंस के दौर में राजनीति ऐसी हो गई है कि सिर्फ छापा या तलाशी भी अपराधी साबित कर देने के लिए काफी है.

इस तरह, आप कह सकते हैं कि गुजरात पर डाक्यूमेंट्री और साथ ही BBC का सर्वे दोनों दोषारोपण की राजनीति की कारगुजारियां हैं जो अदालतों के दायरे से परे हैं, जहां फैसला सिर्फ पेश किए गए सबूतों पर होता है.

मोदी सरकार, उसके प्रवक्ता और समर्थक जब-तब 1975 में तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी की याद दिलाते हैं, जब उन्होंने BBC को बंद करा दिया था और BBC पर कार्रवाई का औचित्य साबित करने के लिए विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था.

या फिर वे हवाला देते हैं कि किस तरह BBC को अपने ही देश में प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर द्वारा निशाना बनाया गया था. यह विडंबना है. पत्रकारिता के नजरिये से किसी भी मीडिया संगठन के लिए यह इज्जत की बात होगी अगर वह उस सरकार के खिलाफ खड़ा होता है, जो उसे चलाने के लिए फंड देती है.

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मोदी सरकार का BBC के साथ बर्ताव उसके ‘आलोचना को दबाने’ के रुख को कैसे उजागर करता है

यह भी याद रखना चाहिए कि BBC ने दिवंगत प्रिंसेज डायना का एक विवादास्पद वीडियो इंटरव्यू दिखाया था, जो यह दर्शाता है कि ब्रिटिश शाही परिवार भी BBC के लिए ईश्वरीय अवतार या पहुंच से बाहर नहीं है.

बिना ठोस सबूत के ऐसे संगठन पर साजिश या उपनिवेशवाद का आरोप लगाना, मोदी सरकार को उलटा नुकसान पहुंचा सकता है. न्यूयॉर्क टाइम्स ने आईटी सर्वे को “thin-skinned (नाजुक खाल)” प्रतिक्रिया बताया है, लेकिन बीजेपी को मोदी की भारत से बराबरी करने की आदत पड़ गई है और उनकी किसी भी आलोचना को देश पर हमला करार दे दिया जाता है.

यह तरीका पहले भी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जमाने में आजमाया जा चुका है. यह तब काम नहीं आया. शायद ये आज भी काम नहीं करेगा, भले ही उन्माद फैलाने के लिए दोस्ती निभाने वाले मीडिया संस्थाएं मौजूद हैं.

बीजेपी शासन में एनडीटीवी (NDTV), दैनिक भास्कर (Dainik Bhaskar), न्यूज़क्लिक (Newsclick), न्यूज़लॉन्ड्री (Newslaundry), और इंडिपेंडेंट एंड पब्लिक-स्पिरिटेड मीडिया फाउंडेशन (IPS MEDIA FOUNDATION) सहित तमाम मीडिया संस्थाएं पिछले कुछ सालों में कानून लागू करने वाली एजेंसियों के “सर्वे” का सामना कर चुकी हैं. सिविल सोसायटी ग्रुप, NGO और ह्यूमन राइट्स ग्रुप भी एजेंसियों के निशाने पर रहे हैं.

यह सब बताता है कि प्राचीन संस्कृति से प्यार करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी आधुनिक लोकतंत्र, जिसमें सरकारों की जनता के हाथों कड़ी समीक्षा शामिल है, के विचार को नापसंद करती है और अक्सर इसे “विदेशी” या “औपनिवेशिक” असर बताया जाता है.

सन 1987 में जब राजीव गांधी सरकार को बोफोर्स हथियारों के सौदे में दलाली पर द इंडियन एक्सप्रेस (The Indian Express) की खोजी रिपोर्टों का सामना करना पड़ा, तो राजस्व खुफिया निदेशालय ने सीमा शुल्क, विदेशी मुद्रा और आयात नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए अखबार के कार्यालयों की तलाशी ली. तब बीजेपी ने इसे प्रेस की आजादी पर हमला बताया था. कांग्रेस अब यही आरोप बीजेपी पर लगा रही है.

आपने समझ रहे हैं ना? राजनीति में स्थायी नीति के बजाय फटाफट फायदे की चिंता ज्यादा होती है. और अलग-अलग समय पर अलग-अलग पार्टियों के लिए अलग-अलग नियम होते हैं. यही वजह है कि हमें एक स्वायत्त न्यायपालिका और मीडिया की जरूरत है, जो राजनीतिक बयानबाजियों से परे असल मंशा को जानना चाहे.

बीजेपी और उसके पश्चिम से प्रेरित निरंकुश मॉडल प्रेस की आजादी से कैसे पेश आता है

यह बिल्कुल साफ है कि बीजेपी सरकार आधुनिक के बजाय प्राचीन चीजों के लिए अपने प्यार के हिसाब से पश्चिमी लोकतंत्रों की तुलना में चीन, तुर्की और रूस से ज्यादा प्रेरणा लेती है. इस तरह की मानसिकता रखने वालों के लिए तर्क-वितर्क करने वाले भारतीयों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ कहना या सोशल मीडिया पर तुम्हारा दौर बीत गया बोलकर मजाक उड़ाना स्वाभाविक है.

लेकिन जब US या UK की सरकारों के साथ बोइंग (Boeing) और एयरबस (Airbus) से विमानों का सौदा करने की बात आती है तो उसी सरकार के लिए यह सामान्य कारोबार है, जैसा कि इस हफ्ते हुआ. गुजरात में एक लोकप्रिय कहावत है “बिजनेस इज बिजनेस.” आयात के लिए विमान ठीक हैं, पर विचार नहीं. ओह कोई बात नहीं.

इसके अलावा भारत की दूरसंचार कंपनियों का वाट्सएप जैसे अमेरिकी प्लेटफॉर्म को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताना और कुछ रेगुलेशन की मांग करते हुए इनके खिलाफ सरकार से पैरवी करना और दूसरी  दूसरी तरफ फेक न्यूज को नियंत्रित करने की सरकार की कोशिशें कंटेंट क्रिएशन और ट्रांसमिशन की आजादी को कम करने के दूसरे तरीके जैसी लगती हैं.

लेकिन अगर विचारों, नजरियों और सूचनाओं का मुक्त प्रवाह नहीं है, तो अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं रह जाता है. रेगुलेशन नियंत्रण की सिर्फ एक खूबसूरत व्यंजना भर है, अगर संस्थाएं राजनीतिक नियंत्रण से पूरी तरह आजाद नहीं हैं.

हर बात में खुराफात ढूंढने वाले मेरे करीबी दोस्त जिसने मुझे मैसेज किया था, तर्क दे सकता है कि मोदी सरकार ने इन आरोपों से कि उसने गलत तरीकों से मुसीबत में फंसे एक बिजनेस ग्रुप को अरबों डॉलर की मदद की, ध्यान हटाने के लिए BBC के छापे का इस्तेमाल किया. कोई दूसरा आलोचक कह सकता है कि यह देखते हुए कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी भ्रष्टाचार से लड़ने के मुद्दे पर सत्ता में आई थी, BBC से लड़ाई उसकी राष्ट्रभक्ति के तेवर को धार देगी जो चुनावी वर्ष में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करने में मददगार होगी.

अगर-मगर और अटकलें राजनीतिक और आर्थिक शेयर बाजारों दोनों के लिए आम हैं. इन दिनों दोनों का हाल एक जैसा है. राष्ट्रवाद, पत्रकारिता और क्रोनी कैपिटलिज्म के बीच कई दिलचस्प पहेलियां हैं, जिनका जवाब मिलना बाकी है.

अपनी G20 अध्यक्षता को यादगार बनाने के लिए भारत ने “वसुधैव कुटुम्बकम” (संसार एक परिवार है) स्लोगन दिया है. मगर यह किसी भी असहमति या अलग नजरिये को ‘विदेशी’ या ‘पश्चिमी’ या ‘औपनिवेशिक’ मानने वाले विचार के साथ आसानी से नहीं मेल नहीं खाता. xenophobia यानी विदेशी समाज और संस्‍कृति के लिए डर या नफरत का भाव रखने को राष्ट्रवाद समझने की भूल नहीं करना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. ट्विटर पर उनसे @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. आलेख में दिए विचार लेखक के अपने हैं और उनसे क्विंट हिंदी का सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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