advertisement
साल 2009 हम सबके के लिए, बल्कि मानव सभ्यता के लिए एक महत्वपूर्ण साल रहा है. इस साल पहली बार ऐसा हुआ कि हायर एजुकेशन में दुनियाभर में जितने पुरुष आए, उससे ज्यादा संख्या में महिलाएं आईं.
यूनेस्को 1970 से ही तमाम देशों में उच्च शिक्षा में इनरोलमेंट के आंकड़े रख रहा है. जब उसने 1970 में अपनी पहली रिपोर्ट जारी की थी तब उच्च शिक्षा में महिलाओं से तीन गुना ज्यादा पुरुष थे. लेकिन देखते ही देखते दुनिया बदल गई. अब मामला बराबरी से भी आगे बढ़ गया है.
भारत में महिला शिक्षा की कहानी नई है. भारत में महिलाओं का पहला स्कूल पुणे में सावित्रीबाई फुले ने 1848 में खोला. लेकिन सवा सौ साल में भारत की लड़कियों ने, विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, एक इतिहास रच दिया है.
भारत में उच्च शिक्षा में अब 44 फीसदी से ज्यादा महिलाएं हैं. ऐसे कॉलेज और यूनिवर्सिटीज की संख्या लगातार बढ़ रही हैं, जहां लड़कों से ज्यादा लड़कियां हैं. मास कम्युनिकेशन, डिजाइन, लैंग्वेज और सोशल साइंस के कई कोर्स में लड़कियों का इनरोलमेंट लड़कों से ज्यादा है. हर साल आने वाली वह खबर अब किसी को नहीं चौंकाती कि दसवीं या बारहवीं में लड़कियों ने लड़कों को पछाड़ा. लड़कियां ज्यादा पढ़ रही हैं और उनका पास परसेंटेंज और ग्रेड भी बेहतर है.
लेकिन इतनी बड़ी संख्या में लड़कियों के उच्च शिक्षा में आने और फिर इनके आगे चलकर कामकाजी महिला बनने से कई तरह की आफत भी आ गई है. शिक्षा संस्थान ही नहीं, सरकार भी इसके लिए तैयार नहीं थी.
दिक्कत यह है कि भारत के ज्यादातर पुराने शिक्षा संस्थानों ने कभी इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि लड़कियां पढ़ने आएंगी, और वह भी इतनी बड़ी संख्या में. इसलिए पुराने संस्थानों के पास गर्ल्स हॉस्टल या तो नहीं हैं या कम हैं.
मिसाल के तौर पर, दिल्ली के नामी संस्थान हिंदू कॉलेज 1899 में बना और इसका पहला गर्ल्स हॉस्टल पिछले साल बना. इतना ही नहीं, हिंदू कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल की फीस ब्वॉज हॉस्टल से दोगुनी यानी 90,000 रुपये सालाना रखी गई. यहां भेदभाव सिर्फ लिंग के आधार पर नहीं है. इतनी ऊंची फीस रखकर किन लड़कियों को हॉस्टल से बाहर रखा गया है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. यह हाल सरकारी कॉलेज का है.
बहरहाल यह एक और विषय है. दिल्ली का भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आईआईएमसी उन चंद संस्थानों में है, जहां लड़कियों का हॉस्टल पहले बना और लड़कों का हॉस्टल बाद में.
अब चूंकि देश में लड़कियों के लिए पर्याप्त हॉस्टल नहीं हैं, तो ऐसे में यूनिवर्सिटीज और कॉलेजों के आस पास के इलाकों में बड़ी संख्या में प्राइवेट हॉस्टल और पेइंग गेस्ट यानी पीजी खुल गए हैं. चूंकि इन्हें कंट्रोल करने वाले कायदे कानून नहीं हैं, इसलिए ये बेहद मनमाने तरीके से चलने के लिए स्वतंत्र हैं. हालांकि बाजार के गणित इन्हें सुधार करने के लिए भी मजबूर कर रहा है, क्योंकि लड़कियों के सामने चुनने की आजादी भी है.
गर्ल्स हॉस्टल्स की एक बड़ी समस्या उनमें लागू नैतिकता के नियम हैं. ये प्राइवेट और सरकारी दोनों सेक्टर पर लागू है. मिसाल के तौर पर, कई यूनिवर्सिटी हॉस्टल इस बात की इजाजत नहीं देते कि लड़कियां रात 9 बजे के बाद बाहर रहें. कई जगहों पर शाम 7 बजे की समय सीमा भी है. यह तब है जबकि इन संस्थानों में लाइब्रेरी और डिपार्टमेंट देर रात तक या 24 घंटे खुले रहते हैं.
प्रशासन का तर्क होता है कि वे रात में लड़कियों की सुरक्षा की गारंटी नहीं कर सकते. लेकिन अपनी नाकामी को लड़कियों के विकास के रास्ते का रोड़ा बनाना कहां तक सही है?
भारत की सांस्कृतिक अवस्था के हिसाब से यह सही लग सकता है कि लड़कियों के हॉस्टल्स में लड़कों को जाने नहीं दिया जाता है. हावर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल सेंडल ने एक घटना का जिक्र किया है, जब लड़कियों के हॉस्टल में जाने के लिए लड़कों से फीस ली जाती थी. और यह फीस यूनिवर्सिटी लेती थी क्योंकि यह माना गया कि लड़कों के हॉस्टल में आने से बिजली और बाकी संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा. भारत में ऐसा नहीं है. लेकिन लड़कों के हॉस्टल में आने की पाबंदी की वजह से कई लड़कियां पीजी में रहना पसंद करती हैं. अपनी आजादी में ऐसी कोई खलल उन्हें पसंद नहीं आती और वयस्क लड़कियों के मामले में यह ठीक भी है.
वैसे गर्ल्स हॉस्टल्स भी ऐसी कथित नैतिक नजरों से कहां बचे हैं? इस छवि का खामियाजा लड़कियों को कई तरह से भुगतना पड़ता है और उनकी आजादी भी सीमित हो जाती है. बीएचयू में लड़कियों के हॉस्टल्स के बाहर लड़कों के हस्तमैथुन करने की घटना के बाद मचे हंगामे की याद अभी ताजा ही है.
प्रशासन ऐसे मामलों में अक्सर दोषियों पर कार्रवाई करने की जगह लड़कियों की आजादी सीमित करने का रास्ता अपनाता है. मिसाल के तौर पर, लड़कियों को अनौपचारिक तौर पर सलाह दी जाती है कि वे बालकनी में न जाएं या अपने अंडरगार्मेंट खुले में न सुखाएं.
एक अन्य लेकिन इससे जुड़ा हुआ मामला कामकाजी महिलाओं के हॉस्टल का है. वर्कफोर्स में महिलाओं की उपस्थिति की वजह से ऐसे हॉस्टल्स की जरूरत बढ़ी है. बड़ी संख्या में महिलाएं इन दिनों सिंगल रहना पसंद कर रही हैं. साथ ही तलाकशुदा या परिवार से अलग रह रही महिलाओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है. 2006 में ब्रिटेन में सिंगल रह रही महिलाओं की कुल संख्या शादीशुदा महिलाओं से ज्यादा हो गई. 2016 में अमेरिका में भी ऐसा हो गया. भारत इस ग्लोबल ट्रेंड के पीछे-पीछे चल रहा है और यह बात हम अपने आसपास महसूस कर सकते हैं.
भारत सरकार ने इस जरूरत को काफी पहले महसूस किया और 1972 से ही केंद्र सरकार कामकाजी महिलाओं के हॉस्टल बनवा रही है. लेकिन आज स्थिति यह है कि ऐसे सिर्फ 950 हॉस्टल्स देश भर में हैं और उनमें 70 हजार से भी कम सीट हैं. इतने हॉस्टल्स तो किसी एक महानगर में होने चाहिए.
यूपी सरकार ने ऐसे 87 हॉस्ट्ल्स बनाने के लिए केंद्र से मिली रकम को 2015 में लौटा दिया. जाहिर है कि सरकारें गंभीर नहीं हैं. राजधानी दिल्ली में ऐसे सिर्फ 20 हॉस्टल्स का होना इस बात को दिखाता है कि महिला मुद्दों पर सरकार और संस्थाओं की चिंता का स्तर क्या है. जो सूबे कम प्रगतिशील हैं, वहां ऐसे हॉस्टल्स भी कम हैं. केंद्र सरकार की योजना के तहत बिहार में सिर्फ 6 और झारखंड में सिर्फ 2 कामकाजी महिला हॉस्टल हैं.
जाहिर है कि लड़कियों और महिलाओं को न सिर्फ ढेर सारे हॉस्टल्स चाहिए, बल्कि बेहतर हॉस्टल्स चाहिए. पाबंदियों से मुक्त हॉस्टल्स चाहिए. सुरक्षित हॉस्टल्स चाहिए. मेडिकल सुविधाओं से संपन्न हॉस्टल्स चाहिए. और ऐसे हॉस्टल्स की फीस भी बहुत ज्यादा नहीं होनी चाहिए.
जिस देश का फीमेल वर्क फोर्स पार्टिशिपेसन दुनिया में सबसे कम हो, और जहां जेंडर गैप ज्यादा हो, वहां लड़कियों के हॉस्टल्स राष्ट्र की प्राथमिकता में बहुत ऊपर होने चाहिए.
(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
ये भी पढ़ें- गांवों में हर दस में से तीन इंटरनेट यूजर महिला, गूगल देगा रोजगार
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined