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भीमा-कोरेगांव के 200 साल पुराने युद्ध में वीरता का जश्न मनाना सही है या नहीं इस पर महाराष्ट्र में बंद, हिंसा, बहस सब एक साथ चल रहा है. लेकिन उससे भी बड़ी बात ये हुई है कि हिंदुत्व राष्ट्रवाद आइडिया ने महाराष्ट्र में जाति और उनके आपस में गठजोड़ जैसे जटिल मुद्दों ने महाराष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने में खामियों उजागर कर दिया है.
शांति के वक्त जातीय मुद्दों पर चर्चा जरूरी है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा लग रहा है कि संघर्ष और उन्माद फिलहाल चलेगा. इसलिए सरकारों, राजनेताओं और सामाजिक नेताओं के सामने बड़ी चुनौती आ गई है. लेकिन इन सब में बीजेपी की भूमिका क्या है ये जानना जरूरी है, क्योंकि बीजेपी ने जातीय गठजोड़ बनाकर सत्ता हासिल की है.
गुजरात का पाटीदार आंदोलन, महाराष्ट्र का भीमा कोरेगांव विवाद या फिर मराठा क्रांति मोर्चा, इन तमाम आंदोलनों का अनुभव दिखाता है कि बीजेपी सरकारों के लिए जाति आधारित संघर्ष और विवादों से निपटना बहुत मुश्किल है. कम से कम पुराने उदाहरण तो भरोसा नहीं जगाते.
जातियों के बारे में बीजेपी का नजरिया क्या है? इसका अंदाज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान से लगाया जा सकता है. वो जातियों को समाज के लिए विभाजन मानते हैं. जाहिर है जातियों को लेकर बीजेपी का भी यही रुख है.
बीजेपी की शुरू से ही यही रणनीति है कि जाति से जुड़े मुद्दों का मुकाबला हिंदुत्व राष्ट्रवाद के जरिए किया जाए. मोदी की पार्टी हिंदुत्व को जाति की काट मानती है. उसे लगता है कि इसके जरिए पूरे देश में समर्थन जुटाया जा सकता है और हिंदुत्व का दायरा इतना बड़ा है कि इसमें सभी लोग आ जाएंगे.
लेकिन बीजेपी को मालूम होना चाहिए कि हिंदुत्व ऐसे मुद्दों में काम नहीं करता. हिंदू का दायरा बहुत बड़ा है. इसमें जितने मत, भाषा, जातियां, संप्रदाय हैं वो हिंदुत्व विचारधारा में समा ही नहीं सकते. हिंदुत्व विचारधारा बहुत ही संकीर्ण है. देश में ढेरों जातियां हैं और इनके बीच जटिल संबंध हैं जिनका स्वरूप लगातार बदलता रहता है.
ऐसे में चिल्ला चिल्लाकर हिंदुत्व का राग अलापने से काम नहीं चलने वाला, ये एक तरह से हकीकत की अनदेखी करना है.
भीमा-कोरगांव दलितों के इतिहास, उनकी पहचान से जुड़ा मुद्दा है. मराठा खासतौर पर उनके बड़े वर्ग को दलितों के इस आयोजन से कोई ऐतराज नहीं है. बल्कि सालों से वो इसमें एक तरह से हिस्सा भी लेते रहे हैं. लेकिन इस बार कुछ उल्टा हुआ. दलितों की ताकत का जवाब देने के लिए हिंदुत्व से जुड़े समूहों ने भी अपनी ताकत दिखाना शुरू कर दी. स्थानीय दक्षिणपंथी नेताओं ने कथित तौर पर कोरेगांव और वाड बुद्रुक गांवों के लोगों को एक जनवरी के आयोजन के पहले ही उकसाना शुरू कर दिया.
फिर एक दिन पहले छत्रपति शिवाजी के बेटे संभाजी महाराज और दूसरे मराठा राजाओं की समाधि को नुकसान पहुंचाया गया. यही नहीं औरंगजेब के आदेश की अनदेखी कर संभाजी महाराज का अंतिम संस्कार करने वाले महार वीर गोविंद गायकवाड़ की समाधि को भी नुकसान पहुंचाया गया.
बीजेपी ने 31 दिसंबर को पुणे में एक कार्यक्रम में दलित नेता जिग्नेश मेवानी, राधिका वेमुला और उमर खालिद की मौजूदगी पर सख्त एतराज किया. मेवानी की सफलता का विश्लेषण किया जाए तो तो साफ है कि जाति अभी भी देश में बहुत बड़ा मुद्दा है और इसका राजनीतिक महत्व है.
मेवानी ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर वडगाम सीट से जीत हासिल की. उन्हें कांग्रेस और दूसरी पार्टियों का समर्थन हासिल था. राधिका वेमुला के बेटे रोहित वेमुला ने दो साल पहले हैदराबाद में आत्महत्या कर ली थी. ये दोनों बीजेपी के लिए चुनौती का प्रतीक हैं. इसी तरह जेएनयू के छात्र उमर खालिद पर भारत विरोधी होने के आरोप लगाए जाते हैं.
महाराष्ट्र के दलित नेताओं के साथ इन तीनों लोगों की मौजूदगी ने साफ कर दिया है कि फडणवीस सरकार के लिए अपने पक्ष में जातियों का गठजोड़ तैयार करना किसी सपने से कम नहीं.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद ये हकीकत है कि फडणवीस सरकार ही नहीं बल्कि खुद बीजेपी के सामने जब कभी जातियों की चुनौती सामने आती हैं तो ये गड़बड़ा जाती है. ये सच है कि जातियों में बंटे यूपी में बीजेपी को बहुत बड़ी सफलता मिली है. लेकिन इससे ये ना माना जाए कि बीजेपी जातिगत जटिलताओं को समझने लगी है.
हम जानते हैं कि चुनावी जीत में चुनावी मैनेजमेंट, भारी भरकम प्रचार और प्रोपेगंडा का बड़ा योगदान होता है.
कांग्रेस या दूसरी पार्टियों की तरह बीजेपी ने भी चुनाव के दौरान जातियों को मैनेज करने का आर्ट समझ लिया है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसमें जाति से जुड़े मुद्दों के लिए जरूरी कला और संयम आ गया है.
भीमा-कोरेगांव आयोजन ने साबित कर दिया कि जातियों की जटिलता और संवेदनशील मुद्दों से निटपने के लिए फडणवीस सरकार सक्षम नहीं है. आरएसएस की ट्रेनिंग और राज्य सरकार की ब्राह्मणवादी इमेज की वजह से फडणवीस सरकार की खासी आलोचना हो रही है.
दलितों में उग्रता और एकजुटता इसलिए भी बढ़ी है क्योंकि उन्हें लगता है कि फडणवीस सरकार उनके प्रति आक्रामक है. दरअसल भीमा-कोरेगांव आयोजन मूल रूप से ब्राह्मण विरोधी आंदोलन है. दलितों के पूर्वज महारों ने ब्रिटिश सेना के झंडे तले पेशवा या ब्राह्मणों को हराया था. पेशवा दलित उत्पीड़न और उनके शोषण के लिए बदनाम थे. डॉक्टर भीमराव अम्बेडर ने दबाव डालकर 1927 में अंग्रेजों ने दलित अस्मिता के प्रतीक के तौर पर कोरेगांव में एक स्मारक बनाया था.
दलित और मराठाओं के बीच संबंध जटिल रहे हैं. मराठा महाराष्ट्र के सबसे बड़े और अमीर समुदाय हैं, जो राजनीतिक तौर पर उतना ही ताकतवर है जैसा गुजरात में पाटीदार. दलितों की तरह मराठाओं की भी ब्राह्मणों से नहीं पटती. मराठाओं को भी लगता है कि ब्राह्मणों ने उनके पूर्वजों के साथ अच्छा सलूक नहीं किया.
ये बात ऐतिहासिक तौर पर दर्ज है कि ब्राह्मण पुजारियों ने मराठा साम्राज्य के छत्रपति शिवाजी महराज के राजतिलक से इंकार कर दिया था क्योंकि वो निचली जाति के थे. इसके बाद उनके राजतिलक के लिए खासतौर पर काशी से पुरोहित को बुलाया गया. लेकिन जब पेशवाओं के साथ में सत्ता आई तो उन्होंने मराठाओं का दमन किया.
अभी मराठा कृषि में गिरती आय, नौकरियों की कमी से परेशान हैं. इसके साथ ही दलितों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूरता बढ़ रही है, ऐसे में गांव में कोई भी उत्पीड़न होने पर मराठा समुदाय के खिलाफ मामले दर्ज कराने में दलित पीछे नहीं हट रहे हैं.
लेकिन ये इतना भी आसान नहीं है दलितों और मराठा समुदाय दोनों के बीच कई विवादित मुद्दे भी हैं और नेताओं के बीच भी विवाद है. लेकिन गुजरात के नतीजों के बाद सबने माना है कि बीजेपी का मुकाबला करने के लिए कई ताकतें हाथ मिला सकती हैं.
2019 में महाराष्ट्र में लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए चुनौती बढ़ेगी. अब तक बीजेपी की ब्राह्मण और ओबीसी का गठजोड़ की रणनीति कारगर रही है. लेकिन जातियों के नए समीकरण के बाद देखना दिलचस्प होगा कि इससे निपटने के लिए बीजेपी क्या करती है.
दलितों को अपने पक्ष में लाने की बीजेपी की कोशिशें अभी सिर्फ औपचारिकता ही लगती हैं. लेकिन हिंदुत्व राष्ट्रवाद की भी अपनी सीमाएं हैं. महाराष्ट्र में फुले-साहू-अम्बेडर ने गोवलकर-सावरकर के राष्ट्रवाद का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है. लेकिन बीजेपी इसे अपना नहीं सकती.
कांग्रेस के पास भी अभी कोई आइडिया नहीं है कि नई जातिगत ताकतों को अपने साथ कैसे जोड़ा जाए. कांग्रेस का दायरा बहुत सिकुड़ गया है, लेकिन अगर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी नए जातिगत समीकरणों के हिसाब से रणनीति बनाएं तो बात बन भी सकती है.
भीमा-कोरेगांव ने ये तो साबित कर दिया है- कि ज्यादातर राजनेता जाति समीकरण की अनदेखी तो नहीं कर पाते लेकिन अक्सर वो इसे सही सही समझ भी नहीं पाते.
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( स्मृति कोप्पिकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और मुंबई में रहती हैं. वो राजनीति, शहरी जिंदगी और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लगातार लिखती रही हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 05 Jan 2018,11:17 AM IST