भीमा-कोरेगांव धधक रहा है. जो चिंगारी 1 जनवरी को भड़की, उसकी आग पुणे से शुरू होकर मुंबई और महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों तक पहुंच चुकी है. लेकिन, इस पूरी हिंसा और इसके मायने समझने हों तो 200 साल पीछे जाना होगा. इतिहास की गठरी को टटोलना होगा.
महाराष्ट्र के कोरेगांव में एक दलित जाति है- महार. कहा जाता है कि पेशवाओं यानी ब्राह्मणों ने उस वक्त, महारों के खिलाफ, एक मार्शल लॉ लागू किया हुआ था. इस अत्याचारी कानून के मुताबिक, महारों को कमर में झाड़ू और गले में मटका बांधने का आदेश दिया गया. झाड़ू इसलिए ताकि उनके कदमों के निशान खुद-ब-खुद मिटते चले जाएं और मटका या कोई दूसरा बर्तन इसलिए ताकि उनका थूक जमीन पर न गिरे. उस जमाने में यूं भी देश भर में दलितों के साथ बुरा बर्ताव आम था.
कहानी कोरेगांव युद्ध की
उन दिनों अंग्रेजी हुकूमत, हिंदुस्तान के तमाम हिस्सों में पैर पसार रही थी. अंग्रेज पहले ही पुणे के पेशवा, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड़ और नागपुर के भोंसले राजाओं के साथ संधि कर चुके थे. अब उनका निशाना पेशवा बाजीराव द्वितीय को काबू करना था. अंग्रेजों को महारों के रूप में वो सैनिक मिल गए जो पेशवाओं या कहें मराठों से लोहा लेने को पूरी तरह तैयार थे. युद्ध का वो दिन भी आ गया.
भीमा नदी के किनारे कोरेगांव का मैदान. पुणे से करीब 40 किलोमीटर दूर. बाजीराव ने तय किया कि पुणे पर हमला करने के लिए 5 हजार सैनिक भेजे जाएंगे. लेकिन जब उसे मालूमहुआ कि अंग्रेजों के पास सिर्फ 800 सैनिक हैं तो उसने फैसला बदल दिया. बाजीराव ने तीन इंफैंट्री यानी पैदल टुकड़ी रवाना कर दीं. अंग्रेजी सेनापति कैप्टन फ्रांसिस स्टॉन्टन के नेतृत्व में कोरेगांव एक भीषण युद्ध का गवाह बना.
ब्रिटिश सेना में शामिल थे बॉम्बे नेटिव इंफैंट्री के 500 जवान, जिनमें से ज्यादातर महार थे. सामने थी पेशवा बाजीराव द्वितीय की 2500 सैनिकों वाली सेना. कहा तो कई बार ये भी जाता है कि पेशवा की सेना में 25 हजार जवान थे.
दलित इतिहास में बड़ा मोड़?
ये एक ऐसा युद्ध था जिसमें कम सैनिकों वाली सेना ने अपने साहस से पेशवाओं के छक्के छुड़ा दिए. जहां संख्या बल महज संख्या भर रह गया. करीब 12 घंटे तक चले युद्ध के बाद पेशवा सेना को कदम पीछे खींचने पड़े. इस युद्ध को महार सैनिकों की जांबाजी और युद्ध कौशल के लिए भी याद रखा जाता है.
इतिहासकार और दलित चिंतक मानते हैं कि ये दलितों के इतिहास में एक बड़ी घटना थी. ये उन पेशवाओं पर जीत का प्रतीक बन गई जिन्होंने महारों को दबा कर रखा. ब्रिटिश कंपनी ने अपने सैनिकों की याद में कोरेगांव में एक जय स्तंभ का निर्माण करवाया. इस पर कोरेगांव युद्ध में शहीद हुए 49 सैनिकों के नाम भी उकेरे गए जिनमें से 22 महार जाति के थे. ये दलितों की जीत का, पेशवाओं के खिलाफ बगावत का बड़ा प्रतीक बन गया.
जब अंबेडकर पहुंचे कोरेगांव
1 जनवरी 1927 को डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जय स्तंभ के दर्शन किए. तब से हर साल 1 जनवरी जैसे दलितों के लिए उत्सव का दिन बन गया. साल दर साल देश के तमाम हिस्सों से दलित समाज के लोग कोरेगांव पहुंचते और जय स्तंभ पर अपने नायकों को नमन करते.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, कुछ साल पहले, भारतीय सेना की पूना हॉर्स रेजिमेंट ने इस स्तंभ पर 1965 और 1971 के युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के नाम की पट्टी यानी ‘रोल ऑफ ऑनर’ लगा दिया था. इस साल कोरेगांव युद्ध के 200 साल पूरे होने के जश्न से पहले सोशल मीडिया पर इस ‘रोल ऑफ ऑनर’ को हटाने को लेकर संदेश फैलने लगे. कहा जाने लगा कि ये दलित स्मारक पर कब्जा जमाने की कोशिश का हिस्सा है.
और फिर 1 जनवरी 2018 को ये विवाद सड़कों पर हिंसा की शक्ल के तौर पर सामने आ गया. आज हिंसा की ये आग महाराष्ट्र के कई हिस्सों तक पहुंच गई है.
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(स्रोत: The Mahar Movement’s Military Component, Gazeteer of the Bombay Presidency Volume 18 Part 3, Modern Indian History by Mohd. Tarique)
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