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इस बार बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में राज्य की राजनीति को बदलने वाला साबित हो सकता है. कई सवाल खड़े हो रहे हैं जिनके उत्तर चुनाव नतीजों से मिलेंगे और इनमें सबसे बड़ा सवाल है कि क्या बीजेपी चुनाव बाद भी नीतीश कुमार को बड़ा भाई बनाए रखेगी.
बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने काफी पहले सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर दी थी कि विधानसभा चुनाव मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. लेकिन चुनाव बाद अगर बीजेपी को जेडीयू से ज्यादा सीटें मिल गईं तो क्या बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में रहना पसंद करेगी? चुनाव से पहले भले ही गठबंधन में कोई समस्या न आए लेकिन अगर बीजेपी को ज्यादा सीटें मिलीं तो चुनाव के बाद नीतीश जबरदस्त दबाव में आ सकते हैं. अपनी भूमिका बदलने के लिए बीजेपी पूरी मेहनत भी कर रही है. ताज्जुब ये सब नीतीश की छत्रछाया में हो रहा है.
बिहार अकेला ऐसा राज्य है जहां बीजेपी को बड़े भाई की भूमिका से छोटे भाई की भूमिका में आना पड़ा.15 साल से वह खुद को बड़े भाई की भूमिका में फिर नहीं ला पाई. 2015 में बीजेपी मौक देख रही थी, लेकिन नतीजों ने उसका साथ नहीं दिया.
जिस तरह 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार में नीतीश कुमार ने माइंड स्पेस छेक रखा था, बीजेपी इस विधानसभा चुनाव में वही करना चाहती है. प्रवासी रोजगार योजना से लेकर गलवान घाटी की शहादत व राम मंदिर भूमि पूजन तक , प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार को कनेक्ट करने की कोशिश लगातार कर रहे हैं. 5 अगस्त को अयोध्या से जय सियाराम व सियापति रामचंद्र का जयकारा बिहार को जरूर कनेक्ट कर रहा था.
बीजेपी के लिए अच्छी बात यह है कि नीतीश कुमार के पास इस बार माइंड स्पेस छेकने का मसाला ही नहीं है.
दूसरी तरफ जेडीयू की राजनीति देखिए. जेडीयू अब बीजेपी पर पहले की तरह दबाव की राजनीति करती भी नहीं दिखती. याद कीजिए जब बीजेपी ने ऐलान किया कि वो नीतीश के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी, तो उससे पहले प्रशांत किशोर के जरिये नीतीश ने बीजेपी पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था. प्रशांत किशोर ने जदयू को ज्यादा सीट देने की बात तो की ही थी, नये नागरिकता कानून को लेकर पार्टी के अलग रुख का भी संकेत देना शुरू किया था.
पार्टी के पूर्व सांसद पवन वर्मा ने भी नये नागरिकता कानून को लेकर प्रशांत किशोर का साथ दिया. गठबंधन के अंदर और बाहर इन चीजों से किसे फायदा हो रहा था? लेकिन नीतीश कुमार ने दोनों को ही पार्टी से बाहर कर दिया गया. आखिर क्यों?
अप्रैल 2019 में पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने आरोप लगाया था कि प्रशांत किशोर नीतीश कुमार की शह पर हमारे पास जदयू व राजद के विलय का प्रस्ताव लेकर आए थे. राबड़ी देवी का कहना था कि प्रशांत किशोर इस प्रस्ताव के साथ लालू प्रसाद यादव से मिले थे. बाद में तेजस्वी यादव ने एक न्यूज चैनल से बातचीत में कहा था कि विलय का प्रस्ताव राजद द्वारा खारिज कर दिये जाने के बाद प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में विलय का प्रस्ताव रखा था.
इससे पहले लालू प्रसाद यादव की आत्मकथा ‘गोपालगंज टू रायसीना’ में भी यह बात कही गई थी कि प्रशांत किशोर ने संकेत दिया था, यदि लालू प्रसाद यादव सहमति दें तो नीतीश कुमार महागठबंधन में वापस आ सकते हैं. विधानसभा के पिछले बजट सत्र में नीतीश कुमार के चैंबर में जाकर तेजस्वी यादव के मिलने और फिर जीतन राम मांझी के एक बयान से बीजेपी सकते में आ गई थी. इसी सत्र में नीतीश कुमार ने बिहार में एनआरसी न कराने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कराया था. झारखंड के विधानसभा चुनाव में भी जदयू ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा. अब इस तरह की रणनीति से दूर नीतीश पूरी शिद्दत से गठबंधन धर्म निभा रहे हैं. कौन सुरक्षित महसूस कर रहा है?
बीजेपी अपनी रणनीति को लेकर कितना आश्वस्त हो पायी है, इसके संकेत टिकट बंटवारे के समय साफ-साफ दिखाई देंगे. बीजेपी की तैयारी 2015 के महागठबंधन के फार्मूले को आगे करने की हो सकती है. इस फार्मूले के हिसाब से, बीजेपी व जदयू को 100-100 सीटें और बाकी एलजेपी को. लेकिन जेडीयू साधारण बहुमत के आंकड़े 122 के जितना करीब हो सके उतना चाहेगी.
लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति ने बीजेपी के लिए माइंड स्पेस का गेम आसान कर दिया है. लेकिन अगर नीतीश कुमार को केंद्र में रखकर कोई विपक्षी फार्मेशन सामने आया तो बीजेपी फिर से लुढ़क कर निचले पायदान पर पहुंच जाएगी. बस इसी संभावना को नेस्तनाबूद कर बीजेपी आगे बढ़ना चाहती है और इसमें वह काफी हद तक कामयाब भी दिख रही है. यह संभावना खत्म तो नीतीश का भी खेल खत्म!
(राजेंद्र तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं जो इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं. लेख में शामिल विचारों से क्विंट हिंदी का सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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