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Bihar Politics: भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) में फिर से शामिल होने का नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का फैसला दूरगामी प्रभावों के साथ बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण बदलाव है. वे अभूतपूर्व नौवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की कुर्सी पर काबिज हो गए. हालांकि, यह उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता और भविष्य पर सवाल उठाता है.
उनका बार-बार पलटना बिहार की राजनीति की अस्थिर प्रकृति और गठबंधन सरकार की चुनौतियां दर्शाता है. हालांकि, बीजेपी वर्तमान में उनके नेतृत्व का समर्थन कर सकती है, लेकिन ऐसी अटकलें हैं कि वे भविष्य के चुनावों में वैकल्पिक नेतृत्व की तलाश कर सकते हैं. इसके अलावा, नीतीश ने आरजेडी के साथ संबंध तोड़ दिए हैं, जिससे भविष्य में गठबंधन के लिए उनके विकल्प कम हो गए हैं.
यह स्पष्ट है कि उनका निर्णय बिहार के विकास से नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता और अस्तित्व बचाने से प्रेरित है. इससे उनके शासन और बिहार के नागरिकों के कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर चिंताएं पैदा होती हैं. राज्य की प्रगति पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, उनके फैसले अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में केंद्रित लगते हैं.
बिहार के मतदाता ऐसे नेताओं के हकदार हैं, जो राजनीतिक लाभ के बजाय उनके हितों को प्राथमिकता दें. जैसे ही नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक यात्रा के इस नए चरण की शुरुआत कर रहे हैं, उन्हें जवाबदेही और ईमानदारी का प्रदर्शन करना होगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि लगातार बदलते राजनीतिक गठबंधनों के बीच बिहार का विकास सर्वोपरि बना रहे.
बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में, मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश के कार्यकाल को पाला बदल कर सत्ता में काबिज रहने और गिरावट दोनों के रूप में पहचाना जाता है. सत्ता से चिपके रहने की उनकी आदत के बावजूद, उनकी पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) (JDU) ने चुनावी समर्थन और जनता के विश्वास में लगातार गिरावट झेल रही है.
कभी सुशासन के अग्रदूत के रूप में प्रतिष्ठित, नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' की छवि धूमिल हो गई है, उसकी जगह 'पलटू कुमार' के विशेषण ने ले लिया है, यानी जो लगातार पाला बदलता है.
JDU की चुनावी गिरावट लगातार बिहार विधानसभा चुनावों में हासिल की गई सीटों की घटती संख्या से स्पष्ट है. 2010 में 115 सीटों की जबरदस्त जीत से 2020 में मात्र 43 सीटों तक, जेडीयू की ताकत कम हो गई है. जिससे यह विधानसभा में तीसरी सबसे बड़ी ताकतवर के पायदान पर पहुंच गई. सीएम की कुर्सी पर लगातार बने रहने के बावजूद, उनकी पार्टी के घटते प्रभाव ने उन्हें शासन के लिए गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर बना दिया है.
इस निर्भरता ने बिहार सरकार के भीतर उनकी स्वायत्तता को काफी हद तक कम कर दिया है, क्योंकि आरजेडी और बीजेपी जैसे सहयोगियों के पास अधिक संख्यात्मक ताकत है.
बीजेपी विशेष रूप से नीतीश कुमार के इस फैसले से लाभ उठाने को तैयार है, जो इस फैसले से सरकार के निर्णय से अपने लाभ का आनंद उठाएगी और हालांकि, वो नीतीश कुमार को सरकार का लीडर बनने दे रही है.
बिहार के मतदाताओं के लिए, उनका नेतृत्व एक पहेली का प्रतिनिधित्व करता है, एक ऐसा नेता जो घटती लोकप्रियता और घटती स्वायत्तता के बावजूद सत्ता पर कायम है.
चूंकि राज्य शासन और विकास के गंभीर मुद्दों से जूझ रहा है, राजनीतिक नेताओं को पक्षपातपूर्ण लाभ से अधिक लोगों के हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए. नीतीश का कार्यकाल सतर्कता की कहानी कहता है, जो भविष्य में राजनीतिक गिरावट को कम करने और बिहार के अशांत राजनीतिक परिदृश्य में सैद्धांतिक नेतृत्व की आवश्यकता बताता है.
NDA में नीतीश की वापसी चुनावी और राजनीतिक अनिवार्यताओं से प्रेरित परस्पर संबंध को रेखांकित करती है. नेतृत्व के लिए कुमार की आकांक्षाएं महज किंग मेकिंग से कहीं आगे हैं; उनके घटते मतदाता आधार को प्रासंगिकता की आवश्यकता है, जिससे रणनीतिक गठजोड़ को बढ़ावा मिलता है.
यह कदम विशेष रूप से बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्य में चुनावी लाभ प्रदान करता है, जिससे लोकसभा चुनावों से पहले पार्टी की गति और संभावनाएं बढ़ सकती हैं. बदले में, वे राज्य शासन में स्वायत्तता और विधानसभा चुनावों में बीजेपी-जद(यू) गठबंधन का नेतृत्व करने का भविष्य का वादा चाहते हैं.
अंततः, बीजेपी पर उनका दांव जोखिम भरा है, क्योंकि हो सकता है कि भविष्य में उनकी मांगों को स्वीकार न किया जाए. इसके बावजूद, बीजेपी एक रणनीतिक एसेट के रूप में नीतीश कुमार के मूल्य को पहचानती है और वो परिस्थितियों के अनुसार, अपना स्टैंड बदलकर अल्पकालिक लाभ के लिए उनके प्रभाव का लाभ उठाने को तैयार है.
नीतीश कुमार का I.N.D.I.A गुट को छोड़ना, गुट पर राजनीतिक और चुनावी दोनों ही दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रभाव है और इसके प्रभाव पूरे राज्य में पड़ने की संभावना है. उनके फैसले ने राजनीतिक गठबंधनों में प्रभावी ढंग से फेरबदल किया है और विपक्ष को खंडित करते हुए एनडीए के प्रभुत्व को मजबूत किया है.
यह राजनीतिक अवसरवादिता के सिद्धांतों पर हावी होने के बारे में प्रासंगिक सवाल उठाता है, जिससे संभावित रूप से मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो सकता है और राजनीतिक नेतृत्व में विश्वास कम हो सकता है.
चुनावी तौर पर, विकास के अग्रदूत के रूप में उनकी एक बार बेदाग रही छवि अब राजनीतिक अवसरवादिता के आरोपों से धूमिल होने के खतरे का सामना कर रही है. यह निराश मतदाताओं को उत्साहित कर सकता है और विपक्षी आंदोलनों में नई जान फूंक सकता है क्योंकि बिहार में अक्सर नए राजनीतिक पुनर्गठन देखा गया है.
उनके बदले-बदले चेहरे का प्रभाव महज चुनावी अंकगणित से परे, बिहार के शासन और विकास पथ के मूल में उतरता है. अहम सवाल यह उठता है कि क्या एनडीए में उनकी वापसी से प्रगति का मार्ग प्रशस्त होगा या राज्य राजनीतिक उथल-पुथल में डूब जाएगा?
नीतीश के हालिया राजनीतिक पैंतरेबाजी ने बिहार के राजनीतिक परिदृश्य की पृष्ठभूमि को फिर से परिभाषित किया है, जिससे विकट चुनौतियां और अवसर सामने आए हैं. चूंकि राज्य इस अचानक बदलाव के नतीजों से जूझ रहा है, इसलिए राजनीतिक वर्ग और मतदाता दोनों के लिए इस तरह के महत्वपूर्ण निर्णय के दूरगामी प्रभावों का गंभीर मूल्यांकन करना अनिवार्य है.
एक दशक में यह नीतीश का पांचवां पलटवार है, यह आगामी लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हुआ है. वहीं, यह एक साल पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की घोषणा से ठीक उलट है, जिसमें उन्होंने कहा था कि बीजेपी ने नीतीश कुमार के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए हैं.
मुख्यमंत्री के रूप में नौवीं बार सत्ता हासिल करने के दौरान नीतीश की राजनीतिक पैंतरेबाजी की भारी कीमत चुकानी पड़ी है. प्रत्येक फ्लिप-फ्लॉप ने उनकी लोकप्रियता और उनकी पार्टी की चुनावी ताकत को कम कर दिया है. एक बार फिर बीजेपी के साथ जुड़कर उन्होंने अपनी विश्वसनीयता और प्रासंगिकता को सुविधा की बलिवेदी पर दांव पर लगा दिया है.
उनका निर्णय न केवल चुनावी गणित से प्रेरित है, बल्कि भारत के राजनीतिक मंच पर प्रासंगिकता के लिए बेताब प्रयास से प्रेरित है. ऐसा प्रतीत होता है कि उनका मानना है कि बीजेपी के साथ गठबंधन करने से उन्हें राजनीतिक सुरक्षा मिलेगी, भले ही इसके लिए उन्हें अपने सिद्धांतों और ईमानदारी का त्याग करना पड़े.
हालांकि, बीजेपी के साथ उनका गठबंधन नैतिक दुविधाओं से रहित नहीं है. यह न केवल बिहार के मतदाताओं के विश्वास को धोखा देता है, बल्कि राजनीतिक लाभ के लिए पहले किए गए वादों को भूलकर भाजपा की इच्छा को भी बताता है. जनादेश के साथ यह विश्वासघात लोकतंत्र का मखौल है, जो बिहार के राजनीतिक परिदृश्य को धूमिल कर रहा है.
नीतीश का राजनीतिक अंत बताना जल्दीबाजी होगी लेकिन उनके लगातार पाला बदलना उनकी दीर्घकालिक संभावनाओं को खतरे में डालती है. राजनीतिक अवसरवादिता से निराश मतदाता जल्द ही उनकी चालों से थक सकते हैं, जिससे वे मतदाता समर्थन और राजनीतिक वैधता दोनों से वंचित रह जाएंगे.
सत्ता के इस उच्च-दांव वाले खेल में, नीतीश को अपनी ही महत्वाकांक्षा का शिकार होने का जोखिम उठाना पड़ रहा है, जिसे राजनीतिक इतिहास में सिद्धांत से परे एक अनैतिक लाभ को लेकर निंदा की गई है.
(लेखक सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त), कोलकाता में पत्रकारिता के शिक्षख हैं और एक स्तंभकार हैं (वे @sayantan_gh पर ट्वीट करते हैं.)
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