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समोसे में आलू है, लेकिन बिहार में लालू नहीं, पार्टी-परिवार परेशान

लालू के लिए दिक्कत यह है कि वो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि वो जेल में हैं

मनोज कुमार
नजरिया
Updated:
लालू का बिहार में न होना उनकी पार्टी के साथ-साथ परिवार पर भी भारी पड़ रहा है
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लालू का बिहार में न होना उनकी पार्टी के साथ-साथ परिवार पर भी भारी पड़ रहा है
(फोटो कोलाज: क्‍व‍िंंट हिंदी)

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बिहार चुनाव 2020 से पहले लालू का बिहार में न होना उनकी पार्टी के साथ-साथ परिवार पर भी भारी पड़ रहा है. एक तरफ जहां पार्टी के विधायक और कई बड़े नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं और कुछ छोड़ने की तैयारी में हैं. दूसरी तरफ उनका परिवार भी टूट रहा है. लालू के लिए दिक्कत यह है कि वो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते क्योंकि वो चारा घोटाले में पटना से करीब 250 किमी दूर झारखंड की रांची जेल में हैं. 11 सितंबर को भी उनकी जमानत याचिका पर सुनवाई होनी है.

क्यों जेल में बंद हैं लालू

लालू चारा घोटाले के छह मामलों में अभियुक्त हैं और अब तक उन्हें चार मामलों में सजा हो चुकी है.

(ग्राफिक्स- क्विंट हिंदी)

बिन लालू पार्टी परेशान

पिछले तीन महीने के भीतर, कम से कम 12 विधायकों-विधान पार्षदों ने राजद छोड़ जदयू को ज्वाइन किया है और यह अच्छी-खासी संख्या है. यह बताने को काफी है कि लालू की पार्टी में सबकुछ ठीक नहीं हैं. यह पार्टी को परेशान करने वाली खबर है. इसके अलावा राजद के महासचिव नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह भी पार्टी से काफी नाराज चल रहे हैं. उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा भी दे दिया है. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब लालू के पुत्र और बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजश्वी यादव उन्हें मनाने दिल्ली के एम्स पहुंचे तब भी उन्होंने अपना इस्तीफा वापस लेने से इंकार कर दिया.

(ग्राफिक्स- क्विंट हिंदी)
(ग्राफिक्स- क्विंट हिंदी)
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लालू बिन राजद की दिक्कत ये है कि लालू के कद का कोई नेता अभी पार्टी या परिवार में मौजूद नहीं है, जो सर्वमान्य हो. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि लालू यहां होते तो कई समस्याएं खुद-बे-खुद खत्म हो जातीं क्योंकि लालू का नेतृत्व सबको स्वीकार है. फरवरी, 2014 में राजद के 3 असंतुष्ट विधायकों ने पार्टी छोड़ने की घोषणा की थी, लेकिन लालू के कहने पर पार्टी में बने रहे. इनके अनुसार जो छोड़कर जा रहे हैं उन्हें लालू के बिना पार्टी का भविष्य नर नहीं आ रहा है.

“जब जेल रहकर भी लालू राजनीति की धुरी बने हुए हैं तब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उनके बाहर आने पर किस तरह राजनीतिक परिस्थितियां बदलेंगी. लालू राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी हैं, पिछड़ों के सर्वमान्य नेता हैं और उनकी बातों पर का वजन है. जाहिर है उनके नहीं रहने से पार्टी पर अभी बुरा असर पड़ रहा है.”
सत्यनारायण मदन, राजनीतिक विश्लेषक

मदन विपक्ष के इस आरोप पर करारा प्रहार करते हैं कि लालू ने अपने शासनकाल में विकास पर ध्यान नहीं दिया. वो कहते हैं, "वो दौर विकास का नहीं, राजनितिक लड़ाई का था. इससे पिछड़ों , दलितों, वंचितों में जो जागृति आई, उसी से विकास बाद में एजेंडा बना.

एक अन्य विश्लेषक प्रो. डी एम दिवाकर कहते हैं, "राजद में जो समस्याएं हैं उसका कारण यह है कि लालू के स्तर का कोई दूसरा नेता नहीं हैं. लालू का नेतृत्व सबको स्वीकार है लेकिन तेजश्वी का वो कद नहीं हैं. कई नेता तेजस्वी के नीचे काम करना नहीं चाहते."

बिन लालू परिवार भी परेशान

लालू की गैरमौजूदगी परिवार पर भी भारी पड़ रही है. लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव की चन्द्रिका राय की पुत्री ऐश्वर्या राय के साथ शादी राज्य के दो बड़े राजनीतिक घरानों का एक होना भी था. ये शाही शादी मई 2018 में काफी धूम-धड़ाके के साथ हुई थी जिसमे कई राजनीतिक हस्तियां शरीक हुई थीं. लेकिन शादी के महज कुछ महीने बाद ही विवाद पैदा हुए जो बाद में कोर्ट तक पहुंच गए. बहुतों का मानना है कि लालू होते तो बहुत संभव है कि ये शादी इतनी जल्दी न टूटती. आज केवल ये शादी ही नहीं टूटी है बल्कि दो बड़े राजनीतिक परिवार भी अलग हो चुके हैं. और अब दोनों परिवार चुनाव मैदान में आज एक-दूसरे से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं.

लालू की गैरमौजूदगी में एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी उनकी पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और उनके छोटे पुत्र तेजश्वी यादव पर थी कि वो अपनी पार्टी और परिवार को एकजुट रखें, उन्होंने ये काम कैसे किया है, ये सबके सामने है. तेजस्वी और तेज प्रताप के बीच उभरने वाले विवाद भी खुलकर सामने आ चुके हैं.

अब जबकि वामपंथी पार्टियों का गठबंधन राजद के साथ फाइनल हो चुका है, राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा है कि दो युवा चेहरे, राजद के तेजश्वी यादव और CPI के कन्हैया कुमार साथ-साथ चुनाव प्रचार करेंगे और इससे विपक्षी राजनीति को एक नई ताकत मिलेगी, लेकिन राजनीतिक पंडित कुछ और ही कहते हैं

“कन्हैया-तेजश्वी के साथ आने से विपक्ष को कोई फायदा नहीं होगा. कन्हैया के आने से क्या भूमिहार वोट आ जाएगा? वो पिछड़ों के नेता बन जाएंगे? कन्हैया एक घटना की उपज हैं, मीडिया-क्रिएटेड हैं और उनकी एक राष्ट्रीय छवि बन गयी है तो क्या इससे उनको जनाधार मिल जाएगा? नेता के पीछे जनाधार होना चाहिए ...साथ घूमने से कन्हैया को भले लाभ हो जाए, तेजश्वी को नहीं लाभ होगा. हां, साथ घूमने से एक पॉजिटिव मैसेज जरूर जाएगा”
सत्यनारायण मदन, राजनीतिक विश्लेषक

लगभग यही कहना है पटना स्थित अनुग्रह नारायण सिंह समाज अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो दिवाकर का. वो कहते हैं, "कन्हैया एक अच्छे वक्ता हैं, तर्कसंगत संवाद के लिए चर्चित रहे हैं लेकिन उनके पास पार्टी कैडर छोड़कर कोई नहीं हैं और CPI की बिहार में क्या स्थिति है वो आप जानते ही हैं". वो फिर कहते हैं, "वामपंथ एक फायर ब्रिगेड की तरह है, केवल चुनाव के समय दिखाई देता है. खुद कन्हैया न कोरोना, न बाढ़ के समय दिखे. हां, यह सही है कि दो नौजवान चेहरे सामने आए हैं, उसका सकारात्मक असर जरूर होगा."

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Published: 03 Sep 2020,06:14 PM IST

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