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चुनाव खत्म होने से पहले आप बिहार (Bihar) की कौन सी कहानी सुनना चाहेंगे- वो वाली जिसमें बिहार वाइल्ड ईस्ट के अलावा कुछ नहीं है और बिहारी बस एक फूहड़ प्रजाति या फिर वो वाली जिसमें बिहारियों को आईएएस और आईपीएस बनकर नाम कमाते दिखाया जाता है. पाटलीपुत्र को मगध साम्राज्य की राजधानी? मेरे हिसाब से दोनों ही कहानी बिल्कुल आधी-अधूरी तस्वीर के अलावे कुछ नहीं है.
असल में बिहार की कहानी में कई परतें हैं. कुछ परतों से रूबरू होने के बाद एक जटिल सी तस्वीर सामने आएगी और तब आपके मन में एक सवाल आएगा- अपने आपको राजनीतिक रूप से काफी सजग समझने वाले बिहारी अपनी च्वाइस में सही कर रहे हैं क्या. और अगर जनादेश समय की मांग के हिसाब से हुआ है तो फिर राज्य की ऐसी दुर्दशा क्यों रही है?
सबसे पहले कुछ चुनावों की परतों से रुबरू कराता हूं, जिसे मैंने खुद महसूस किया है. 2015 विधानसभा में एक नई उमंग थी. लोगों का कहना था कि नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव का फिर से हाथ थामकर बिहार में बड़े बदलाव की नींव रख दी है. चुनाव के बाद तो इसके चमत्कारी परिणाम होंगे.
बिहार में नीतीशे कुमार थे. उन्होंने बदहाल राज्य को रुल ऑफ लॉ का दर्शन कराया था. उन्होंने ही ऐहसास दिलाया था कि इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी कुछ चीज भी होती है. मामूली उम्मीद पर अच्छी सड़कों का डोज मिला तो लोग गदगद हो गए. उनके लिए नीतीश को फिर से वोट करना ही राइट चॉइस था. लेकिन क्या उसके बाद राज्य की गाड़ी आगे बढ़ी? लोग पूछते, तब तक तो माहौल ही बदल गया.
अजेय लालू हारे. बूथ कैप्चरिंग का डर हारा. गुंडागर्दी का घौंस हारा. गड्ढ़े में सड़क देखने के लालला की जीत हुई. एक कामकाजी स्टेट मशीनरी पाने की चाहत की जीत हुई. बिहारियों के नजर में वही तो राइट चॉइस था.
2000 में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम को बिहारियों की नजर से देखेंगे तो वो लॉजिकल लगेगा. जिन तबकों को आवाज देने की मुहिम 1990 में लालू प्रसाद ने शुरू की थी उनको लगा कि चारा घोटाले में लालू को फंसाकर उनकी आवाज फिर से छीनने की साजिश हो रही है. उस चुनाव में लालू के लिए वोट उस आवाज को कायम रखने का वोट था. उसे आप राजनीतिक नासमझी कह सकते हैं क्या?
उससे पांच साल पहले यानी 1995 में तो सामाजिक न्याय की लहर थी. लालू के गरीब गुरबा हाकिम बनने का ख्वाव देखने लगे थे. चरवाहा स्कूल भी प्रेस्टीज की वस्तू होने लगी थी. बिहार में सबअल्टर्न को शासन में अपनी हिस्सेदारी दिखने लगी थी. उस साल का चुनाव उसी का तो परिलक्षण था और बिहारियों के हिसाब से राइट चॉइस भी.
1990 और उससे पहले के चुनाव की यादें धूमिल हो रही हैं. लेकिन इतना जानना काफी है कि 1990 में ही बिहार ने एक ऑर्डर को छोड़कर दूसरे में प्रवेश किया था. और उस हिसाब से उसे बड़ी घटना कह सकते हैं. उतनी ही बड़ी जितना 2005 में लालू राज के अंत वाला था.
अब आप कहेंगे कि राजनीतिक रुप से जागरूक जनता ने अगर हर बार राइट च्वाइश को ही चुना तो फिर बिहार पिछड़ता क्यों गया. 20 साल पहले भी राज्य सबसे पिछड़े इलाकों में से एक था. अब भी हालात वही हैं. मौजूदा वित्त आयोग ने जो अंतरिम सिफारिश में बिहार को रेवेन्यू का पहले से ज्यादा हिस्सा देने की सिफारिश की है उसके पीछे की वजह भी बिहार का लगातार पिछड़ा रहना ही है.
एक अति उत्साही 12 वीं पास लड़का वहां नामांकन कराने जाता है. कॉलेज की चिट्ठी है कि वो दाखिले के लिए योग्य है. लेकिन ऑफिस के फिर भी चक्कर लग रहे हैं. ऑफिस के कर्मचारी की जिद है कि दक्षिणा लिए बगैर काम नहीं होगा. आठ साल बाद वही लड़का सुपौल जिले में बाइक पर कहीं जा रहा था. चुनाव हो रहे थे इसीलिए पुलिस का पहरा था. गाड़ी रोकी गई तो पता चला कि बाइक के तो पेपर्स ही नहीं हैं. गाड़ी थाने में लग गई. फिर से दक्षिणा की मांग. लेकिन इस बार एक हाकिम से बात करने पर काम बन गया. इन दोनों घटनाओं की सच्चाई की मेरी गारंटी है. इनसे ये तो पता चलता है कि बिहार में गलती ना भी हो तो दक्षिणा और गलती हो तो पक्का दक्षिणा. और ये कहानी लालू या नीतीश युग में बिल्कुल भी नहीं बदला है. पिछले 30 सालों से यही तो युग रहे हैं.
इसकी सबसे बड़ी वजह है कि पिछले कम से कम चार दशक से स्टेट की क्षमता बढ़ाने की कभी कोशिश नहीं हुए, पब्लिक गुड्स की सप्लाई जनसंख्या के हिसाब से बढ़ी नहीं. चाहे वो हॉस्पिटल बेड की बात हो या कॉलेज में सीट. मामला प्रति 1000 आबादी पर पुलिस बल की संख्या का हो या फिर इंजीनियरिंग और मेडिकल सीट्स का. डिमांड और सप्लाई में जो अंतर 40 साल पहले था वो अब भी है. जहां दूसरे राज्यों में इस गैप को पूरा करने के लिए कुछ सेक्टर्स में प्राइवेट सेक्टर ने एंट्री मारी, बिहार का रुलिंग क्लास राज्य में ऐसा माहौल बना ही नहीं पाया.
दरअसल राज्य में उसकी जो तीन खासियत- जल,जमीन और जन है, इसके इर्द-गिर्द पॉलिसी बनी ही नहीं. बिहार में पानी बाढ़ जैसी आपदा बनकर लोगों को डराती आई है. अगर राज्य के वाटर रिसोर्स का सही दोहन हो तो राज्य के लिए यह वरदान साबित हो सकता है. उसी तरह वहां की यंग आबादी और उपजाऊ जमीन. पिछले 40 सालों में इसके आसपास पॉलिसी बनते मैंने नहीं देखी है. 40 साल की बात इसीलिए कर रहा हूं क्योंकि इन सालों में मैंने राज्य को अपनी आंखों से देखा है.
ऐसा क्यों है इसे जानने के लिए मैं 2008 में राज्य के एक बड़े प्रभावशाली नेता से बातचीत के एक हिस्सा का जिक्र करना चाहता हूं. उस समय देश में डेमोग्राफिक डिविडेंड की बात हो रही थी, उत्तर भारत के उदय होने की बात हो रही थी. मैंने भी चहक कर पूछ ही लिया कि क्या बिहार इसके लिए तैयार है. उनका जवाब बड़ा निराश करने वाला था. उन्होंने कहा- काहे का डिविडेंड. बिहार में तो चारो तरफ नर मुंड ही दिखता है और यही तो मुसीबत है.
2011 में जनगणना के परिणाम आने के बाद यह साफ हो गया कि बिहार में पॉपुलेशन डेंसिटी देश में सबसे ज्यादा है और ये राष्ट्रीय औसत से करीब तीन गुना ज्यादा है.
लेकिन आपके पास जो है उसे जब तक मुसीबत समझते रहेंगे, समस्या बढ़ती रहेगी. उसे एसेट समझिए तो फिर शासन का एप्रोच बदलेगा और हल भी निकलेगा.
क्या इस बार चुनावी विमर्श और उसके बाद शासन तंत्र को इस बात का एहसास होगा कि वो ऐसी पॉलिसी बनाएं जिसमें राज्य की खासियतों का सही उपयोग हो. नहीं तो हम राइट चॉइस के बावजूद इस बात के लिए लगातार पछताते रहेंगे कि राज्य फिर भी फिसड्डी क्यों रह जाता है.
(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो इकनॉमी और पॉलिटिक्स पर लिखते हैं. उनसे @Mayankprem पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में व्यक्त विचार उनके निजी हैं और क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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