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बिहार में पहले चरण के चुनावों के लिए नामांकन भरे जा चुके हैं. पहले चरण में वहां 28 अक्टूबर को चुनाव होने वाले हैं. दूसरे चरण के लिए अधिसूचना जारी की जा चुकी है. बिहार में चुनावी ज्वर चढ़ चुका है. आरोपों और प्रत्यारोपों का दौर चल रहा है. जेडीयू के ‘नीतीश सबके हैं’, के नारे पर आरजेडी का जवाब ‘आने वाली है तेजस्वी सरकार’ आ चुका है.
बिहार की जनसंख्या में अपरकास्ट 15% हैं. यादव वहां 14%, मुसलमान 17%, एससी 16%, गैर यादव ओबीसी यानी एवाईओबीसी 36%, एसटी 1% और अन्य 2% हैं. इसमें कुर्मी (4%) (नीतीश खुद भी इसी समुदाय के हैं) और कोइरी/कुशवाहा (8%) एनवाईओबीसी के दायरे में आते हैं. ‘एनवाईओबीसी’ शब्द का इस्तेमाल अधिकतर उत्तर प्रदेश की राजनीति में होता है.
बिहार में ‘अति पिछड़ा जाति’ या ‘अत्यंत पिछड़ा जाति’ (एमबीसी/ईबीसी) वह श्रेणी है, जिसका अक्सर जिक्र होता है. यह अनिवार्य रूप से एनवाईओबीसी रहित कोइरी, कुर्मी और कुशवाहा हैं.
बिहार की जनसंख्या में एमबीसी/ईबीसी (24%), दलित (6%) और महादलित (10%) करीब 40% हैं. महादलित दलितों के साथ मिलकर न सिर्फ एससी समुदाय के लिए आरक्षित 38 सीटों, बल्कि 60 अन्य सीटों के नतीजों को भी प्रभावित कर सकते हैं. यह कुल मिलाकर लगभग 100 सीटें होती हैं जोकि बिहार विधानसभा की 40% सीटें हैं.
नीतीश ने कुछ दलित जातियों के कल्याण के लिए एक आयोग का गठन किया था, जोकि अन्य समुदायों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षिक रूप से ज्यादा पिछड़े थे. शुरुआत में दलितों की 18/22 उपजातियां महादलित श्रेणी में शामिल थीं, और धोबी, चमार, पासी और पासवान को छोड़ दिया गया था. इसके बाद सभी को महादलितों में शामिल कर दिया गया और सिर्फ पासवान दलित श्रेणी में रह गए.
ऐसे 7 जिले हैं (लगभग 40 सीटें) जहां महादलितों की आबादी 10% से ज्यादा है (राज्य की औसत जनसंख्या) और यहां वे लोग अहम भूमिका निभा सकते हैं. ये जिले हैं गया (19%), नवादा (17.5%), जहानाबाद (17.3%), कैमूर (14.8%), औरंगाबाद (12.3%), मधेपुरा (10.6%) और जमुई (11.2%).
2005 में इस वोट शेयर में 18% की गिरावट हुई, जब पासवान बिहार में इस समुदाय के मसीहा के तौर पर उभरे.
बिहार में एनडीए (बीजेपी+जेडीयू) की सरकार बनने और नीतीश के महादलित श्रेणी बनाने के बाद 2010 में राज्य विधानसभा चुनावों में यह वोट शेयर बढ़कर 31% हो गया. 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान त्रिकोणीय मुकाबले में बीजेपी को दलितों और महादलितों के 42% वोट मिले.
1999 में लालू को 39% दलित वोट मिले थे जोकि 2004 के लोकसभा चुनावों में बढ़कर 42% हो गए (तब पासवान के साथ उनका गठबंधन था). जब पासवान ने 2005 में आरजेडी की बजाय लेफ्ट फ्रंट के साथ चुनाव लड़ा तो यह 20% रह गए. 2010 में पासवान जब लालू के साथ हो लिए तो दलित वोट फिर 29% हो गया.
2015 के राज्य चुनावों में नीतीश ने लालू से हाथ मिला लिया. तब महागठबंधन को दलितों के 19% और महादलितों के 25% वोट मिले. दूसरी तरफ एनडीए को दलितों को 54% और महादलितों के 30% वोट मिले.
इस बार चिराग पासवान विद्रोही हो गए हैं और उनकी एलजेपी जेडीयू के खिलाफ चुनाव लड़ रही है, तो कहानी में एक जबरदस्त मोड़ आ गया है. एलजेपी दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा अपने नाम कर सकती है.
महादलित श्रेणी के बनने से एलजेपी के वोट शेयर में सेंध लगी है. 2005 में उसे 11.1% वोट मिले थे (इस चुनाव को उसने अकेला लड़ा था) जोकि 2010 में गिरकर 6.7% हो गए थे (जब उसने आरजेडी से गठबंधन किया) और 2015 में इसमें और गिरावट आई थी और यह 5.0% रह गए थे (बीजेपी के साथ गठबंधन).
इस बार चिराग ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है. इस तरह एलजेपी अपने उस वोट बैंक को वापस हासिल करना चाहती है जो उसके पास से खिसक रहा है. वह महादलितों के बीच अपने आधार को मजबूत करना चाहती है.
बिहार में दलित से ज्यादा महादलित वोटर हैं. जब 2015 में जेडीयू एनडीए से बाहर हो गई थी तब बीेजेपी और उसके सहयोगी दलों को एससी आरक्षित सीटों पर काफी नुकसान हुआ था. तब नीतीश के चलते आरजेडी और कांग्रेस को फायदा हुआ था.
टाइम्स नाऊ-वीएमआर सर्वे बताते हैं कि इन चुनावों में एनडीए का जनाधार कमजोर हुआ है. उसका अनुमान है कि 41% एससी एनडीए के समर्थक हैं और 42% महागठबंधन के. यह तब था, जब एलजेपी ने एनडीए का साथ नहीं छोड़ा था.
इस बार मांझी ने एनडीए में घर वापसी की है, लेकिन उनका यह दावा कमजोर हुआ है कि वह महादलितों के नेता हैं.
सत्ता में आने के बाद नीतीश ने भी गैर यादव ओबीसी के बीच अपनी स्थिति को मजबूत करने पर पूरा ध्यान केंद्रित किया था. आरजेडी के अति ‘यादवीकरण’ के कारण पिछड़ा वर्ग 2005 में लालू की पार्टी से दूर छिटक गया था.
उन्होंने अति/अत्यंत पिछड़ी जातियों की एक नई श्रेणी बनाई. इनका जिक्र मुंगेरीलाल कमीशन के अनुलग्नक I में है जिसे 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने लागू किया था.
इस श्रेणी में कई उपजातियां शामिल हैं, जैसे कनु, हलवाई, करमाकर, लोहार, निषाद, साहनी वगैरह. नीतीश ने ऐसी कई योजनाएं भी बनाईं जिनके केंद्र में एनबीसी और महादलित, दोनों थे.
मोदी के प्रधानमंत्री बनने से बीजेपी को ओबीसी समर्थन भी मिला है. यह ऐसा मारक मेल है जिससे हरा पाना लगभग असंभव है.
2014 के लोकसभा चुनावों में 53% एमबीसी वोट बीेजेपी+ को गए थे, 18% जेडीयू (जिसने अकेले चुनाव लड़े थे) और 10% आरजेडी+ को. 2019 के लोकसभा चुनावों में 60% एमबीसी ने एनडीए के पक्ष में वोट दिए थे, और आरजेडी के पक्ष में सिर्फ 13% वोट पड़े थे.
अपरकास्ट और एमबीसी इन जिलों की करीब 100 सीटों को प्रभावित करते हैं- वाल्मीकि नगर, सीवान, सीतामढ़ी, दरभंगा, झंझारपुर, सुपौल, किशनगंज, मधेपुरा, बांका, नालंदा, जहानाबाद, औरंगाबाद, करकट, गोपालगंज, मुंगेर, पाटलीपुत्र और पूर्णिया.
क्राउडविजडम360 के मुताबिक, टाइम्स नाऊ-वीएमआर सर्वे के अनुसार, इन चुनावों में एनडीए का जनाधार कुछ खिसका है.
मुकेश साहनी की विकासशील इनसान पार्टी (वीआईपी) महागठबंधन से टूटकर एनडीए की झोली में गिर गई है. वहां वीआईपी 11 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. मुकेश का दावा है कि वह निषाद समुदाय के नेता हैं और बिहार में इस जाति की आबादी 6% से 8% के करीब है.
चिराग के एनडीए से अलग होने के साथ एलजेपी जेडीयू उम्मीदवारों से 5% से 6% वोट खींच सकती है. तेजस्वी को उम्मीद है कि आरएलएसपी, जिसने तीसरा मोर्चा बना लिया है, एनडीए उम्मीदवारों से एमबीसी वोटों का एक बड़ा हिस्सा खींच लेगी.
इन चुनावों में एमबीसी, दलित और महादलित किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं. उनके समर्थन से सिर्फ एनडीए और महागठबंधन ही नहीं, एलजेपी और आरएलएसपी का भी भविष्य तय होगा. जीत के लिए महागठबंधन को एनडीए के इन दो बड़े वोट बैंकों में सेंध लगानी होगी.
(लेखक स्वतंत्र पॉलिटिकल कमेंटेटर हैं और @politicalbaaba पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 14 Oct 2020,12:29 PM IST