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पिछले साल बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के अपमानजनक प्रदर्शन का गुस्सा क्या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चिराग पासवान के 'बंगले' पर उतार रहे हैं. “बंगला” चुनाव चिन्ह वाली लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के 200 से ज्यादा लोग नीतीश की पार्टी JDU में आ गए हैं. जानकार बताते हैं कि नीतीश अपना कुनबा बढ़ाने में जुटे हुए हैं. दूसरी पार्टियों के दो विधायक पहले ही JDU में शामिल हो चुके हैं. खबर है कि कुछ और विरोधी खेमे के विधायक भी JDU के संपर्क में हैं.
वैसे राजनीतिक विश्लेषक ये बताते हैं कि, इससे JDU को कोई खास फायदा होने वाला नहीं क्योंकि इनमें से बहुतों की पकड़ जनता पर नहीं है. उनके अनुसार कुल 208 LJP छोड़नेवाले नेताओं में से मात्र पांच ने ही अब तक विधानसभा चुनाव लड़ा है. इन पांच नामों को चुनाव में अब तक कुल 98,788 वोट प्राप्त हुए जिससे इनकी राजनीतिक हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है.
राजनीतिक विश्लेषक बलिराम शर्मा बताते हैं, "इन नेताओं के जाने से न LJP को कोई खास नुकसान होने वाला है न ही JDU कोई ज्यादा फायदा. हां, इससे LJP की साख पर जरूर असर पड़ा है. इससे समाज में एक मैसेज जरूर जाएगा कि LJP कि पकड़ जरूर ढीली हो रही है." वो बताते हैं कि रामविलास पासवान की LJP और चिराग पासवान की LJP में अंतर है. रामविलास पुराने लोगों को अपने साथ लेकर चलते थे, वही चिराग अपनी तरह से पार्टी को चलाना चाहते हैं और इसमें कोई बुराई भी नहीं है क्योंकि चिराग नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्त्व करते हैं.
एनडीए में तालमेल की बात बिगड़ने पर चिराग ने चुनाव में अकेले जाने का फैसला किया था लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने JDU के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतारने की घोषणा कर दी. वैसे तो चिराग की पार्टी चुनाव में केवल एक ही सीट जीत सकी लेकिन इसने JDU को भारी नुकसान पहुंचाया. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी केवल 43 सीटों पर ही सिमट कर रह गयी. 2015 के विधान सभा चुनाव में JDU ने लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर कुल 71 सीटें जीतीं थी. इस तरह से इसे कुल 28 सीटों का नुकसान हुआ. वही बीजेपी की सीटों की संख्या 53 (2015 के चुनाव में) से बढ़कर 74 हो गयी. यानी 21 सीटों का फायदा.
LJP की वजह से JDU को 16 सीटों पर सीधा हार का सामना करना पड़ा. 13 सीटों पर JDU प्रत्याशी के हार का अंतर LJP प्रत्याशी द्वारा प्राप्त वोटों के बराबर था. इसका मतलब है कि यदि LJP एनडीए के साथ मिलकर चुनाव लड़ती तो JDU को सीधा फायदा होता. कुल आठ सीटों पर LJP दूसरे स्थान पर रही, वहीं 64 सीटों पर तीसरे स्थान पर रही. इसने नीतीश की राजनीती का पूरा अंकगणित ही बिगाड़ दिया है.
जानकार बताते हैं कि नीतीश पार्टी विधायकों की संख्या को एक सम्मानजनक स्तर पर ले जाने के लिए लगातार काम कर रहे हैं. इस रणनीति के तहत उन्होंने विपक्ष के दो विधायकों को अपनी पार्टी में मिला लिया है. ये हैं बिहार में BSP के एकमात्र विधायक जमा खान और एकमात्र निर्दलीय विधायक सुमित सिंह. इन दोनों विधायकों को नीतीश सरकार में मंत्री बनाया गया है. खान कैमूर जिले के चैनपुर विधान सभा क्षेत्र से जीतकर आये हैं तो सिंह जमुई के चकाई विधान सभा क्षेत्र से जीते हैं.
इसके अलावा, LJP के एकमात्र विधायक भी नीतीश के मंत्री से मुलाकात कर चुके हैं. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के भी पांच विधायक और सीपीआई के एक विधायक भी नीतीश से मिल चुके हैं. वैसे इसे "शिष्टाचार" मुलाकात का नाम दिया जा रहा है, लेकिन पीछे की कहानी कुछ और ही बताती है. जानकर बताते हैं कि विधान सभा में सीपीआई के कुल दो ही विधायक हैं, इस वजह से पार्टी में टूट काफी आसान है और दल-बदल विरोधी कानून भी कहीं आड़े नहीं आएगा. बिलकुल इसी आधार पर ओवैसी के भी विधायकों का टूटना काफी आसान है. ओवैसी के विधायकों नीतीश की पार्टी में गए तो कोई खास हंगामा नहीं मचने वाला क्योंकि नीतीश अभी भी सेक्युलर लाइन को लेकर चल रहे हैं.
राजनीतिक एक्सपर्ट एल के झा कहते हैं, "नीतीश कभी राजनीति में सुचिता के बारे में बात किया करते थे लेकिन आज वो सब काम कर रहे हैं जो और नेताओं की पहचान थी. वो राजनीति में जिन्दा रहने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं. आगे-आगे देखिए क्या होता है".
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