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नीतीश कुमार की सरकार गठित हुए अभी ठीक से तीन महीने भी नहीं हुए हैं, लेकिन आपसी खींचतान के कारण पहले कैबिनेट विस्तार में पहले 84 दिनों की देर हुई और अब जब विस्तार हो गया है तो बिहार एनडीए में विरोध के सुर तेज हो गए हैं. नीतीश सरकार की परेशानी यह है कि सरकार बहुत ही कम बहुमत से सत्ता में है और थोड़े ही विधायकों का इधर-उधर जाना मुश्किल खड़ी कर सकता है.
ज्ञानू कहते हैं, "पार्टी अगड़ों का तो वोट चाहती है, लेकिन जब पद देने की बात आती है तो इस वर्ग को किनारे लगा दिया जाता है. बीजेपी अभी यादवों और बनियों की पार्टी बनकर रह गयी है. अगर यही हाल रहा तो फिर अगड़े बीजेपी को वोट क्यों देंगे?" वो कहते हैं कि बीजेपी के बदले रुख से पार्टी के बहुत सारे विधायक नाराज हैं और वो अपनी आगे की रणनीति तय करने में लगे हैं.
ज्ञानू इस बात को लेकर ज्यादा नाराज हैं कि बीजेपी के कुल 74 में से आधे विधायक ऊंच जातियों के हैं, लेकिन इनमे से एक को भी उप-मुख्य मंत्री नहीं बनाया गया है, जबकि नीतीश कि सरकार में बीजेपी कोटे से दो उप-मुख्य मंत्री हैं. उनका कहना है कि बिहार बीजेपी में हुई मनमानी के खिलाफ अब वो सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात करेंगे. पटना के बाढ़ क्षेत्र से विधायक ज्ञानू राजपूत जाति से आते हैं.
बीजेपी की यही एकमात्र परेशानी नहीं है. एक दूसरा नेता भी है जो अपनी पार्टी को भाव नहीं दिए जाने से बीजेपी को नाक में दम किये है. ये हैं विकाशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी. अपनी पार्टी को ज्यादा भाव नहीं दिए जाने से परेशान सहनी अमित शाह से मिलने सीधे दिल्ली चले गए. वैसे वो इसका कारण कुछ और ही बताते हैं.
सहनी कहते हैं कि मंत्रिमंडल गठन के वक्त ही उन्हें आश्वस्त किया गया था कि कैबिनेट विस्तार के मौके पर उनकी पार्टी के एक और विधायक को मंत्री बनने का मौका दिया जाएगा, लेकिन जब विस्तार हुआ तो उनकी अनदेखी की गयी. सहनी की एक और नाराजगी भी हैं. वो पूरे छह साल कार्यकाल वाली विधान परिषद की सीट चाहते थे, लेकिन बीजेपी ने अपनी पार्टी के विधान परिषद् सदस्य विनोद नारायण झा के विधानसभा चुनाव जीतने के बाद से खाली पड़ी सीट ही उनको विधान परिषद भेजा गया.
इस सीट के कार्यकाल मात्रा डेढ़ साल है, सहनी ज्यादा इधर-उधर करेंगे तो उनकी मंत्री की कुर्सी डेढ़ साल बाद जा भी सकती है.
एनडीए में आने के पहले सहनी महागठबंधन में थे, जहां वो लगातार दबाव बना रहे थे कि इसके सत्ता में आने पर उन्हें उप-मुख्य मंत्री का पद दिया जाएगा, लेकिन सीटों की संख्या पर बात नहीं बनने पर वो महागठबंधन छोड़कर एनडीए में चले गए. वैसे उनका बॉडी लैंग्वेज बता रहा कि वो यहां आकर फंस गए हैं.
आग केवल बीजेपी में ही नहीं, नीतीश कुमार के JDU में भी लगी हुई है. उनकी पार्टी के एक विधायक गोपाल मंडल ने मंत्री नहीं बनाये जाने से नाराज होकर मोर्चा खोल दिया है. मंडल ने बताया कि पार्टी आलाकमान से आश्वासन मिला था कि उन्हें कैबिनेट विस्तार में मंत्री पद दिया जायेगा. मंडल कहते हैं-
पॉलिटिकल एक्सपर्ट डी एम दिवाकर कहते हैं, "बीजेपी के साथ अब समस्या यह है कि वो मंत्रिमंडल गठन में कार्य क्षमता को आधार न बनाकर तुष्टिकरण यानि ‘अपीजमेंट’ को आधार बना रही है. तुष्टिकरण भी धर्म, जाति और समुदाय के नाम पर. यह पार्टी के लिए काफी खतरनाक साबित होनेवाली है".
दिवाकर के मुताबिक अगर पार्टी सबको संतुष्ट करने के वजाय केवल एक स्टैंडर्ड क्राइटेरिया को ही अपनाती तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन मंत्री पद काबिल नेताओं के बजाय "फ्रेशर्स" को ज्यादा दे दिया गया.
दिवाकर के मुताबिक एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट तो और चौंकाने वाली है. एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक एनडीए के 93 प्रतिशत मंत्री करोड़पति हैं. "इसका मतलब है की जब मंत्रिमंडल में सामान्य लोगों की भागीदारी ही नहीं है तो फिर सामान्य लोगों की बात सरकार तक पहुंचेगी कैसे?"
बिहार में एनडीए के लिए सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यहां वह बहुत ही थोड़े बहुमत से सत्ता में हैं. बिहार में किसी भी पार्टी या गठबंधन को सरकार बनाने के लिए 122 सीटें चाहिए, जबकि एनडीए को सदन में 125 सीटें है यानि बहुमत से मात्र तीन सीटें ज्यादा. महागठबंधन मात्र 12 सीटों से सरकार बनाने से दूर है.
महागठबंधन के पास 110 सीटें हैं. ऐसे में अगर थोड़े से विधायक इधर से उधर होते हैं तो फिर नीतीश सरकार पर खतरा बढ़ सकता है. सहनी और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी के पास 4-4 विधायक हैं. सहनी और मांझी दोनों के बीच नाराजगी है वैसे मांझी ने अपना मुंह नहीं खोला है. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के पास 5 विधायक हैं. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि खतरा कितना ज्यादा है.
शाहनवाज वैसे तो बिहार से ही आते हैं, लेकिन यहां उन्होंने राजनीति न के बराबर ही की. उनका ज्यादा समय दिल्ली की राजनीति में बीता, लेकिन वह चर्चा में तब आये जब उन्हें काफी ही काम उम्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बनाया गया.
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से वो लगभग हाशिये पर चले गए थे. इसका कारण यह बताया जा रहा था कि 2004 के लोक सभा चुनाव में पार्टी की करारी हार का ठीकरा उन्होंने नरेंद्र मोदी की सरकार के समय हुए 2002 के गुजरात दंगे पर फोड़ा था. बिहार भेजने का कारण भी इसे ही बताया जा रहा है वैसे कुछ राजनीतिक पंडित यह बता रहे हैं कि बीजेपी उनका इस्तेमाल मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ लाने में करना चाहती हैं.
खासकर सीमांचल में ओवैसी की पार्टी के फैलते जड़ को रोकने के लिए करना चाहती है, लेकिन यदि शाहनवाज इतना ही लोकप्रिय मुस्लिम नेता होते तो वो मुस्लिम-बहुल किशनगंज लोक सभा क्षेत्र को छोड़कर फिर भागलपुर क्यों भागते? वैसे भागलपुर के मतदाताओं ने भी उन्हें ज्यादा भाव नहीं दिया.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनितिक विश्लेषक सोरूर अहमद कहते हैं कि बीजेपी हुसैन को मंत्रिमंडल देकर मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाना चाहती है, लेकिन बिहार में वो खुद ही कोई फैक्टर नहीं हैं. अहमद कहते हैं, "पिछले 20 सालों में हुसैन मुख्य रूप से केवल चुनाव के दौरान ही बिहार में देखे गए. बीजेपी उनको यहां भेजकर क्या कर लेगी?
हां, इतना जरूर है कि हुसैन का एक तरह से राजनीतिक पुनर्वास जरूर हुआ है. वो करीब दो दशकों से राजनीतिक हासिये पर चले गए थे." अहमद हुसैन को बिहार में विधान परिषद के सदस्य बनाये जाने को भी उनकी डिमोशन मानते हैं. वो कहते हैं - "कहां हुसैन राज्य सभा के दावेदार थे और कहा आज उनको एमएलसी बनाया गया है!" बिहार का मुसलमान यह सारा कुछ देख रहा है.''
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