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बिहार सरकार द्वारा हाल ही में अपराध नियंत्रण के नाम पर एक बिल ‘बिहार स्पेशल आर्म्ड पुलिस बिल, 2021’ लाया गया है. इस बिल के सियासी मंसूबों से कत्तई इंकार नहीं किया जा सकता, और शायद यही कारण है कि विपक्षी दल इसका विरोध कर रहे हैं. और इस विरोध को कुचलने के लिए बिहार विधानसभा में जो कुछ भी हुआ वह ढहते हुए लोकतांत्रिक आदर्शों की तरफ ही इशारा करता है.
राजनीति से मूल्यों का अवमूल्यन इस स्तर पर हो चुका है कि अब तो इसकी चर्चा का भी कोई महत्त्व नहीं रहा, फिर भी कल की घटना भारतीय लोकतंत्र की अबतक की सबसे शर्मनाक घटनाओं में से एक मानी जानी चाहिए, क्योंकि अवाम के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों पर जिस तरह से पुलिस बलों ने हमला किया वह सीधा-सीधा लोकतंत्र पर हमला है.
लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधि मात्र एक व्यक्तिविशेष नहीं होता, अपितु वह एक विशाल जनसमुदाय की अनगिनत आकांक्षाओं, मूल्यों और विश्वासों का भी प्रतिनिधि और प्रतीक होता है, और इस अर्थ में पुलिस बलों का कृत्य एक गंभीर आपराधिक कृत्य है.
इस बिल के अन्दर का जो प्रावधान है वह एक तरह से ड्रेकोनियन कानून लाने की एक पहल है और साथ ही यह औपनिवेशिक क्रूर शासन की पुनरावृति भी है. अगर विपक्ष इसे काला कानून बता रही है तो कुछ गलत नहीं कहा जा सकता. इसके अंतर्गत पुलिस बलों को गिरफ्तारी, तलाशी आदि करने के लिए किसी वारंट या मजिस्ट्रेट आदि के आदेशों की जरुरत ही नहीं होगी. यह सब काम वह अब बड़े आराम से कर सकती है.
एक तरह से यह स्व-संचालित तंत्र की तरह कार्य करेगी. अपराध को नियंत्रित करने का बहाना देकर इस तरह के कानून को लाना कहिं से भी तार्किक नहीं दीखता, बल्कि सत्ता के अलोकतांत्रिक चरित्र को ही दिखाती है. और खासकर तब जब पुलिस की छवि लगातार खराब होती गई है वैसे में इसे एक और विशेषधिकार देना इसे और भी अधिक निरंकुश ही बनाता जाएगा. विभिन्न अकादमिक यात्राओं में हमने जहां तक लोगों के मन को पढ़ा-समझा उससे एक बात बहुत ही स्पष्ट रूप से सामने आई कि अधिकांश लोग अपराधियों और पुलिस में कई मामलों में बहुत अधिक का अंतर नहीं देखते, वे दोनों से ही डरते हैं, और दोनों के पास जाने से बचते हैं.
कैसे पुलिस राजनीतिक विचारधाराओं से प्रेरित होकर अपनी ड्यूटी करती है इसपर पर काफी कुछ लिखा-कहा गया है. साथ ही सामाजिक-आर्थिक रूप से कमजोर लोग कैसे पुलिसिया अत्याचार के शिकार होते हैं इसे तो कमोबेश प्रत्येक दिन के अखबारों में देखा जा सकता है.
मात्र कठोर कानून से अगर अपराध रोके जा सकते तो निर्भया काण्ड के बाद बने कानून से महिला हिंसा, बलात्कार जैसे अपराध कम हो जाने चाहिए थे, लेकिन वर्ष 2012 के बाद इन अपराधों के आंकड़ों में तेजी से वृद्धि ही दर्ज की गई है. यही स्थिति अन्य कानूनी प्रावधानों के साथ भी है.
कानून एक मार्गदर्शिका की तरह होता है, उसे मार्ग नहीं बनाया जा सकता; वह साधन मात्र है, साध्य नहीं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से जिस प्रकार से बात-बात पर कठोर कानून बनाये जाने की परम्परा का विकास हुआ है उससे लगता है कि समाज और सत्ता दोनों का धैर्य समाप्त हो गया है. सरकारें और समाज विकल्पहीनता की स्थिति में है. अपराध एक व्यक्तिगत क्रिया हो सकती है, लेकिन इसके होने के पीछे की प्रक्रिया मूलतः सामाजिक होती है.
अपराधशास्त्र के सिधान्तों के अनुसार एक अपराधी के बनने में उस व्यक्ति की अपनी गलतियों के साथ-साथ समाज और सत्ता का भी बराबर का दोष होता है, इसलिए अगर किसी सरकार के कार्यकाल में अपराध या अपराधी में वृद्धि हो रही है तो यह तत्कालीन सरकार की कार्यप्रणाली की विफलता को दिखाती है. और अपनी विफलताओं और दोषों को ढकने के लिए कठोरतम कानून एक मुखौटा तो बन जाता है लेकिन इससे कोई ठोस समाधान नहीं निकलता.
थप्पड़-लात-जूतों से जन-प्रतिनिधियों की पिटाई पर खास विचारधारात्मक झुकाव के कारण आनंदित हुआ जा सकता है, लेकिन जन-प्रतिनिधियों के इस अपमान का अलग ही अर्थ है जो अपने परिणाम और प्रभाव में लोकतंत्र को कमजोर करनेवाला है. बिल बनने से पूर्व ही अगर विभिन्न सुरक्षा बलों का मनोबल इस तरह का है कि वह विधानसभा के भीतर ही जन-प्रतिनिधियों का अपमान और पिटाई कर सकता है तो ऐसे प्रावधानों के बाद विधानसभा के बाहर इनका बर्ताव कितना लोकतांत्रिक हो सकता है इसकी सहज कल्पना की जा सकती है!
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के पीछे राजनीतिक निर्देशों के होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता, और अगर ऐसा है तो फिर विपक्ष का इस बिल का विरोध स्वतः न्यायसंगत हो जाता है. उनका यह आरोप कि इससे विपक्षी आवाजों को कुचला जाएगा यह बताने के लिए यह घटना ही अपने आप में पर्याप्त है.
सरकार को ऐसे कठोर कानून को बनाने से अधिक अन्य जन-केंद्रित मुद्दों पर सोचना चाहिए. बैन की राजनीति, कठोर कानून की राजनीति, और सुचिता की राजनीति से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. यह राजनीतिक नौटंकी ही माना जाएगा.
इससे अगर अपराध कम होते तो मानव सभ्यता का प्रारंभिक इतिहास कठोर कानूनों से ही भरा हुआ है, लेकिन अपने अनुभवों से सभ्यताओं ने इसकी सीमाओं को देखकर ही उदार लोकतांत्रिक तंत्रों का विकास किया था.
इतिहास से सीखने की जरूरत है. और सरकारी तंत्रों की सहायता से विपक्षी राजनीतिक दलों को तो कुचला जा सकता है, लेकिन अवाम की आवाज को नहीं. बिहार की मिट्टी में ही लोकतंत्र है.
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Published: 26 Mar 2021,02:32 PM IST