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आनंद मोहन बनाम मनोज झा: बिहार की सियासी पिच पर 'ठाकुर के कुएं' का बहता पानी

Bihar Politics| आनंद मोहन की राजनीति में शुरुआत और पतन से लेकर अब दोबारा जमीन तलाशने की कोशिश तक का सारा कच्चा चिट्ठा.

डॉ. संतोष सारंग
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>बिहार की सियासी पिच पर ठाकुर के कुएं का बहता पानी</p></div>
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बिहार की सियासी पिच पर ठाकुर के कुएं का बहता पानी

(फोटोः क्विंट हिंदी)

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90 के दशक का वह दौर याद कीजिए, जब बिहार की राजनीति में एक युवा तुर्क नेता का नाम प्रकाश-पुंज की तरह चमका था और पूरे सूबे की सियासत में एकबारगी छा गया था. 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में ‘पुष्पक विमान’ से उसने पूरे बिहार का दौरा कर तूफानी चुनावी भाषण दिया था. संयोग से चुनाव चिह्न भी ‘हवाई जहाज’ ही आवंटित हुआ था. उसकी छवि एक बाहुबली नेता के रूप में उभरी थी.

उस नेता का नाम है आनंद मोहन (Anand Mohan), जिसने 1993 में ‘बिहार पीपुल्स पार्टी’ की स्थापना की थी. अगले ही साल यानी 1994 में आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद ने पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी किशोरी सिन्हा को हराकर वैशाली संसदीय सीट से उपचुनाव जीता और लोकसभा पहुंच गईं. इसके बाद आनंद मोहन की पार्टी का जलवा बढ़ता गया.

आनंद मोहन की राजनीति और राजपूत

आनंद मोहन की राजनीति शिवहर व वैशाली के इर्द-गिर्द घूमती रही. तब बिहार की सत्ता पर RJD सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव काबिज थे. आनंद मोहन तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव से लेकर RJD के कद्दावर राजपूत नेता रघुवंश प्रसाद सिंह तक की आंख की किरकिरी बन गये थे. उधर, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया के इलाके में दो बाहुबली नेताओं, आनंद मोहन और पप्पू यादव के वर्चस्व की राजनीतिक लड़ाई भी लोगों ने देखी. आगे चलकर बिहार पीपुल्स पार्टी समता पार्टी में शामिल हो गयी और 1996 में आनंद मोहन चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे, लेकिन आनंद मोहन और उनकी पार्टी जिस तूफानी गति से आगे बढ़ी, उतनी ही तेजी से फर्श पर आ गयी.

सहरसा जिले के रहने वाले आनंद मोहन वैसे तो खुद को समाजवादी पृष्ठभूमि से जोड़ते रहे हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक शैली सामंतों जैसी रही है. राजपूत समेत अन्य सवर्ण वोटर उनके कोर वोटर रहे हैं. बिहार के राजपूत समाज को तब लगा कि पहली बार उसकी अपनी पार्टी बनी है, इसलिए वह समाज आनंद मोहन की ताकत बना.

एक अनुमान के अनुसार, बिहार में ब्राह्मणों की जनसंख्या करीब 5.7 फीसदी और भूमिहार की करीब 6 फीसदी है, जबकि राजपूतों की आबादी 5.2 फीसदी है. आनंद मोहन को राजपूत के साथ-साथ ब्राह्मण व भूमिहार के एक वर्ग का समर्थन मिलता रहा है. वैशाली संसदीय उपचुनाव में भी यह समीकरण देखा गया था.

गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी. कृष्णैया की मुजफ्फरपुर के भगवानपुर इलाके में उग्र भीड़ द्वारा हत्या किए जाने के बाद मुख्य आरोपी आनंद मोहन की भी राजनीति का लगभग अंत हो गया. जी कृष्णैया दलित बिरादरी से थे और उनकी हत्या आपराधिक पृष्ठभूमि के छोटन शुक्ला की हत्या के अगले दिन उसके शव के साथ प्रदर्शन कर रहे लोगों ने कर दी थी, लेकिन साक्ष्य के अभाव में मौत की सजा पहले उम्रकैद में बदली और फिर लोग बरी होते चले गये.

आनंद मोहन का बीजेपी की तरफ झुकाव है?

अभी हाल में नियमों में बदलाव कर राज्य सरकार ने आनंद मोहन की रिहाई कर दी है. यह रिहाई पार्टी के भीतर से लेकर दलित समाज के लोगों तक को नागवार गुजरी. इस रिहाई को जी कृष्णैया की पत्नी उमा कृष्णैया ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस भी दिया, लेकिन फिलहाल आनंद मोहन जेल से बाहर हैं.

आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद अभी RJD के विधायक हैं. सूत्र बताते हैं कि आनंद मोहन लालू प्रसाद से मिलना चाहते थे, लेकिन राबड़ी आवास में एंट्री नहीं मिली. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि आनंद मोहन ने अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन तलाशने के लिए मनोज झा के बयान को एक सप्ताह बाद उछाला है. सूत्र बताते हैं कि आनंद मोहन बीजेपी के संपर्क में हैं.

आनंद मोहन के सबसे छोटे बेटे अंशुमान मोहन ने एक दिन पहले अपने फेसबुक पेज पर एक तस्वीर पोस्ट की, जिसमें वे राजनाथ सिंह के साथ दिख रहे हैं.

आनंद मोहन के इलाके के एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि कोसी इलाके में एक समय ललित-जगन्नाथ मिश्र परिवार का राजनीतिक वर्चस्व व जातीय दबदबा था, जिसे आनंद मोहन ने पहले ‘क्रांतिकारी समाजवादी सेना’ का गठन कर और फिर राजनीतिक दल बनाकर चुनौती दी. आज वे लंबे राजनीतिक वनवास के बाद फिर से अपने पूरे परिवार को राजनीति में सेट करना चाहते हैं.

खैर, मनोज झा-आनंद मोहन प्रकरण के जो भी राजनीतिक मायने निकाले जाएं, लेकिन ये शायद पहली बार हुआ है कि ब्राह्मणवाद पर इतना तीखा हमला किसी दलित-पिछड़ा नेता ने नहीं, बल्कि खुद सवर्ण नेताओं ने ही किया है. ये दलित विमर्श के इतिहास की दिलचस्प घटना है. इस पूरे प्रकरण से बिहार की राजनीति में एक बार फिर ठाकुर बनाम ब्राह्मण का विवाद सतह पर है. मनोज झा और आनंद मोहन दोनों सहरसा जिले से हैं.

आइए, थोड़ी-सी पड़ताल करते हैं कि क्या बिहार की राजनीति में वर्चस्व को लेकर पहले भी ठाकुर बनाम ब्राह्मण का मसला उठता रहा है?

जेपी आंदोलन के दौरान नीतीश-लालू के करीब रहे लेखक-पत्रकार अनिल प्रकाश का कहना है कि मनोज झा ने सदन में जो कविता पढ़ी थी, वह एक तरह से वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा व मनुवादी सोच पर प्रहार था. ठाकुर कहने का मतलब न लेखक का राजपूत जाति से था और न मनोज झा का, लेकिन आनंद मोहन ने इसे ठाकुर बनाम ब्राह्मण की लड़ाई की तरफ मोड़ दिया है.

दरअसल उन्हें एमपी का टिकट चाहिए, इसलिए वे यह सब नाटक कर रहे हैं. इसके पहले अनुग्रह नारायण सिंह और श्रीकृष्ण सिंह के बीच में राजनीतिक संघर्ष चलता रहा है, लेकिन इतने निचले स्तर पर आकर बिहार की राजनीति में कभी दो सवर्ण नेताओं को ऐसी जातीय दुर्भावना फैलाते नहीं देखा गया.

हिंदी के प्राध्यापक व लेखक डॉ. हरिनारायण ठाकुर कहते हैं कि 1924 में प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ प्रकाशित हुई. इसके बाद 1981 में दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘ठाकुर का कुआं’ कविता लिखी. प्रेमचंद व ओमप्रकाश वाल्मीकि दोनों उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे. तब यूपी में अधिकतर जमींदार व सामंती सवर्ण हुआ करते थे. खासकर राजपूत जाति का दबदबा था. वे दलित-पिछड़ों को कुएं पर पानी तक नहीं भरने देते थे.

दोनों साहित्यकारों ने ‘ठाकुर’ शब्द को किसी जाति विशेष के लिए नहीं, बल्कि सामंतवाद के प्रतीक के रूप में लिखा था. इन कविताओं को कोर्स में पढ़ाया जाता है, तब तो किसी राजपूत ने इसका विरोध नहीं किया. राजनीतिक बखेड़ा खड़ा करने के लिए आनंद मोहन ने यह अनर्गल बयान दिया है. वे आगे कहते हैं कि पहले बिहार के राजपूत को 'ठाकुर' नहीं बोलते थे, यूपी में बोला जाता था.

"बिहार में समाजवादी आंदोलन के समय से बिहार में जातीय वर्चस्व की अभिव्यक्ति के लिए राजपूतों ने 'ठाकुर' लगाना शुरू किया. राजपूत राजा-रजवाड़ों से लेकर आजादी के बाद के तमाम बड़े राजपूत नेताओं को देखिए, वे कहां अपने नाम के आगे ठाकुर लगाते थे. पृथ्वीराज चौहान से लेकर, कर्ण सिंह, अर्जुन सिंह समेत आज के तमाम नेताओं ने कभी ठाकुर नहीं लगाया."

राजपूत समाज में ‘बाबू साहेब’ शब्द का प्रचलन भी देखने को मिलता है. ये शब्द अंग्रेजों का दिया हुआ है, जो बंगाल से होते हुए बिहार-यूपी तक आया. साहित्य में तो ठाकुर शब्द शुरू से सामंतवाद के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है. आनंद मोहन इसे अपनी जाति से जोड़कर जातिवादी राजनीति को हवा देने में लगे हैं.

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"मनोज झा से पहले एक्टर इरफान खान ने भी इस कविता का पाठ किया था, जो यूट्यूब पर उपलब्ध है, तब तो किसी ने बवाल नहीं किया. ठाकुर तो प्रतीक है सामंती सोच का, जो सिनेमा में भी रिफलेक्ट हुआ है."
कुमार मुकुल, वरिष्ठ पत्रकार व कवि

वे आगे कहते हैं कि राजकमल चौधरी को पढ़ने वाले आनंद मोहन जेल में खुद कविता लिखते रहे हैं, फिर उन्होंने कविता के भाव को, उसके मर्म को इस तरह क्यों तोड़ा-मरोड़ा? दरअसल यह सब राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया जा रहा है. ऐतिहासिक चीजों के लिए इस तरह लड़ा जाएगा, तो नुकसान उसी समाज को होगा. इन लोगों का लोकतांत्रिक आधार सिमटता जाएगा. वे कहते हैं कि मुझे तो लगता है कि यह सारा एप्रोच बीजेपी का है.

'महिला विधेयक के समय ये कविता पढ़ना अप्रासंगिक'

बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य व लेखक-विचारक प्रेमकुमार मणि का कहना है कि महिला विधेयक पर चर्चा के दौरान ‘ठाकुर’ कहां से आ गया? मनोज झा ने कविता के जरिये सामंती सोच पर प्रहार किया ये अपनी जगह ठीक है, लेकिन उस समय इस कविता का पाठ करना अप्रासंगिक लगता है.

"हम जानते हैं कि महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटा फिलहाल संभव नहीं है. इसके लिए पहले संविधान में संशोधन करना होगा. ओबीसी कोटा की मांग करनेवाली पार्टियां क्यों अपनी पत्नी और बेटी को सदन में भेजती हैं."

राबड़ी देवी, मीसा भारती ही क्यों, पिछड़े तबके की दूसरी महिलाओं को टिकट दीजिए. वे आगे कहते हैं कि मैंने तब भी विरोध किया था, जब एक दलित आईएएस की हत्या में आनंद मोहन को नियम में बदलाव कर रिहा किया जा रहा था. आनंद मोहन की कोई विचारधारा नहीं है. वे खुद को समाजवादी कहते रहे हैं, जो झूठ है. वे कविता के बहाने जातिवादी राजनीति कर रहे हैं. वे बीजेपी में जाने के लिए अपनी खोई हुई जमीन तैयार कर रहे हैं.

बिहार में ठाकुर बनाम ब्राह्मण

आज इस प्रकरण को ठाकुर बनाम ब्राह्मण करने की कोशिश की जा रही है, ताकि इसका राजनीतिक लाभ लिया जा सके. वैसे क्षत्रिय व ब्राह्मणों का संघर्ष तो बहुत पुराना है. परशुराम के समय से ही, लेकिन आधुनिक भारत में भी कमोबेश यह राजनीतिक संघर्ष देखने को मिलता है.

80-90 के दशक में कांग्रेस पार्टी के पांच मुख्यमंत्री हुए. तीन ब्राह्मण बिरादरी से बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद और जगन्नाथ मिश्र और दो राजपूत समाज से चंद्रशेखर सिंह और सत्येंद्र नारायण सिंह.

इस दौरान इन दो जातियों के बीच राजनीतिक संघर्ष चलता रहा है, लेकिन इसके बाद इसके प्रतिक्रियास्वरूप करीब तीन दशक से फिर दो पिछड़ी जातियों यादव और कुर्मी का राज चल रहा है.

ब्राह्मण-क्षत्रिय के संघर्ष को मुद्दा बना कर सीएन कॉलेज साहेबगंज के इतिहास के प्राध्यापक डाॅ राजू रंजन प्रसाद ने एक किताब लिखी है, जिसका शीर्षक है- ‘प्राचीन भारत: वर्चस्व एवं प्रतिरोध'.

वे अपनी इस शोधपरक पुस्तक में उठाये गये तथ्यों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि धर्मग्रंथों में भले चार वर्णों का जिक्र है, लेकिन प्रैक्टिस में दो ही वर्ण हैं. एक तरह ब्राह्मण-ठाकुर हैं और दूसरी तरह ‘वैश्य-शूद्र’. इन दोनों का शोषण होता रहा है.

"जब नीचे के वर्णों के लोग प्रतिरोध करते हैं, तो ब्राह्मण-क्षत्रिय एक हो जाते हैं और जब नीचे के दोनों वर्णों का प्रतिरोध कमजोर पड़ता है, तो ब्राह्मण व क्षत्रिय में वर्चस्व व प्रभूता को लेकर संघर्ष चलता रहता है, जो कई बार दिखाई नहीं देता, लेकिन अंदर ही अंदर यह जारी रहता है."
'प्राचीन भारत: वर्चस्व एवं प्रतिरोध' किताब से

कहा जाता है कि अधिकतर उपनिषद को क्षत्रियों ने लिखा है, जो वैदिक कर्मकांड को चुनौती देते हैं. बौद्ध साहित्य को ही लीजिए. इसमें महावीर और बुद्ध ने वर्ण क्रम को ही बदल कर रख दिया है. यहां ब्राह्मण से उपर क्षत्रिय को रखा गया है. इधर, आजादी के पहले भारतीय राजनीति में मुसलमानों व कायस्थों का वर्चस्व था.

सच्चिदानंद सिंहा से लेकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अंग्रेजी अखबार बिहार टाइम्स के तत्कालीन संपादक महेश नारायण और गांधीजी के वकील ब्रजकिशोर प्रसाद, ये सारे कायस्थ बिरादरी से थे. कांग्रेस पार्टी में भी इन्हीं लोगों का दबदबा था. आगे चलकर कायस्थ व मुसलमान पीछे होते गये और बिहार की राजनीति में ब्राह्मण, भूमिहार व क्षत्रिय का वर्चस्व बढ़ता गया.

बहरहाल, बिहार बीजेपी ओबीसी मोर्चा के प्रदेश प्रवक्ता भूपाल भारती कहते हैं कि आनंद मोहन हों या नीरज बबलू, इनके शब्द कहीं से उचित नहीं हैं. दो लोगों की लड़ाई को जाति की लड़ाई के रूप में ट्विस्ट करना ठीक नहीं है, यह उचित नहीं है. यह राजनीति में जो अराजकता आई है, उसी का परिणाम है.

इस बीच जुबानी लड़ाई के इस मैदान में RJD की तरफ से पप्पू यादव भी कूद पड़े हैं. वे आनंद मोहन को ललकार रहे हैं. लिहाजा, देखना है कि ठाकुर बनाम ब्राह्मण की यह लड़ाई कहां जाकर खत्म होती है और इस जातिवादी मुहिम का राजनीतिक लाभ किसे मिलता है. आनंद मोहन को, NDA को या फिर INDIA को.

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