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कर्नाटक की राजनीति में बहुत कुछ बदलकर भी कुछ नहीं बदला है. अभी कर्नाटक बीजेपी से तो यही संदेश दिख रहा है.
पिछले हफ्ते कर्नाटक में BJP ने येदियुरप्पा के बेटे विजयेंद्र (Yediyurappa Vijayendra) को राज्य का प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष नामित किया जिसको देखकर इस दक्षिणी राज्य से यही विरोधाभासी संदेश सामने आ रहा है.
अनुभवी राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए, पहली बार MLA बने शख्स की प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर नियुक्ति कोई हैरानी की बात नहीं बल्कि सोच समझकर उठाया गया जोखिम है. जिसका मकसद राज्य की जटिल सियासी शतरंजी बिसात में एक दो प्यादे की कीमत पर किश्ती और ऊंट जैसे बड़े प्लेयर को हासिल करना है.
हालांकि, भ्रष्टाचार-घोटाले के आरोपी राज्य के नेता के बेटे का अभिषेक करते समय, यह चतुराई से (कम से कम तकनीकी अर्थ में) इस आरोप को दरकिनार कर देता है कि यह भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है. आखिरकार, आप यह तर्क दे सकते हैं कि बेटे की पिता से अलग पहचान होती है.
47 साल के युवा नेता विजयेंद्र राज्य के युवा मतदाताओं को अधिक आकर्षित कर सकते हैं. साथ ही वो पार्टी को लिंगायत नेता जगदीश शेट्टर का मुकाबला करने में भी मदद कर सकते हैं, जो अब कांग्रेस के साथ हैं. इस साल की शुरुआत में राज्य चुनावों में पार्टी का टिकट नहीं मिलने के बाद शेट्टर बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में चले गए थे.
ऐसा लगता है कि बीजेपी बड़ी चतुराई से दो चीजों की ओर इशारा करके इस आरोप से बच निकलने की कोशिश कर रही है कि वो वंशवाद की राजनीति के खिलाफ होने का सिर्फ दिखावा करती है.
इसमें एक बात जो वो बताती है वह यह है कि, वंशवादी शासन अनिवार्य रूप से कांग्रेस पार्टी के संदर्भ में है क्योंकि वहां संपूर्ण राष्ट्रीय पार्टी एक परिवार, राजनीतिक वंश (नेहरू-गांधी परिवार) के नियंत्रण में है, और दूसरी बात यह कि, एक व्यापक आधार वाले राजनीतिक संगठन में रैंकों के भीतर किसी वंशज का विकास कड़ी मेहनत या प्रतिभा के दम पर है जो कि स्वीकार्य है.
शक्तिशाली लिंगायत समुदाय के नेता के रूप में, विजयेंद्र एक ऐसे समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी राज्य की चुनावी राजनीति में मौजूदगी हर मायने में- वोट, सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और एजेंडा-सेटिंग सब जगह अहम है.
लेकिन अब इस पुरानी कहावत में ट्विस्ट आ गया है कि कर्नाटक की राजनीति को दो अनौपचारिक राजनीतिक समूह- लिंगायत और वोक्कालिगा प्रभावशाली तौर पर चलाती है. ऐतिहासिक रूप से, महत्वाकांक्षाओं में एक-दूसरे की प्रतिद्वंदी दोनों ही समुदायों को कांग्रेस और बीजेपी ने समर्थन दिया है. हालांकि, कांग्रेस इस साल की शुरुआत में कर्नाटक में विधानसभा चुनावों में एक विशिष्ट ओबीसी-वोक्कालिगा समीकरण के साथ सत्ता में आई, जिससे अपने आप ही लिंगायतों को बीजेपी के साथ स्वाभाविक तौर पर जोड़ दिया.
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने राज्य की राजनीति में उच्च स्तर पर OBC (ओबीसी) की पकड़ पर सफलतापूर्वक मुहर लगा दी है.
सिद्धारमैया पिछड़े कुरुबा समुदाय के सदस्य हैं, जिनमें दलित और अल्पसंख्यक मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट करने की भी प्रवृत्ति है, जो कांग्रेस का पारंपरिक समर्थन आधार हैं. अब राज्य की राजनीति में OBC एक ‘तीसरी सामाजिक ताकत' के रूप में उभरी है . यह लंबे समय से राज्य की राजनीति, जो सिर्फ लिंगायतों और वोक्कालिगाओं की धुरी में फंसी हुई थी, उससे जरा हटकर है.
इसलिए, बीजेपी के लिए प्रतिद्वंद्वी लिंगायतों के बीच अपना समर्थन मजबूत करना स्वाभाविक है.
लिंगायत आसानी से किसी भी वैचारिक ढांचे में फिट नहीं बैठते हैं. उनका हर कदम महत्वाकांक्षा के आधार पर होता है. उन्होंने मठाधीशों के साथ धार्मिक मठों का आयोजन किया है जो पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में राजनीतिक रूप से सक्रिय फिल्मी सितारों के फैंस क्लबों के समान एक समानांतर राजनीतिक व्यवस्था की तरह है.
यह भी कहा जाता है कि कर्नाटक में उनके 1,000 से अधिक सक्रिय मठ हैं. उनको राजनीतिक सत्ता के डिस्ट्रीब्यूशन सेंटर और मतदाताओं के लिए भर्ती केंद्र के रूप में सोचकर देखें.
बीजेपी के लिए, अगर कोई दक्षिणी राज्य है जहां उसके अपने दम पर सत्ता हासिल करने की उचित संभावना है, तो वह सिर्फ कर्नाटक है. मोदी अगर अपना यह दावा साबित करना चाहते हैं कि बीजेपी नॉर्थ सेंट्रिक पार्टी नहीं है, उनके लिए यह राज्य महत्वपूर्ण है, और ऐसे में लिंगायत समुदाय उनके लिए काफी अहम हो जाता है.
हालांकि ये मददगार है क्योंकि लिंगायत भगवान शिव के भक्त माने जाते हैं लेकिन सांस्कृतिक परंपरा और दर्शन जो वो मानते हैं वो उत्तर भारत के हिंदूवादी परंपरा से अलग है.
उत्तरी कर्नाटक के सूखे क्षेत्रों में मजबूत उपस्थिति के साथ, लिंगायत बीजेपी की राज्य-स्तरीय महत्वाकांक्षाओं के लिए व्यापक भौगोलिक पहुंच भी प्रदान करते हैं.
लिंगायत अक्सर उच्च शिक्षित होते हैं और चिकित्सा और इंजीनियरिंग जैसे व्यवसायों में प्रभाव रखते हैं. वे 12वीं सदी के कवि बसवा का अनुसरण करते हैं, जिन्होंने जाति भेदभाव और रूढ़िवादी पूजा को चुनौती दी थी.
उनका ‘विधर्मी पंथ’ आधिकारिक तौर पर आस्थाओं और लिंगों के बीच समानता का उपदेश देता है. कठोर जातिवाद से बचने के लिए हिंदू समाज के कई निचली या पिछड़ी जाति के सदस्य लिंगायत बन गए थे.
JD(S) दो महीने पहले औपचारिक रूप से बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो गयी. वह सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए एक वोक्कालिगा/किसान समूह है. इस साल मैसूर बेल्ट में राज्य चुनावों में इसकी हार और शिवकुमार के उदय ने इसे बीजेपी की ओर हाथ बढ़ाने के लिए मजबूर किया है.
यह बीजेपी के चुनावी कार्डों के चमकदार डेक में केवल एक छोटा सा जैक हो सकता है, जो कि इसकी अपनी किंगमेकर छवि से एक बड़ी गिरावट है लेकिन राज्य की अस्थिर राजनीति में बीजेपी के लिए अब हर चीज मायने रखती है.
JD(S) वैचारिक तौर पर लेफ्ट के आसपास है और लिंगायत जो राइट विचारधारा के करीब है. 2024 चुनाव का सामना कर रहे मोदी को उनके रथ को चलाने के लिए ये दो धारदार पहिए मिल गए हैं .
शक्तिशाली सामुदायिक नेताओं और इसके पुराने हिंदुत्व के मुद्दों से पार्टी को वह ताकत मिलती है जिसकी उसे सख्त जरूरत है. यह राज्य के तटीय जिलों में मतदाताओं को बहुत आकर्षित करते हैं.
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनका ट्विटर हैंडल @madversity है. यह एक ओपिनियन पीस है. लेखक का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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