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Budget 2023: डिफेंस बजट- चीन के साथ तनाव के बीच सरकार इसे बूस्ट कर सकती है ?

Budget 2023 | आज फिस्कल री-अश्योरेंस बहुत जरूरी है, क्योंकि आज का सिक्योरिटी का माहौल साल 2014 से बहुत अलग है.

प्रणय कोटस्थाना
नजरिया
Published:
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डिफेंस बजट: सरहद पर चीन के साथ तनाव के बीच सरकार डिफेंस बजट बूस्ट कर सकती है ?

(फोटो: क्विंट)

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(Union Budget 2023 से जुड़े सवाल? 3 फरवरी को राघव बहल के साथ हमारी विशेष चर्चा में मिलेंगे सवालों के जवाब. शामिल होने के लिए द क्विंट मेंबर बनें)

केंद्रीय रक्षा बजट (Defence Budget) के पेश होते ही इसके आकार और हिसाब किताब पर चर्चा का एक और दौर शुरू हो जाएगा. विश्लेषक इस बात पर ध्यान केंद्रित करेंगे कि खर्च को पिछले साल की तुलना में इस साल कहां किया गया है. सरकार अपनी ओर से, मौजूदा खर्च की तुलना 2014 में किए गए बजट खर्च से करेगी ताकि लोगों को यह बता सके कि उसने काफी काम किया है.

चीन की चुनौतियों को जरूर अच्छे से संभाला जाना चाहिए?

फिस्कल रीअश्योरेंस बहुत जरूरी है क्योंकि आज के भारत का स्ट्रैटेजिक वातावरण 2014 की तुलना में बहुत अलग है. आतंकवाद अब वो खतरा नहीं है, जो तब था.पाकिस्तान जो एक चुनौती थी अब वो वैसा रहा नहीं. पाकिस्तानी मिलिटरी- जिहादी कनेक्शन के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन में गिरावट आई है. भले ही इसे तालिबान के साथ अपनी पश्चिमी सीमाओं पर संघर्ष और आंतरिक रूप से आर्थिक कुप्रबंधन का सामना करना पड़ा रहा है.

इस बीच, 2017 से सीमा पर चीनी कार्रवाइयों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत अगले दशक में एक ज्यादा बड़ी परेशानी का सामना कर रहा है. हमारे रक्षा बजट में सुरक्षा वातावरण में इस मूलभूत परिवर्तन को दिखना चाहिए. लेकिन आंकड़ों पर नजर डालें तो ऐसा नहीं लगता.

दशक (FY12) की शुरुआत में, डिफेंस बजट GDP का 2.8 % और केंद्र सरकार के खर्च का 17.6 % था. FY22 तक, यह घटकर GDP का 2.1 %और केंद्र सरकार के खर्च का 14 % रह गया है.

दूसरे शब्दों में, रक्षा गैर-रक्षा कार्यों की तुलना में प्राथमिकताएं फिसल गई है. इसके अलावा, पूंजी खर्च और स्टोर (परिचालन और रखरखाव व्यय) में लगभग बराबर गिरावट आई है और खर्च ज्यादातर सैलरी, पेंशन की तरफ बढ़ा है.

सरकार ने पिछले साल इनमें से कुछ मुद्दों का समाधान किया था. अग्निपथ योजना पेंशन खर्च को कम कर सकती है, लेकिन इस बचत का फायदा पंद्रह साल बाद ही दिखेगा. सरकार ने पिछले बजट में पूंजी खर्च भी बढ़ाया था. यह वित्त वर्ष 2020 में 24.5% की तुलना में अब डिफेंस खर्च का 29% हो जाता है.

इसके अलावा, इस पूंजीगत व्यय में नौसेना की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2016 और वित्त वर्ष 2020 के बीच 27% की सीमा से बढ़कर 35% हो गई है. बजटीय आवंटन से पता चलता है कि सरकार उत्तरी सीमाओं पर चीन की चुनौती के जवाब में भारत की नौसैनिक ताकत बनाने की कोशिश कर रही है.

लेकिन ये बदलाव काफी नहीं हैं. वे अभी भी सकारात्मक बदलाव हैं. चीन के खिलाफ ताकत बनाने के लिए सरकार को दो मोर्चों पर आगे बढ़ने की जरूरत है.

डिफेंस फाइनेंसिंग सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए

डिफेंस के लिए वित्तीय संकट की समस्या को अकेले रक्षा मंत्रालय नहीं दूर कर सकता, इसके लिए सरकार को ही ध्यान देना होगा. उसे इस बात का भी ख्याल रखना होगा कि भविष्य में जो कुछ खतरा है उसको देखते हुए डिफेंस एक्सपेंडिचर का आवंटन करना होगा. भले ही इसके लिए कहीं और खर्च में कटौती करना पड़े. अच्छी खबर यह है कि सरकारी खर्च में पर्याप्त कमी है, जिसे अगर कम किया जाए तो स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और पानी जैसे मुद्दों पर समझौता किए बगैर ही डिफेंस में आधुनिकीकरण की इजाजत दी जा सकती है. ऐसे तीन क्षेत्र हैं जहां खर्च पर अंकुश लगाया जा सकता है.

एक, गैर-जरूरी सब्सिडी खर्च में कटौती करें. अर्थशास्त्री सुदीप्तो मुंडले और सतद्रु सिकदर ने पाया कि 2015-2016 में, संघ और सभी राज्य सरकारों की गैर जरूरी सब्सिडी संयुक्त रूप से GDP के 5.7 % से ज्यादा थी. इसमें से करीब एक चौथाई केंद्र सरकार देती है. यहां तक कि इस सब्सिडी बिल को आधा करने से GDP के लगभग 0.8 % के फिस्कल को फ्री किया जा सकता है.

दूसरा , जो सरकारी और केंद्र प्रायोजित योजनाएं हैं उन्हें तर्कसंगत बनाया जाए. वर्तमान में कुल 116, केंद्रीय योजनाएं हैं जो राज्य सरकारों के डोमेन में आती है लेकिन केंद्र सरकार उस तरह की योजनाएं चला रही है. अगर इन्हें तर्कसंगत बनाया जाए तो डिफेंस के लिए फिस्कल गुंजाइश बनेगी.

तीसरा, नॉन-स्ट्रैटेजिक फर्मों को बेच दें. अभी 249 ऑपरेटिंग सेंट्रल पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज (CPSE) हैं. केंद्र सरकार को कुछ चुनिंदा CPSE को छोड़कर सभी CPSE से अपनी हिस्सेदारी वापस लेनी चाहिए. असफल कंपनियों में टैक्सपेयर्स के पैसे को इंजेक्ट करते हुए डिफेंस खर्च में कटौती करना समझ से परे होगा.

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कैपिटल एक्विजिशन के लिए नॉन-लैप्सेबल फंड

रक्षा पर कई संसदीय स्थायी समितियों ने मल्टी ईयर कैपिटल एक्विजिशन प्रक्रिया के लिए एक खास बजटीय सिस्टम नॉन लैप्सेबल फंड बनाने पर जोर दिया है. पंद्रहवें वित्त आयोग ने भी इस तरह के कोष के निर्माण की सिफारिश की थी. चूंकि पूंजी अधिग्रहण कई वर्षों तक चलने वाली एक जटिल प्रक्रिया है. ऐसे में अगर ऐसा सिस्टम बने जिसमें बजट खर्च लैप्स ना हो और वो अगले साल तक के लिए विस्तारित हो जाए तो यह काफी मददगार होगा. पिछले साल के बजट में इस सुधार का जिक्र नहीं था. हालांकि केंद्र सरकार ने फरवरी 2021 में सैद्धांतिक रूप से इसकी मंजूरी दी थी.

जब भी कैपिटल एक्विजिशन डील होती है तो फिर इस नॉन लैप्सेबल फंड से पैसे का इस्तेमाल किया जा सकता है . महत्वपूर्ण रूप से, इस तरह के फंड को दो तरह से सींचा जा सकता है. इसमें जो नॉन-एसेंशियल डिफेंस लैंड है उसको मॉनेटाइजेशन किया जा सकता है.

केंद्र सरकार में रक्षा मंत्रालय के पास सबसे ज्यादा जमीन है.इनमें से बहुत से तो भारत के प्रमुख शहरों में प्राइम रियल एस्टेट के केंद्र बन चुके हैं.. इस भूमि में से कुछ को बेचने से बड़ी और बेहतर रक्षा सुविधाओं का निर्माण करने के लिए संसाधन बनाए जा सकते हैं. बचे हुए पैसे को पूंजी खाता कोष में रखा जा सकता है. डिफेंस मॉर्डनाइजेशन को रोककर इस जमीन को सिर्फ अपने कब्जे में रखने का मतलब भी नहीं है और यह अनैतिक भी है.

‘पूंजीगत अधिग्रहण निधि’ को सीडिंग करने का दूसरा संभावित स्रोत खराब प्रदर्शन करने वाले रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी बेचना है. रक्षा मंत्रालय के अधीन नौ रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम और 39 आयुध कारखाने हैं, जो व्यापक रूप से अलग-अलग प्रदर्शन स्तरों पर काम कर रहे हैं. इनमें से कुछ का निजीकरण पूंजी अधिग्रहण कोष को भरने में मदद कर सकता है.

डिफेंस बजट सरकार के लिए अपने नागरिकों और दुनिया को यह संकेत देने का एक और अवसर है कि वह भारत की रक्षा के हित में कठिन वित्तीय निर्णय ले सकती है. इस मौके को व्यर्थ न जाने दें.

(प्रणय कोटास्थाने तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में रिसर्च फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @pranaykotas है. लेख में लिखे विचार उनके निजी हैं और क्विंट हिंदी का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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