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नेहरू की औद्योगिक नीतियों ने इकोनॉमी के कई क्षेत्रों को सिर्फ पब्लिक सेक्टर के लिए रिजर्व करके, पब्लिक सेक्टर के अधिकांश एंटरप्राइजेज (PSEs) को जन्म दिया, जिन्हें हम आज देखते हैं. इंदिरा के लाइसेंस-परमिट राज और राष्ट्रीयकरण की नीतियों ने PSE साम्राज्य को और आगे बढ़ाया. इसने बैंकों और स्वतंत्रता से पहले की कुछ इंडस्ट्री जो वैसे तो कमजोर और बीमार थे उनको भी पब्लिक सेक्टर के दायरे में ला दिया.
लेकिन जैसा नेहरू ने सोचा था, भारत का पब्लिक सेक्टर उस तरह की ऊंचाईयों को नहीं छू पाया, ब्लकि यह एक कमांड इकोनॉमी में बदल दिया. इससे ग्रोथ की रफ्तार धीमी पड़ी, लॉस ज्यादा रहा, NPA ज्यादा बना और प्रोडक्ट की गुणवत्ता भी अच्छी नहीं रही.
इन नीतिगत चूकों की भयावहता को महसूस करते हुए, नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की टीम ने पब्लिक सेक्टर नीति में बदलाव किया. इसने नए पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज बनाना बंद कर दिया. आरक्षित क्षेत्रों और वित्तीय क्षेत्र को निजी और विदेशी निवेश के लिए खोल दिया. इसने पब्लिक सेक्टर के एंटरप्राइजेज के लिए प्रतिस्पर्धा पैदा किया. सरकार ने इन उद्यमों में माइनोरिटी शेयरहोल्डर्स को सूचीबद्ध करने और विनिवेश करने की भी पहल की.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली यह पहली बीजेपी सरकार थी, जिसने पब्लिक सेक्टर को सावधानी पूर्वक ध्वस्त करना शुरू किया. 2001-2003 के दौरान कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों-IPCL, हिंदुस्तान जिंक, बाल्को, ITDC होटल आदि का निजीकरण किया गया था.
लिस्टिंग प्रक्रिया ने भी रफ्तार पकड़ी. दुर्भाग्य से, मनमोहन सिंह सरकार (2004-2014) ने 2004-2014 के दौरान निजीकरण के एजेंडे पर पूर्ण विराम लगा दिया. इस दौरान थोड़ा बहुत ही विनिवेश की प्रक्रिया आगे बढ़ी.
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने 2015 में एक नीति के तौर पर खुले तौर पर निजीकरण की घोषणा की. मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस का व्यापक नजरिया दिया और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना शुरू किया. मोदी सरकार ने खुले आम घोषणा कर दी कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है.
बाद में, सरकार ने 2021-22 के बजट में एक व्यापक सार्वजनिक उद्यम नीति ढांचा लेकर आई. रणनीतिक क्षेत्रों में चार से अधिक गैर-रणनीतिक क्षेत्र के उद्यमों और सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण या बंद करने के लिए प्रतिबद्धता जताई.
सरकार ने एक ही बजट में दो बैंकों और एक बीमा कंपनी को बेचने की प्रतिबद्धता के साथ वित्तीय क्षेत्र में निजीकरण की भी घोषणा की.
सरकार ने अपने पहले कार्यकाल (2014-2019) में एयर इंडिया के निजीकरण की शुरुआत की, लेकिन ट्रांजैक्शन पूरा नहीं हो पाया. फिर भी कुछ निजीकरण किए गए - हिंदुस्तान पेट्रोलियम, ONGC की इक्विटी की बिक्री, REC , PFC और कुछ अन्य छोटे मोटे निजीकरण हुए.
हालांकि सरकार को कुछ विनिवेश मिला. उस अवधि के पिछले दो वर्षों (2017-19) के दौरान, औसतन सालाना एक लाख करोड़ से ज्यादा विनिवेश था. हालांकि इनका एक अच्छा हिस्सा पब्लिक सेक्टर का दूसरे पब्लिक सेक्टर की संस्थाओं का अधिग्रहण करने से आया. सरकार ने बैंकों और बीमा कंपनियों सहित कुछ IPO भी निकाले.
इन दो वर्षों में, रिकॉर्ड विनिवेश हासिल करने के बाद भी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में निवेश ज्यादा ही बढ़ा. यह विनिवेश के अंतर से ज्यादा था.
सरकार ने दूसरे कार्यकाल में बहुत आक्रामक निजीकरण करने और विनिवेश को बढ़ाने का रुख अपनाया. हालांकि हकीकत में कार्यक्रम सफल नहीं हुआ. इसने तीन वर्षों के लिए बजट में बहुत बड़ा विनिवेश लक्ष्य निर्धारित किया- 2019-20 में 105,000 करोड़ रुपये, 2020-21 में 210,000 करोड़ रुपये और 2021-22 में 175,000 करोड़ रुपये. हालांकि, वास्तविक प्रदर्शन काफी खराब रहा. सरकार को विनिवेश केवल 50,299 करोड़ रु. 32,815 करोड़ रुपए का मिला. 2019-20, 2020-21 में लगभग 16,000 करोड़ रुपये का ही.
अन्य सभी घोषित निजीकरण भी केवल साथ-साथ चल रहे हैं - शिपिंग कॉर्पोरेशन, कॉनकॉर, दो बैंक और एक बीमा कंपनी (जिसकी घोषणा के दो साल बाद भी पहचान नहीं की गई है), आईडीबीआई बैंक. सरकार के मौजूदा कार्यकाल (2019-2024) में इनमें से किसी भी PSE का निजीकरण होने की बहुत कम संभावना है.
हालांकि, सरकार ने पिछले चार वर्षों में बजट से PSE में निवेश का बाढ़ लाने के लिए दरवाजे खोल दिए हैं. वित्तीय क्षेत्र के उद्यमों ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, IIFCL, IFCI, एक्जिम बैंक और बीमा कंपनियों जैसे गैर-बैंक वित्तीय निगमों की इक्विटी में बड़ा निवेश दिखा है.
सरकार ने रेलवे में बड़े पैमाने पर इक्विटी और 4 लाख करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज डाला है.NHAI को अपने सड़क निर्माण कार्यक्रम के लिए पूरी तरह से बजटीय संसाधनों पर निर्भर कर दिया गया है. मार्च 2023 को समाप्त होने वाले चार वर्षों में एनएचएआई में इक्विटी निवेश 3 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो जाएगा.
सरकार बीमार और डूबते पब्लिक सेक्टर की रक्षक भी बन गई है. इसने इस अवधि के दौरान एयर इंडिया एसेट मैनेजमेंट कंपनी, बीएसएनएल, एमटीएनएल, हाई स्पीड रेल कॉरिडोर, डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर आदि में 250,000 करोड़ रुपये से अधिक का निवेश किया है. जबकि वो जानती है कि इन निवेशों से कोई रिटर्न नहीं मिलेगा और इनमें से कुछ भी वापस नहीं आएगा.
इसके लिए हमें केवल पिछले चार वर्षों में बजट पेपर में बताए गए असली निवेश पर नजर डालने की जरूरत है.
साल 2019-20 में, सरकार ने इक्विटी में 192,564 करोड़ रुपये का निवेश किया और PSE को 17,550 करोड़ रुपये का कर्ज दिया. जो कि कुल मिलाकर 210,114 करोड़ रुपये हो जाता है. चूंकि विनिवेश सिर्फ 50,299 करोड़ रुपये का था, इसलिए सरकार ने 142,265 करोड़ रुपये का नेट निवेश किया.
2021-22 में स्थिति और खराब हो गई. RE के अनुसार, सरकार का इक्विटी निवेश 305,788 करोड़ रुपये है और कर्ज 31,968 करोड़ रुपये .मतलब यह कुल 337,756 करोड़ रुपये हो जाता है. जबकि विनिवेश से आय साल के दौरान केवल 16,000 करोड़ रुपये की रही. नतीजतन, सरकार ने 321,700 करोड़ रुपये से अधिक का नेट निवेश किया.
2022-23 के बजटीय प्रावधान और भी बुरी खबर लेकर आए. सरकार ने NHAI, BSNL को बड़ी इक्विटी सहायता प्रदान किया.इक्विटी निवेश 334,134 करोड़ रुपये और 26,489 करोड़ रुपये के ऋण दिया जो कि कुल 360,623 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया था. विनिवेश से 50,000 करोड़ रुपये से अधिक हासिल होने की उम्मीद नहीं है और ऐसे में सरकार पब्लिक सेक्टर में फिर से 310,000 करोड़ रुपये से अधिक का नेट निवेश करेगी.
मौजूदा कार्यकाल के चार वर्षों में, यह विश्वास करना कठिन है कि, सरकार अपने पब्लिक सेक्टर में लगभग 9.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक का नेट निवेश करेगी.
क्या यह न्यूनतम सरकारी दखल यानि मिनिमम गवर्नमेंट है? क्या यह सरकार को बिजनेस से बाहर रहने की तरफ का कोई कदम है? शायद नहीं. भारत में सार्वजनिक क्षेत्र न तो मुरझा रहा है और न ही छोटा हो रहा है. इसके विपरीत, यह फलफूल रहा है.
शायद नहीं!
सभी संकेत बताते हैं कि सरकार ने निजीकरण और विनिवेश के एजेंडे को ठंडे बस्ते में डाल दिया है. बजट 2022-23 में निजीकरण कार्यक्रम का बिल्कुल भी उल्लेख नहीं किया गया था.विनिवेश मिलने का काफी कम अनुमान लगाया गया था.
BPCL निजीकरण पर पीछे हटना, बैंकों के निजीकरण को सक्षम करने के लिए बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियमों में संशोधन लाने की अनिच्छा, और CONCOR, IDBI बैंक आदि में नीतिगत मुद्दों पर सुस्ती. ये सब साफ संकेत हैं कि सरकार निजीकरण के एजेंडे पर काफी उदासीन हो गई है.
यह साफ करता है कि सरकार निजीकरण को आगे बढ़ाने के बजाय पब्लिक सेक्टर के एंटरप्राइजेज को जारी रखने के लिए काफी इच्छुक है. नेहरू-इंदिरा युग की विरासत चल रही है.
मुझे आगामी बजट में किसी भी निजीकरण या यहां तक कि अधिक साहसिक विनिवेश नीति के संबंध में किसी गंभीर घोषणा की उम्मीद नहीं है. हालांकि, सरकार NHAIs, रेलवे और अन्य सार्वजनिक उद्यमों में पूंजी निवेश को और बढ़ा सकती है.
कैपिटल एक्सपेंडिचर बजट का नया USP बन गया है. सरकार विनिवेश अनुमानों को लगभग 40,000 करोड़ रुपये रखते हुए 2023-24 में निवेश बजट को 4 लाख करोड़ रुपये या उससे अधिक तक बढ़ा सकती है. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश आय से दस गुना ज्यादा सरकारी निवेश सही नहीं लगता है लेकिन यही हकीकत है.
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