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CAA: बंगाल में BJP की चुनावी संभावनाएं मतुआ बेल्ट पर टिकी, लेकिन राह में ममता की चुनौती

CAA: बंगाल की राजनीति में मतुआ, राजबंशी समुदाय के वोट काफी महत्व रखते हैं.

सायंतन घोष
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>CAA: बंगाल में बीजेपी की संभावनाएं मतुआ बेल्ट पर टिकी हैं लेकिन रास्ते में खड़ी हैं ममता</p></div>
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CAA: बंगाल में बीजेपी की संभावनाएं मतुआ बेल्ट पर टिकी हैं लेकिन रास्ते में खड़ी हैं ममता

फाइल फोटो

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भारतीय जनता पार्टी (BJP) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने रणनीतिक रूप से लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) को लागू किया. यह फैसला पश्चिम बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य पर गहरी छाप छोड़ता है. चार साल पहले CAA के अधिनियमित होने के बावजूद CAA को अधिसूचित करने में बीजेपी की सोची-समझी देरी एक ताकतवर चुनावी हथियार के रूप में इस विधायी कदम के महत्व को दर्शाती है.

बंगाल के राजनीति समीकरण पर नजर डालें तो बीजेपी की नजर पूरी तरह से मतुआ समुदाय पर टिकी हुई है. इस समुदाय का भरोसा जीतने के साथ-साथ बीजेपी राजवंशी समुदाय से भी समर्थन की आस लगाए हुए है. 2019 के लोकसभा चुनाव में इन समुदायों में CAA को लेकर बीजेपी को समर्थन साफ देखा गया है. बीजेपी को भी इन समुदायों से काफी लाभ मिला.

फिर भी भले ही बीजेपी इन समुदायों के भीतर समर्थन बढ़ाने की रणनीति बना रही है, लेकिन पश्चिम बंगाल में CAA के प्रभाव का दायरा सीमित है. बंगाल में CAA लागू होने के बाद बीजेपी को 6-8 निर्वाचन क्षेत्रों में फायदा मिलने का अनुमान है. यानी चुनावी लाभ लेने की हैसियत से बंगाल में CAA का दायरा स्थानीय लाभ देते दिखता है.

हालांकि, निडर खड़ीं सीएम और TMC सुप्रीमो ममता बनर्जी की ताकत हमारे सामने एक एक मजबूत काउंटर प्वाइंट रखती है. विरोधियों को लामबंद करते हुए ममता CAA के माध्यम से बीजेपी के आक्रामक हिंदुत्व एजेंडे को भुनाने के लिए तैयार हैं, जिससे बंगाल की मुस्लिम आबादी को TMC के पक्ष में एकजुट किया जा सके.

2021 के बंगाल विधानसभा चुनावों की आवाज आज भी गूंजती है, जहां विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ ममता के अडिग रुख ने मुस्लिम समर्थन को मजबूत किया था. इस सामने आने वाले नैरेटिव में उनकी कुशल पैंतरेबाजी मुस्लिम समर्थन को मजबूत करने का वादा करती है, जो बाकी समुदायों में बीजेपी के प्रयासों के लिए एक शक्तिशाली खंडन के तौर पर काम करती है. 

विवाद की इस कड़ी में असली विजेता केवल विधायी जीत ही नहीं बल्कि नेतृत्व की गूंज और सांप्रदायिक एकजुटता की नब्ज को तय करेगा. 

मतुआ और राजबंशियों का अतीत

मतुआ और राजबंशी पश्चिम बंगाल में दो महत्वपूर्ण समुदाय हैं. दोनों समुदाय राज्य के राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. मतुआ समुदाय की बांग्लादेश से विभाजन के दौरान या बाद के सालों में भारत आए थे. वे मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल के सरहदी जिलों में बस गए. राज्य में दूसरी सबसे बड़ी ‘निचली’ जाति नामशूद्र समुदाय के मतुआ भारतीय नागरिकता की मांग कर रहे हैं. 

उनकी धार्मिक पहचान और ऐतिहासिक संबंध उन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के आसपास चर्चा का केंद्र बिंदु बनाते हैं. बीजेपी ने अपने 2019 के चुनावी घोषणापत्र में उन्हें नागरिकता देने का वादा किया था और CAA की हालिया अधिसूचना का मकसद उस वादे को पूरा करना है. 

TMC ने भी मतुआ समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए उनके साथ सक्रिय रूप से काम किया है. मतुआ समुदाय के वोट चुनावी परिणामों को अहम प्रभाव रखते हैं और उनके वोटों से चुनाव के नतीजे प्रभावित हो सकते हैं, खासकर उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां वे बसे हुए हैं.

दूसरी ओर राजबंशी समुदाय अनुसूचित जाति (SC) श्रेणी का हिस्सा है और ऐतिहासिक तौर पर पश्चिम बंगाल में रहते आ रहे हैं. वे राज्य के उत्तरी हिस्से में ज्यादातर रहते हैं. राजबंशी समुदाय की एक विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है. इनका लोक परंपराओं और संगीत काफी योगदान रहा है. 

बंगाल की राजनीति में राजबंशी समुदाय के वोट काफी महत्व रखते हैं, खासकर उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां उनकी आबादी काफी है.

राजनीतिक दल सक्रिय रूप से चुनावी परिणामों पर उनके प्रभाव को पहचानते हुए उनके समर्थन को स्वीकार करते हैं.  बीजेपी के CAA मुद्दे ने उन्हें 2019 के लोकसभा और 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में समुदाय का समर्थन हासिल करने में मदद की थी.

बीजेपी की रणनीति क्या है?

पश्चिम बंगाल की राजनीति में मतुआ और राजबंशी समुदाय एक वक्त पर वामपंथी दलों के समर्थन में खड़े रहते थे. उनकी वफादारी वैचारिक एकजुटता के ताने-बाने में बुनी हुई थी. फिर भी टीएमसी और ममता बनर्जी के उदय के साथ पूरे परिदृश्य में बदलाव की बयार चली जिसने पूरे ताने-बाने को बदल दिया.

ममता ने पारंपरिक मानदंडों को नजरअंदाज करते हुए मतुआ महासंघ की मातृसत्ता के साथ सीधे संवाद की. इसे श्रद्धा से बोरो मा के नाम से जाना जाता है. इस श्रद्धेय व्यक्ति के आशीर्वाद और मतुआ समुदाय के जरिए उथल-पुथल लाने वाला बदलाव आया. इस बदलाव ने ममता और बोरो मा समेत मतुआ समुदाय को मजबूती से जोड़ दिया. इस मौके का फायदा उठाते हुए ममता बनर्जी ने बोरो मा के वंश के कई सदस्यों को चुनावी राजनीति के दायरे में लाना शुरु किया. इसके लिए ममता बनर्जी ने उनसे पारिवारिक रिश्ते और राजनीतिक संरक्षण जैसे कदम से अपनी ओर कर लिया.

हालांकि, ममता और मतुआ समुदाय का रिश्ता 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उतार-चढ़ाव की स्थिति में पहुंच गया, क्योंकि इस साल बीजेपी ने अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया था. केंद्र की सत्ता में बैठी पार्टी के लिए मतुआ समुदाय को अपनी ओर लाने के लिए नागरिकता के लिए सदियों पुरानी याचिका एक विकल्प थी, इसलिए पार्टी ने उनकी मांगों को स्वीकार कर लिया. इस वजह से ही मतुआ समुदाय के लोग बीजेपी के पाले में आने लगे.

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संसद के प्रतिष्ठित हॉल से लेकर बंगाल हार्टलैंड के जमीनी इलाकों तक प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य में बीजेपी के कैडर ने मतुआ और राजबंशी समुदायों को पूरे जोश के साथ आकर्षित करते हुए एक अभियान शुरु किया. उनके प्रयास कुछ चुनावी क्षेत्र में फलदायी रहे, जैसा कि 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान राणाघाट और बोनगांव जैसे प्रमुख निर्वाचन क्षेत्रों में बीजेपी की जीत से पता चलता है.

नादिया जिले और उत्तर 24 परगना के साथ-साथ मतुआ समुदाय का बोलबाला बनगांव, राणाघाट, कृष्णानगर, बनगांव उत्तर और बैरकपुर जैसे महत्वपूर्ण निर्वाचन क्षेत्रों में है. बीजेपी की आकांक्षाएं केवल चुनावी जीत से परे है. बीजेपी चाहती हैं वह इस समुदाय में अपनी पकड़ बनाते हुए व्यापक जीत हासिल करें. बीजेपी मतुआ प्रभाव के इन गढ़ों पर नजरें रखी हुई है.

इसी तरह पश्चिम बंगाल के उत्तरी इलाकों में कूच बिहार, जलपाईगुड़ी और अलीपुरद्वार जैसे लोकसभा क्षेत्र राजबंशी समुदाय के लोगों की मौजूदगी है. पिछली चुनावी जीत से उत्साहित बीजेपी इन क्षेत्रों में अपनी सफलता को दोहराने की महत्वाकांक्षा रखती है. लेकिन ये महत्वाकांक्षा राजबंशी समुदाय के व्यापक समर्थन से उपजी है.

ममता बनर्जी का क्या?

फिर भी बीजेपी के उत्साह के इस कोलाहल के बीच एक बारीक वास्तविकता भी सामने आती दिखती है. मतुआ समुदाय का एक वर्ग ममता के प्रति वफादार है. वे ममता के विजन और नेतृत्व पर भरोसा भी करते हैं. ऐसा इसलिए भी क्योंकि कई बीजेपी विधायक TMC में शामिल हुए हैं और इसे ममता के प्रति मतुआ समुदाय की वफादारी का प्रतीक के तौर पर देखा जा सकता है. ये विधायक मतुआ समुदाय के भीतर के दरारों को सामने लाते हैं.

मतुआ समुदाय के कद्दावर नेता जैसे मुकुट मणि अधिकारी और बिस्वजीत दास का अपने इलाके में प्रभाव है. उनका काफी सम्मान भी किया जाता है. जबकि मतुआ महासंघ के ठाकुर परिवार की वंशज ममता बाला ठाकुर ने ममता को समर्थन दिया है.

हालांकि 2021 के विधानसभा चुनावों में TMC की हालिया चुनावी जीत अशांति और असंतोष की वजह से धूमिल हो गई थी. हिंसा और भ्रष्टाचार के आरोपों ने ममता के कार्यकाल पर सवाल खड़े किए हैं. इससे अल्पसंख्यक समुदायों के बीच उनके समर्थन आधार को खत्म करने का खतरा पैदा हो गया है. 

फिर भी CAA की अधिसूचना के मद्देनजर ममता बनर्जी प्रतिरोध की एक किरण के रूप में उभरी है, कानून के खिलाफ उनका रुख मुस्लिम समुदाय के भीतर आवाज बनकर गूंज रहा है.

विवाद की इस घड़ी में बंगाल का मुस्लिम मतदाता खुद को एक चौतरफा राह पर खड़ा पाता है. जो अपनी पहचान और लंबे वक्त से चली आ रही ममता बनर्जी के लिए अपनी वफादारी के भंवर में फंसा हुआ है. CAA के लागू होने से अल्पसंख्यक समुदायों ममता के समर्थन एकजुट होने के लिए मजबूर होंगे. जैसे ही जंग की रेखाएं खींची जाती हैं और वफादारों की ऐसे ही वक्त में खुद को साबित करना होता है, वैसे ही इस वक्त ममता बनर्जी राजनीतिक लामबंदी के एक नए युग के मोर्चे पर खड़ी हैं. ये मोर्चा समावेशिता और एकजुटता का नजरिया पेश करती हैं. ये पक्षपातपूर्ण बयानबाजी की संकीर्ण सीमाओं को पार कर जाती है.

[लेखक सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त), कोलकाता में पत्रकारिता पढ़ाते हैं, और एक स्तंभकार हैं (वह @sayantan_gh पर ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.]

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