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कारगिल की ऊंची चोटियों पर पाकिस्तानी घुसपैठ की कार्रवाई ने 1999 में भारत को आश्चर्यचकित कर दिया था, जिससे कथित खुफिया विफलता की चर्चा ज्यादा हुई. घुसपैठियों को बाहर निकालने में लगभग दस सप्ताह लग गए, इसमें काफी सैनिक शहीद हुए. लेकिन शायद ही कभी ये जानकारी में आता है कि इसके बाद से सरप्राइज फैक्टर ने भारतीय कमांडरों के दिमाग पर किस हद तक असर करना शुरू कर दिया.
अगस्त 1999 में ही हम कारगिल -2 हमले के लिए कश्मीर के हर कोने-कोने का फिर से आकलन कर रहे थे. ज्यादातर वरिष्ठ कमांडरों का सोचना था कि ये निश्चित रूप से होगा. शुरू में कुछ लोगों ने तो अक्टूबर 2013 में कुपवाड़ा में एलओसी पर बड़े पैमाने पर आतंकवादी गतिविधि का मूल्यांकन भी कारगिल -2 के रूप में किया था.
ठीक एक साल पहले 14 फरवरी 2019 को हुआ पुलवामा हमला सबसे भयावह घटना थी. तब एक 20 वर्षीय कश्मीरी आत्मघाती हमलावर ने 350 किलोग्राम आईईडी से भरी एक गाड़ी को कार बम के रूप में एक काफिले के हिस्से के रूप में चल रही सीआरपीएफ की एक बस टकरा दिया था.
'सरप्राइज फैक्टर' फिर एक बार बहुत ज्यादा था. यह अब तक की घटनाओं की धारा के विपरीत हुआ था. पहला, शायद ही कश्मीर में अतीत में कार बम हमलों का इतिहास रहा है. ऐसे केवल 3 हमले आज तक हुए थे, जिनमें आखिरी 2004 में हुआ था. दक्षिण कश्मीर में कट्टरपंथ बढ़ने और आत्मघाती हमलावर के संभावित खतरे के बारे में कुछ पूर्वाभास दिया गया था, लेकिन ये पर्याप्त नहीं था.
दूसरा, घुसपैठ पर नियंत्रण और घाटी में आवाजाही पर सख्त निगरानी के बावजूद एक स्थान पर 350 किलोग्राम उच्च विस्फोटक को पहुंचाना बहुत ही असंभव माना जाता है. फिर भी यह हुआ, हमारे लिए ये एक आश्चर्य की बात है.
जो लोग इस तरह के संघर्ष की गतिशीलता को जानते हैं, वे हमेशा समझते हैं कि बड़ी हिंसा की आश्चर्यजनक घटनाओं को पूरी तरह रोक पाना असंभव है.
आखिरकार, 9/11 के हमले में केवल 19 आतंकवादी शामिल थे. जिनके खिलाफ दुनिया की सबसे हाई प्रोफाइल खुफिया एजेंसियां लगी हुईं थी और ब्रसेल्स, लंदन और पेरिस तक आईएसआईएस को रोकने के काम में लगे थे. बिना किसी नकारात्मक घटना के हर दिन बीत जाना हाई प्रोफाइल खुफिया एजेंसियों के लिए भी एक तरह की उपलब्धि होती है. इस तरह किसी भी खतरे के विश्लेषण में विचार करने के लिए सरप्रइज हमेशा एक प्रमुख कारक रहेगा.
तो क्या पुलवामा -2 निकट भविष्य में कभी भी हो सकता है?
एक पेशेवर सैन्य खुफिया मूल्यांकन इस मुद्दे पर तीन पहलुओं-पाकिस्तानी के इरादे, उपलब्ध संसाधनों और समग्र परिदृश्य पर संभावित प्रभाव की जांच करके कोई नतीजा निकालेगा.
भारत के खिलाफ संघर्ष के इतिहास में 1965 का भारत-पाक युद्ध, पूर्वी पाकिस्तान (बाद में बांग्लादेश) में नरसंहार का करना, जिसे 1971 में भारत से चुनौती दी गई, 1989 में कश्मीर की स्थिति, 1999 का कारगिल संघर्ष, संसद पर 2001 में हमला, मुंबई आतंकी हमला- 2008 और उरी आतंकी हमला- 2016 और पुलवामा 2019 हैं. इन घटनाओं के बीच में कई और घटनायें भी हैं.
अतीत में प्रॉक्सी वॉर की स्थिति में पाकिस्तान का आकलन और धारणा ये थी कि सरप्राइज और उच्च तीव्रता की घटनाओं के लिए भारत की सहनशीलता का स्तर बहुत ज्यादा था. कहीं न कहीं एक गलत धारणा बन गई है कि पाकिस्तान के परमाणु हथियारों और पहले इस्तेमाल के परमाणु सिद्धांत से भारत को पूरी बेबस कर दिया गया है. भारत को किसी युद्ध के लिए उकसाने के लिए पाकिस्तान को बहुत बड़ी हरकत करने की जरूरत होगी.
एलओसी से संबंधित घटनाओं के जवाब में भारतीय सेना के एलओसी पार करके कार्रवाई करना 20 साल पहले आम बात थी और 10 साल पहले ये लगातार घटती गई. इसमें कोई संदेह नहीं है कि नीति के रूप में सामरिक स्तर की कार्रवाई से रणनीतिक प्रतिक्रिया पर सरकारी को ही फैसले का अधिकार है, लेकिन केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद ही ये पूरी तरह से प्रभाव में आया है.
2016 में सर्जिकल स्ट्राइक, पुंछ सेक्टर में 2017 में हल्का हमला और बालाकोट हवाई हमले से पाकिस्तान को साफ रूप से पता लग जाना चाहिए था कि भारत के लिये खतरे के निशान के मामले में सहनशीलता की सीमा बहुत हद तक कम हो गई है.
2016 से 2019 तक भारत की प्रतिक्रिया से पाकिस्तान के लिए जोखिम लगातार बढ़ता जा रहा है.
मौजूदा स्थिति में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था जिस खतरनाक हालत में पहुंच चुकी है, इसकी संभावना कम है कि वह भारत से टकराव का जोखिम मोल लेगा. हालांकि हम तर्कसंगति के मुद्दे पर भरोसा नहीं कर सकते, क्योंकि पाकिस्तानी सेना ने अपने इतिहास में हमेशा इसकी उपेक्षा की है.
क्या पाकिस्तान या उसके निकट सहयोगियों के पास पुलवामा के तरह की घटना को दोहराने के लिए संसाधन हैं? इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय सेना और पुलिस बलों का कश्मीर पर वर्चस्व आज बहुत अधिक गहरा है. वे खुफिया एजेंसियों के साथ अभी भी उस पारिस्थितिकी तंत्र को ध्वस्त करने में लगी हैं, जो समय-समय पर आतंकवाद को पुनर्जीवित करने में मदद करती है.
फिर भी यह याद रखना चाहिए कि पुलवामा के एक महीने के भीतर उसे दोहराने के एक संभावित प्रयास को रोक दिया गया था. उसी तरह से तैयार एक कार बम में खराबी पैदा हुई और संभावित हमलावर को दो दिन बाद पकड़ लिया गया.
वहां एक असहज संतुलन अस्तित्व में लगता है. अगर अगस्त 2019 के बाद से ऑपरेशन की तीव्रता और संख्या कुछ कम है, तो वहां कुछ तो जरूर हो रहा है. या तो खुफिया एजेंसियां कमजोर हो गईं हैं, जिनके स्रोत बढ़ते खतरे के कारण कम सक्रिय हैं, या आतंकवादियों और उनके नेताओं की ताकत में भारी कमी आई है. ऐसे परिदृश्य में एक बड़ी कार्रवाई मुश्किल होगी लेकिन ये असंभव नहीं है. ये वांछित प्रभाव स्पष्ट होना चाहिए.
यह पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की यात्रा के दौरान 19 मार्च 2000 के चित्तसिंहपुरा नरसंहार के समान एक कोई घटना भी होगी. ऐसा करना पाकिस्तान के योजनाकारों की तर्कहीनता से परे नहीं है. इस चेतावनी से यह भी साफ हो जाना चाहिए कि केवल एक संभावित आईईडी और पुलवामा के समान खतरों के बारे में सोचना एक गलत आकलन हो सकता है.
पाकिस्तान के डीप स्टेट की इच्छा उग्रवाद को बढ़ाना देना, भारत को अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती के लिए बाध्य करना, मानवाधिकारों के उल्लंघन के वास्तविक आरोप लगाने लायक परिस्थितियां बनाना और घुसपैठ की गुंजाइश को रोकने के लिए घुसपैठ रोधी बाड़ को मजबूत करने से रोकना है.
अंत में सावधानी केवल कश्मीर के लिए नहीं होनी चाहिए, जम्मू क्षेत्र तो उसके भीतर ही है, और ज्यादा दक्षिण में कठुआ और पठानकोट तक सतर्कता का दायरा बढ़ाते हुए हमारा फोकस संतुलित बना रहना चाहिए.
(लेखक आर्मी के 15 कॉर्प्स के पूर्व GOC हैं और अब कश्मीर यूनिवर्सिटी के चांसलर हैं. उन्हें @atahasnain53 पर संपर्क किया जा सकता है. ये एक ओपिनियन आर्टिकल है और यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं. क्विंट न ही इन विचारों के लिए जिम्मेदार है और न ही इनका समर्थन करता है.)
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