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आरके लक्ष्मण के कार्टून की एक यादगार तस्वीर जेहन में ताजा हो उठी है, जब भारत ने 1973 में पोखरण में अपना पहला सफल भूमिगत परमाणु परीक्षण किया था. इसमें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) को कोट-पैंट पहने पश्चिमी देशों के पुरुषों– जो विकसित देशों का प्रतीक हैं– से भरे कमरे में चलते हुए दिखाया गया था.
साड़ी पहने इंदिरा गांधी की नाक गर्व से ऊपर उठी है, लेकिन एक छड़ी के सहारे उनके कंधे पर भारत के भिखारियों की सांकेतिक कपड़े की गठरी लटकी है. प्रतिष्ठित परमाणु क्लब में भारत के शामिल होने की वह तस्वीर वैज्ञानिक घटनाओं की लंबी श्रृंखला में मील का एक पत्थर भर है.
अंतरिक्ष अभियानों की शुरुआत सन 1962 में हुई, जब इंदिरा के पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रॉकेट कार्यक्रम की अगुवाई करने वाले विक्रम साराभाई की निगरानी में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति (Indian National Committee for Space Research) की स्थापना की.
इस हफ्ते चंद्रयान-3 ( Chandrayaan-3) की सफल लैंडिंग– जो पूरी तरह भारतीय मून लैंडर मिशन है– हिचकोलों की दास्तान है, जो नाकामियों, मुश्किलों और गड़बड़ियों के अध्यायों से भरी है.
साल 1993 में जब कांग्रेस के पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे, इसरो का पहला पोलर सेटेलाइट लांच व्हीकल (PSLV-D1) लॉन्च किया गया था, लेकिन यह सेटेलाइट को ऑर्बिट में स्थापित नहीं कर सका.
साल 2001 में जब भारतीय जनता पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, भारी पेलोड ले जाने के लिए बनाए गए PSLV के बड़े रूप जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (GSLV) की पहली उड़ान नाकाम रही.
साल 2019 में नरेंद्र मोदी पीएम के कार्यकाल में ही चंद्रयान-2 अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सका. वैसे मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहने के दौरान चंद्रयान-1 (2008) और मार्स ऑर्बिटर मिशन (Mangalyaan, 2014) ने काफी हद तक अपने ऑर्बिटिंग मकसद हासिल कर लिए.
भारत के प्रधानमंत्रियों ने हर कदम पर साथ दिया और बदले में, वैज्ञानिकों ने भी नतीजे दिए, जिसकी कहानियों में अब साइकिल पर रखकर रॉकेट के पुर्जे ले जाने से लेकर मिशन कंट्रोल रूम में रंग-बिरंगी रेशमी साड़ियों का नजारा हर चीज पर चर्चा हो रही है.
जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) से लेकर नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) तक, चुनौतीपूर्ण हालात के बीच जूझारू इरादा और किफायती बजट का एक अजीब घालमेल भारत के वैज्ञानिक अभियान की खासियत रही है. दिल की गहराई में सहेजे ऐसे इरादे के लिए एक ही शब्द है- संकल्प.
नेहरू का अंतरिक्ष मिशन उसी साल शुरू हुआ, जब भारत को सरहद पर चीन के साथ लड़ाई में शर्मनाक हार मिली. यह भारत की नाकाम दूसरी पंचवर्षीय योजना पूरी होने के एक साल बाद आया था, जिसके बारे में आम धारणा है कि इस्पात उद्योग स्थापित करने के लिए लाई गई थी.
साल 1969 में स्वतंत्रता दिवस पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) बनाए जाने के बाद भारत की असल अंतरिक्ष यात्रा की शुरुआत अप्रैल 1974 में परमाणु परीक्षण के कुछ महीनों बाद हुई, जब देश का पहला उपग्रह आर्यभट्ट (Aryabhatta) लॉन्च किया गया. इसका नाम उस खगोलशास्त्री के नाम पर रखा गया जो ‘शून्य’ का आविष्कारक है. शून्य हर तरह के कंप्यूटर साइंस का गणितीय आधार है.
दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों को प्राथमिकता देने के लिए नेहरू की अक्सर आलोचना की जाती है. असल में कृषि प्रधान और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में कोई आर्थिक मेल नहीं था. लेकिन हमें रॉकेट साइंस की कामयाब कहानी के बीच शायद एक ऐसे प्रधानमंत्री की निंदा करने की जरूरत नहीं, जो बड़े पैमाने पर इस्पात बनाना चाहता था.
स्टील नहीं. तो धातु विज्ञान नहीं. तो रॉकेट नहीं. सीधी सी बात है.
राजनीतिक नुक्ताचीनी और भारत के अंतरिक्ष या परमाणु कार्यक्रमों को कार्टून में एक औकात से बाहर की अय्याशी के रूप में दिखाना पश्चिम का शगल रहा है, मगर भारत के खिलाफ उनकी टेक्नोलॉजिकल पाबंदियों से समझ में आता है कि मजाक के पीछे कुछ और भी है.
भरोसेमंद दस्तावेजों से पता चलता है कि नेहरू को गहरा यकीन था कि गरीबी और अशिक्षा जैसी समस्याओं को सिर्फ विज्ञान और टेक्नोलॉजी के प्रति अडिग प्रतिबद्धता से ही हल किया जा सकता है. उनके लिए भारत के एक विकासशील देश होने और विज्ञान के मोर्चे पर आगे बढ़ने के बीच कोई टकराव नहीं था.
आजादी के बाद जिस समय भारत पूरी शिद्दत से एक नया गणतांत्रिक संविधान बना रहा था और रक्तरंजित विभाजन के घावों से उबर रहा था, नेहरू ने 1947 और 1951 के दौरान प्रभारी मंत्री के तौर पर निजी रूप से वैज्ञानिक अनुसंधान की निगरानी की. दूसरे प्रधानमंत्रियों ने उनकी यह विरासत संभाली और तमाम रुकावटों के बावजूद इसे आगे बढ़ाया.
मुहावरों में रॉकेट का मतलब तेजी से आसमान में उड़ान भरना होता है, लेकिन भारत के अंतरिक्ष मिशन का इतिहास बताता है कि रॉकेट प्रोग्राम की जमीनी हकीकत मुहावरों से उलट है.
कंपनी ट्रैकिंग वेबसाइट एम्बिशन बॉक्स (Ambition Box) के अनुसार, औसत इसरो वैज्ञानिक का कुल सालाना वेतन 15 लाख रुपये से भी कम है, जो अमेरिकी डॉलर में लगभग 18,000 डॉलर पड़ता है. यह अमेरिका में मैकडॉनल्ड्स की फास्ट फूड की दुकान में काम करने वाले एक असिस्टेंट स्टोर मैनेजर के वेतन से भी बहुत कम है.
यह देखते हुए कि इन वैज्ञानिकों के पास वह कौशल और योग्यता है, जो अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा (NASA) में काम करने की योग्यता बराबर है, तो आप तय मानिये कि यह काम करने की लगन, जुनून और सरासर देशभक्ति है, जो इन लोगों को कड़ी मेहनत के लिए प्रेरित करती है.
लंबे समय तक टेक्नोलॉजी एडमिनिस्ट्रेटर के रूप में काम करने वाले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम रॉकेट विज्ञान के प्रति अपने भावनात्मक लगाव के चलते नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया.
कलाम इसरो के शुरुआती कर्मचारियों में से एक थे और उन्होंने भारत के पहले देश में डिजाइन किए और बनाए गए सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल, SLV-III के लिए परियोजना निदेशक के तौर पर कार्य किया था. वह बिना मोटे वेतन भुगतान के अच्छी वैज्ञानिक प्रतिभाओं को जुटाने में मददगार बने.
कोई अचंभा नहीं कि लोग क्रिस नोलन (Chris Nolan) की ब्रह्मांड के विषयों पर बनाई गई साइंस-फिक्शन फिल्मों से तुलना कर रहे हैं, जिनका बजट ‘100 प्रतिशत भारत में निर्मित’ 615 करोड़ रुपये के चंद्रयान-3 से कहीं ज्यादा होता था.
इंदिरा गांधी की अगुवाई में भारत के परमाणु क्लब में दाखिले पर लक्ष्मण के कार्टून को महात्मा गांधी से जोड़े जाने वाले गलत, लेकिन मशहूर उद्धरण के साथ बहुत सही जोड़ा गया है: “पहले वे आपको नजरअंदाज करते हैं. फिर वे आप पर हंसते हैं. फिर वे आप पर हमला करते हैं. फिर आप जीत जाते हैं” (First they ignore you. Then they laugh at you. Then they attack you. Then you win.)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनसे ट्विटर हैंडल @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. यह लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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