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लखनऊ, मुंबई PUBG कांड: आखिर हमारे बच्चे इतने हिंसक क्यों हो रहे हैं?

''गोली मारो %@# को''....जैसे नारे आम होने लगें, हिंसा भड़काने वाले नायक बनने लगें तो बच्चे क्या सीखेंगे?

माशा
नजरिया
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लखनऊ, मुंबई PUBG कांड: आखिर हमारे बच्चे इतने हिंसक क्यों हो रहे हैं?

फोटो- क्विंट हिंदी

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मुंबई (Mumbai) में एक 16 साल लड़के की खुदकुशी से जान चली गई. उसकी मां ने उसे ऑनलाइन गेम खेलने से मना किया था. मोबाइल ले लिया था. लखनऊ (Lucknow) में 16 साल के लड़के ने अपनी मां को बंदूक से मार डाला. मां बेटे की ऑनलाइन गेमिंग से परेशान थी. उसे खेलने के लिए मना करती थी. सो, लड़के ने गुस्से में आकर मां की हत्या कर दी. क्या इस हत्या को हम किसी आम अपराध की तरह देख सकते हैं?

क्या यह बाकी की हत्याओं जैसा ही है, जिसमें अपराधी बेवजह या वजह के साथ किसी को खत्म कर देता है. या यूं कहें कि किसी हत्या के पीछे का मनोविज्ञान क्या होता है, इसे समझना क्या आसान है? खासकर, किसी नाबालिग का किया हुआ अपराध, वह भी अपने सगे संबंधी के साथ किया हुआ अपराध.

इस दर्द भरी खबर के बाद तमाम चैनल्स और अखबारों में बचपन और मासूमियत की परतें उधेड़ी गईं. कहा गया कि आज का किशोर बेलगाम हो गया है. उसका सभ्यता-बोध शिथिल हो गया है, इसीलिए हत्या आसान हो गई है.

पुरानी पीढ़ी, अक्सर नई पीढ़ी को क्षुद्र और क्रूर, दोनों मानती है. अक्सर कहा जाता है कि अब समय पहले जैसा नहीं रहा. मोबाइल और ऑनलाइन गेमिंग ने किशोरों को अंधकार में धकेला है. पिछले कुछ सालों में क्रूरता की कीच फैल रही है. समाज की आत्मा इस गलाजत में सन गई है. लेकिन इसकी शुरुआत क्या बहुत पहले से नहीं हो गई थी?

समाज में नफरत बढ़ी है तो बच्चे क्यों उससे अलग होंगे

पिछले कुछ सालों में हमने अपने बच्चों को क्या दिया है, यह सोचने की जरूरत फौरी है. पिछले कुछ सालों में हिंसा जैसे समाज के पोर पोर से फूटकर बह रही है. जहां तहां सार्वजनिक मंच पर जनसंहार के ढीठ उकसावे दिए जाते हैं. 2017 का 6 दिसंबर का वह दिन शायद बहुतों को भूल गया होगा, जब राजस्थान के राजसमंद में शंभूनाथ रैगर ने लव जिहाद के नाम पर मालदा के एक मजदूर अफराजुल की कुल्हाड़ी से हत्या की थी और फिर उसके शव को जलाया था.

इस पूरे वाकये का वीडियो इंटरनेट पर वायरल हुआ था, और उस वीडियो को शूट करने वाला रैगर का 14 साल का भतीजा था. इसके बाद रैगर को गिरफ्तार तो किया गया लेकिन सैकड़ों की तादाद में लोग उसकी हिमायत में सड़कों पर उतरे और उदयपुर की अदालत के मुख्य दरवाजे पर भगवा झंडा फहराया गया.

सोचा जा सकता है कि आज हिंसा के सेलिब्रेशन में किशोरों को हिस्सा बनाया जा रहा है. निरपराधों के खिलाफ हिंसा का मंडिमामंडन हो रहा है. एक समुदाय को गोलियों से भूनने के नारों के बीच नेताओं की पदोन्नति हो जाती है

यानी आप जितना नीचे गिरेंगे, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर आपके ऊपर उठने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी. जब अपने ही लोगों के लिए इतनी घृणा, इतनी हिंसा, इतनी बेहिसी अपने जीवन को संवारने का सपना बन जाए तो किशोर अपना आदर्श किसे मानेंगे? जब ऐसे हिंसक, और हिंसा भड़काने वाले लोग हमारे युग के नायक होंगे तो किशोरों से समाज की नैतिकता को बचाए रखने की उम्मीद क्यों की जानी चाहिए.

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माता-पिता और परिवार वालों को पहले ही चेत जाना चाहिए

यूं नफरत और अपमान की कितनी ही कहानियां पिछले कुछ सालों में बराबर सुनी जा रही हैं. पिछले एक साल के दौरान दो बार ऐसा हुआ है कि बकायदा ऐप बनाकर मुसलमान औरतों की ऑनलाइन नीलामी की गई. पहले पिछले साल जुलाई में, और फिर इस साल की शुरुआत में.

जनवरी 2022 में ट्विटर पर एक आपत्तिजनक वेब ऐप बुल्ली बाई के स्क्रीनशॉट शेयर किए गए, जहां मुस्लिम महिलाओं की वर्चुअल नीलामी चल रही थी. इस ऐप के जरिए बहुत सी महिलाओं को निशाना बनाया गया था, जो ट्विटर पर ऐक्टिव हैं. इनमें पत्रकार, सोशल वर्कर, स्टूडेंट और नामी हस्तियां शामिल थीं. इस ऐप पर कई बेनाम ट्विटर अकाउंट्स ने महिलाओं की पिक्चर्स अपलोड की, जिनके साथ में भद्दे कमेंट और आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई थीं.

हम खुद को उदारमना बहुसंख्य़क मानते हैं, इसलिए इसे दूसरे साइबर अपराधों जैसे अपराध मान सकते हैं- यह बात और है कि इस अपराध में सिर्फ एक खास समुदाय को निशाना बनाया गया था. इससे भी खतरनाक बात कुछ और है.

मुसलमान औरतों की नीलामी के अभियुक्तों की उम्र देखकर माता-पिताओं और परिजनों को चेत जाना चाहिए. इस अपराध में 19 साल की हिंदू युवती और 21 साल के दो हिंदू युवक अभियुक्त थे. इन्हें गिरफ्तार तो किया गया लेकिन बाद में मुंबई की एक अदालत ने इन तीनों की जमानत मंजूर करते हुए कहा कि इन आरोपियों की ‘अपरिपक्व उम्र और नासमझी’ का दुरुपयोग किया गया था.

हर कुछ रोज़ पर इस क्षुद्रता का एक नया नमूना देखने को मिलता है. जब हम सबके घरों में हिंसा और अपराध पल रहा होगा तो क्या हमारे बच्चे इससे बच जाएंगे?

पर इसकी ट्रेनिंग तो हम खुद दे रहे हैं

बच्चों को हिंसा में हिस्सा ही नहीं बनाया जा रहा, उन्हें इसके लिए ट्रेन भी किया जा रहा है. ऑनलाइन गेमिंग को लानत देते हुए, हम खुद उनके हाथों में हथियार थमा रहे हैं. 2017 में दिल्ली में राष्ट्रीय सेविका समिति जोकि आरएसएस की महिला शाखा है, ने 15 दिनों का समर कैंप आयोजित किया था.

तब इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि इस कैंप में 50 स्कूली बच्चियों को चाकू, डंडे और तलवार चलाना सिखाया गया था. भले ही इसके लिए आत्मरक्षा की दुहाई दी गई थी. चिंता की बात यह है कि राष्ट्रीय सेविका समिति में एक शाखा बच्चियों की भी है, जिसका नाम है बाल सेविका. इसमें सात से 12 साल की बच्चियां शामिल हैं.

इसी तरह वीएचपी की महिला शाखा दुर्गा वाहिनी छोटी बच्चियों को ‘हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है’ जैसे नारे लगाने को प्रेरित करती है और यह दावा करती है कि अपने विश्वास के लिए वह किसी की जान भी ले सकती हैं. फिल्ममेकर निशा पाहूजा की 2012 की एक डॉक्यूमेंटरी है 'द वर्ल्ड बिफोर हर'. यह दो लड़कियों पर आधारित है जिसमें से एक दुर्गा वाहिनी के कैंप में शामिल थी. उसने बताया था कि कैसे कैंप में हिंसक नारे लगवाए जाते थे और हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी जाती थी.

ऐसे ही दिसंबर 2019 में कर्नाटक के एक स्कूल में 11वीं और 12 वीं के बच्चों ने बाबरी मस्जिद को तोड़ने और फिर वहां राम मंदिर बनवाने का नाटकीय रूपांतरण किया था. यह स्कूल एक आरएसएस नेता का है और इस कार्यक्रम में डीवी सदानंद गौड़ा सहित बीजेपी के कई बड़े नेता शामिल थे.

पिछले साल दिसंबर में सोनभद्र, उत्तर प्रदेश के एक स्कूल का वीडियो भी वायरल हुआ था, जिसमें बच्चे हिंदू राष्ट्र के सपने को पूरा करने के लिए ‘लड़ने, मरने और जरूरत पड़ी तो मारने’ की शपथ ले रहे थे. सुदर्शन न्यूज के एडिटर इन चीफ सुरेश चव्हाणके ने इस वीडियो को अपने ट्विटर हैंडिल पर शेयर किया था.

हिंसा किसी भी तरह की हो, बिल्कुल जायज नहीं है. लेकिन जिस जहर को हमने अपने बच्चों को थाली में परोस कर दिया है, उसी जहर का तीखा व्यंजन वे हमें सौंप रहे हैं. चूंकि यह जहर अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष शिक्षात्मक तरीकों से स्कूलों में पहुंचाया जा रहा है. इस हिंसा और घृणा ने राजनीतिक संस्कृति और सामाजिकता का निर्माण किया है. अब जनता को इसमें आनंद आ रहा है, और वह हिंसा की मांग करने लगी है.

बच्चे भी उसी समाज का अंग हैं. सोचना यह चाहिए कि जब हिंसा का समाज के दिलो-दिमाग पर पूरी तरह कब्जा हो जाएगा तो समाज खत्म हो जाएगा. यह आज कोई नहीं सोच रहा. फिर हमें नजर आएगा कि बहुत देर हो चुकी है और हिंसा ने समाज को परास्त कर दिया है. भारत क्या उसी रास्ते पर चल रहा है या उस बिंदु पर पहुंच चुका है? अगर इस पर सोच नहीं पा रहे तो बहस करते रहिए कि ऑनलाइन गेमिंग और पब्जी कैसे बच्चों को दिमाग भ्रष्ट कर रहे हैं, और फिर कवरट बदलकर इंस्टा रील्स में रम जाइए.

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