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अगस्त 2020 में आलाकमान को चिट्ठी लिखने वाले 23 कांग्रेसी नेता जब हाल ही में जम्मू में एक मंच पर नजर आए तो जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई. अभी छह महीने पहले ही इन नेताओं ने लिखित में कुछ मांगें रखी थीं. इनमें पार्टी के कामकाज में व्यापक बदलाव और एक फुल टाइम लीडरशिप की बात कही गई थी. बेशक, कांग्रेस के इतिहास में यह एक ऐतिहासिक पल था लेकिन इसे लगभग नजरंदाज ही कर दिया गया था.
इसके जवाब में सिर्फ इतना भर हुआ था कि कांग्रेस वर्किंग कमिटी (सीडब्ल्यूसी) की एक छोटी सी बैठक हुई. दिसंबर 2020 में एक क्लोस्ड डोर सेशन भी हुआ था, जिसमें पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को राहुल गांधी के गुस्सा का शिकार होना पड़ा. लेकिन इस पर भी शीर्ष नेतृत्व ने कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दी थी.
2014 में जब कांग्रेस को चुनावी शिकस्त का सामना करना पड़ा, संगठन में नाखुशी साफ नजर आई. राहुल गांधी ने भी उस पद को संभालने से इनकार कर दिया जिसके लिए उन्हें बरसों से तैयार किया जा रहा था. लेकिन यह सब गुपचुप ही होता रहा. पिछले साल असंतोष की चिट्ठी ने उस चुप्पी को तोड़ा. कांग्रेस नेता एहतियात बरतने के लिए जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने नतीजे की चिंता किए बिना एक साथ मिलकर अपनी नाराजगी जाहिर कर दी.
बेशक चिट्ठी में 23 नेताओं ने दस्तखत किए थे लेकिन करीब 300 सीनियर नेता उनके साथ थे. जैसा कि पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं. कई नेताओं ने बातचीत में यह खुलासा किया. उन्होंने बताया कि जो लोग इस चिट्ठी के खिलाफ भी थे, उनमें से भी बहुत से नेता इसके कंटेंट से इत्तेफाक रखते थे. यहां तक पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम, जिनका नाम और दस्तखत इस चिट्ठी में नहीं था, ने सीडब्ल्यूसी की बैठक के बाद कहा था, “जिन्होंने ये चिट्ठी लिखी है, वे भी भाजपा के उतने ही बड़े विरोधी हैं, जितने कि मैं या राहुल गांधी... और फिर अगर असंतोष नहीं होगा तो बदलाव भी नहीं होगा.”
हैरानी नहीं है कि जम्मू में जी 23 में से आठ नेताओं की मौजूदगी से कई किस्म के कयास लगाए गए. बहाना राज्यसभा से रिटायरमेंट पर गुलाम नबी आजाद को बधाई देना था.
जी-8 ने सार्वजनिक मंच पर दुख जताया है जोकि जी-23 के बाकी नेताओं से अलग है. चूंकि बाकी नेताओं को किसी न किसी तरह पिछले साल पार्टी में जिम्मेदारी वाले पद दे दिए गए थे. पर इन आठ नेताओं को यूं ही मंझधार में छोड़ दिया गया था.
बेशक, यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के दम तोड़ने का किस्सा है. कैसे कुछ को महसूस हुआ कि कम प्रतिभाशाली लोगों को उनसे ज्यादा तवज्जो दी गई. लेकिन यह सिर्फ इतना भर नहीं है. दरअसल यह कहानी एक ऐसी राजनैतिक पार्टी की है, जो झंझावत में फंसे टूटे फूटे जहाज सरीखी है. अपना रास्ता भटक चुकी है- चूंकि उसकी कमान संभालने वाला कोई नहीं. कांग्रेस नेतृत्व के संकट से जूझ रही है. यह उस विपक्षी पार्टी की कहानी भी है जो तमाम मौकों का फायदा नहीं उठा पा रही.
आनंद शर्मा ने जम्मू में सबसे जोरदार भाषण दिया था. उन्होंने कहा था कि “हम लोग कांग्रेस के सह मालिक हैं, किराएदार नहीं.” चिट्टी लिखने वालों में उनकी अहम भूमिका थी. उन्होंने इस हफ्ते इस लेखक को बताया कि “संसद में व्यक्त विचारों के मद्देनजर” उन लोगों ने गुलाम नबी आजाद का साथ दिया ताकि एकजुटता नजर आए...लेकिन हम हालात को नजरंदाज नहीं कर सकते. हमें सच्चाई का सामना करना ही होगा. कांग्रेस कमजोर हो गई है. पार्टी में सतुलन कायम होना जरूरी है, उसे मजबूती दी जानी चाहिए, उसमें नई जान फूंकनी चाहिए. ताकि हम भाजपा और दूसरी सांप्रदायिक ताकतों का मुकाबला करने के लिए एक जैसे सोच वालों को एक मंच पर ला सकें.”
सार्वजनिक तौर पर आनंद शर्मा ने पश्चिम बंगाल में इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ कांग्रेस-लेफ्ट गठजोड़ के समझौते की निंदा की थी. इस फ्रंट की कमान फुरफुरा शरीफ दरगाह के मुख्य मौलवी ने संभाली है. उन्होंने ट्विट करके कहा था कि कांग्रेस का आईएसएफ जैसी पार्टियों से गठबंधन... पार्टी की मूल विचारधारा, और गांधीवादी, नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है.
उन्होंने कहा था, “लेकिन जिस दिन आपने लोकसभा में अधीर रंजन चौधरी को कांग्रेस का नेता बनाया, उसी दिन तृणमूल कांग्रेस के दरवाजे अपने लिए बंद कर दिए.”जी-8 के एक और नेता ने इस बात की पुष्टि की थी.
यूं जब कांग्रेस में चुनावी रणनीतियों पर फैसले लिए जाते हैं तो उन पर केंद्रीय स्तर पर कोई बातचीत नहीं होती. अगर ऐसा हो तो एक समग्र नजरिया मिलेगा. पर इसकी बजाय यह फैसला राज्य की स्थानीय इकाई के जिम्मे छोड़ दिया जाता है. जैसा कि पश्चिम बंगाल में पूरी कमान अधीर रंजन चौधरी के हाथों में है. उनका झगड़ा मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से है और वह बड़ी, व्यापक तस्वीर नहीं देख पा रहे.
सिर्फ इसी एक मामले से नहीं पता चलता कि कांग्रेस में फैसले कैसे लिए जाते हैं. जब भी नीतिगत फैसले लेने की बारी आती है, पार्टी की रणनीति तय करने का मौका आता है, या किसी विषय पर सामूहिक राय लेने का मामला होता है, तो उसमें सभी को शामिल नहीं किया जाता. बताया गया कि इस स्थिति पर अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी कुछ खफा जरूर हुईं लेकिन अब उनकी ज्यादा चलती नहीं. अब राहुल गांधी और पार्टी में उनके अनाड़ी सलाहकार ही बॉस बने हुए हैं.
पार्टी प्रवक्ताओं ने उन्हें ‘अयोग्य’ और ‘नाशुक्रे’ कहकर एक खेमे में अटा दिया है. लेकिन कांग्रेस में जबरदस्त बदलाव की मांग करने वाले सभी नेता क्या किसी एक समूह या वर्ग के हैं? वे तो अलग-अलग उम्र के हैं, देश के अलग-अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, सभी की पृष्ठभूमियां भी अलग-अलग हैं. आजाद, शर्मा, मुकुल वासनिक और मनीष तिवारी ने यूथ कांग्रेस से यहां तक का सफर तय किया है.
कपिल सिब्बल और शशि थरूर ने अपनी क्षमता के बल पर पार्टी में जगह बनाई है. पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा और पृथ्वीराज चव्हाण राजनैतिक परिवारों से हैं. वीरप्पा मोइली की पृष्ठभूमि ग्रामीण है और रजिंदर कौर भट्टल ने क्षेत्रीय राजनीति में अपनी अच्छी खासी साख कमाई है.
इन नेताओं में मिलिंद देवड़ा और जितिन प्रसाद जैसे दूसरी पीढ़ी के नेता भी हैं जिन्हें कभी राहुल गांधी का काफी करीबी माना जाता था. इन्होंने चिट्ठी में इस सिलसिले में नाखुशी जताई थी कि उन्हें पार्टी में सक्रिय भूमिका नहीं दी गई है.
ऐसी नाराजगी भरी चिट्टी से यही पता चलता है कि ये नेता पार्टी के नेतृत्व से संतुष्ट नहीं हैं.
सोनिया गांधी अपने बेटे से अलग इस समस्या का हल चाहती हैं. उन्होंने 19 दिसंबर 2020 को कांग्रेस की स्पेशल मीटिंग रखी ताकि इन नेताओं के साथ सुलह की जा सके. लेकिन ये नेता उस चिट्ठी पर भी चर्चा करना चाहते थे. सोनिया गांधी ने सहमति जताई क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि इतने सारे सीनियर नेता अलग-थलग पड़ जाएं. खास तौर, जब उनकी स्थिति इतनी नाजुक है.
पांच घंटे चली इस बैठक में सोनिया ने इस बात पर जोर दिया कि पार्टी को मजबूत करने के लिए मिलकर काम करना जरूरी है. चिट्ठी लिखने वालों ने आंतरिक चुनावों की मांग पर संतुलन बनाया और नेहरू-गांधी परिवार और पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा का वचन दोहराया.
और अगर सोनिया गांधी उस बैठक में शांतिदूत बनने की कोशिश करती रहीं तो राहुल ने कमलनाथ और चिदंबरम पर हमले किए.
“आपको लगता है कि आप मुख्यमंत्री थे लेकिन सच तो यह है कि राज्य को आरएसएस चला रही है जोकि नौकरशाही भी घुस चुकी है.” उन्होंने कमलनाथ से कहा. जबकि कमलनाथ चिट्ठी लिखने वालों में नहीं थे. बल्कि वह तो बैठक में मुख्य मध्यस्थ थे.
राहुल गांधी ने चिदंरबरम को भी किनारे लगा दिया. उन्होंने कहा कि तमिलनाडु में कांग्रेस किसी गिनती में नहीं है और वहां द्रविण मुनेत्र कषगम (डीएमके) ही असली खिलाड़ी है.
तो यह सब कैसे खत्म होगा? आने वाले महीनों में जब चुनावी नतीजे आएंगे तभी पता चलेगा कि ऊंट किस करवट बैठता है.
अगर राहुल गांधी के नेतृत्व में केरल, असम में जीत मिलती है, पुद्दूचेरी वापस मिल जाता है, तमिलनाडु में गठबंधन जीत जाता है तो असंतुष्ट गुट खुद परदे के पीछे चला जाएगा. लेकिन अगर कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहता है तो स्थिति बदल जाएगी. पार्टी में संकट मोचन नेताओं की भारी कमी है. सोनिया गांधी के सबसे बड़ा तारणहार अहमद पटेल की मौत हो चुकी है. आजाद को असंतुष्टों की कतार में धकेल दिया गया है. तीसरे कमलनाथ की राहुल गांधी से नही बनती, जिन्हें यह काम सौंपा जा सकता था.
वैसे यह फौरी हल है.
लंबे समय के हल के लिए पार्टी को संगठनात्मक चुनाव कराने होंगे. इन चुनावों में क्या राहुल गांधी अध्यक्ष पद के लिए लड़ेंगे? अगर वह ऐसा करते हैं तो शायद ही कोई उनका विरोध करे. लेकिन अगर वह डमी उम्मीदवार को खड़ा करते हैं, जैसा कि कहा जा रहा है, तो जी-8 या जी-23 में कोई न कोई उन्हें चुनौती दे सकता है.
सीडब्ल्यूसी या दूसरे स्तरों पर चुनावों की मांग होती रहेगी, संसदीय बोर्ड की मांग भी जारी रहेगी. अगले महीने चुनावों के अच्छे नतीजों से यह संकट सिर्फ कुछ दिनों तक टाला जा सकता है, और कुछ नहीं.
(स्मिता गुप्ता एक सीनियर जर्नलिस्ट हैं और द हिंदू, आउटलुक, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के साथ काम कर चुकी हैं. वह ऑक्सफोर्ड रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की पूर्व फेलो हैं. वह @g_smita पर ट्विट करती हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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