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काउंटरव्यू: बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस को हिंदू ‘तुष्टिकरण’ की जरूरत नहीं

Congress के कई नेता चाहते हैं कि पार्टी आगामी चुनाव प्रचार के दौरान नरम हिंदुत्व को आक्रामक तरीके से पेश करे.

सुतानु गुरु
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>काउंटरव्यू: बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस को हिंदू ‘तुष्टिकरण’ की जरूरत नहीं</p></div>
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काउंटरव्यू: बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस को हिंदू ‘तुष्टिकरण’ की जरूरत नहीं

(फोटो- प्रियंका गांधी/द क्विंट)

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लोकसभा चुनाव 2024 से पहले, तीन राज्यों - राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी (Congress-BJP) के बीच दो-तरफा लड़ाई होगी. मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) में कांग्रेस नेताओं कमलनाथ (Kamalnath) और प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) के हाल के कदमों को देखकर लगता है कि वो हिंदू ‘तुष्टिकरण’ को एक चुनावी अभियान के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं. इसके बाद से कांग्रेस की इस 'नरम हिंदुत्व' रणनीति की उपयोगिता और व्यावहारिकता पर बहस शुरू हो गई है.

इस तरह की रणनीति से पार्टी को कोई मदद मिलने वाली नहीं है, साथ ही यह रणनीति लंबी अवधि में नुकसानदेह भी साबित होगी. आइए इसके खिलाफ जो तर्क हैं, उसके बारे में बात करते हैं.

जिन राज्यों में चुनाव हो वहां कई तरह के हिंदू आध्यात्मिक नेताओं के साथ मंदिरों में जाना और फोटो खिंचवाना आजकल नेताओं के लिए आम बात हो गई है. ऐसे में इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं की प्रियंका वाड्रा ने जैसे ही मध्य प्रदेश के वोटरों के लिए कांग्रेस के पांच चुनावी वादे जारी किए उसके फौरन बाद उज्जैन में महाकाल मंदिर गईं.

सीएम शिवराज सिंह चौहान से सत्ता की कुर्सी वापस लेने की चाहत रखने वाले मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ पुजारियों के साथ मेल-मिलाप कर रहे हैं और सत्ता में वापसी पर राज्य के सभी मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का वादा कर रहे हैं.

नरम हिंदुत्व का नया प्रयोग

कांग्रेस के लिए नरम हिंदुत्व का यह नया प्रयोग है. 2014 की लोकसभा में हार के बाद एके एंथनी की रिपोर्ट में कथित तौर पर कहा गया है कि औसत हिंदू मतदाता ने कांग्रेस को "मुस्लिम" पार्टी मानना शुरू कर दिया था. तब से ही बीजेपी के चुनावी रथ को रोकने के लिए "जनेऊधारी" हिंदू बनने और इसके बारे में बड़ी बड़ी बातें करना, कांग्रेस नेताओं का आदर्श वाक्य बन गया है. कांग्रेस के कई नेता चाहते हैं कि मध्य प्रदेश में आगामी चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी इस नरम हिंदुत्व को और भी आक्रामक तरीके से पेश करे.

फिर भी, चुनावी आंकड़े और सामान्य ज्ञान की एक स्वस्थ खुराक से पता चलता है कि मध्य प्रदेश को जीतने के लिए कांग्रेस को वास्तव में हिंदू "तुष्टिकरण" की आवश्यकता नहीं है. बल्कि, यह अन्य राज्यों में मुस्लिम मतदाताओं को कांग्रेस से दूर कर सकती है, जहां वोटर्स के पास एक क्षेत्रीय पार्टी का व्यवहारिक विकल्प होगा.

2014 के बाद राज्य के चुनावों में कांग्रेस का रिकॉर्ड

अब जरा 2014 के बाद जो चुनाव हुए हैं और जिनको कांग्रेस ने जीता है उन पर नजर डालते हैं. 2017 में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में पंजाब में कांग्रेस को शानदार जीत मिली. वैसे भी पंजाब की राजनीति में हिंदुत्व की कोई भूमिका नहीं है.

इसने 2018 के अंत में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जीत हासिल की. कुछ विश्लेषक चाहे इसे जो भी बताएं लेकिन इसमें हिंदुत्व या इसके तथाकथित नरम हिंदुत्व की शायद ही कोई भूमिका थी. छत्तीसगढ़ में बीजेपी सरकार के खिलाफ 15 साल की सत्ता विरोधी लहर ने कांग्रेस को प्रचंड जीत दिलाई.

कांग्रेस को 2.7% वोट शेयर मिला, लेकिन बीजेपी के वोट शेयर में 8% से ज्यादा की गिरावट आई. राजस्थान में कर्नाटक और हिमाचल की तरह, हर पांच साल में सरकारें बदलती हैं. वैसे भी कांग्रेस का वोट शेयर बीजेपी से सिर्फ 1% ही ज्यादा था.

संशोधित चुनाव आयोग के मुताबिक मध्य प्रदेश में, दोनों पार्टियों का वोट शेयर लगभग समान था, जो 41.3% था. इन तीनों चुनावों में हिंदुत्व के किसी भी संस्करण की तुलना में एंटी-इनकंबेंसी और स्थानीय रोजी-रोटी के मुद्दों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई.

2019 के बाद, कांग्रेस ने 2022 के अंत में हिमाचल प्रदेश और मई 2023 में कर्नाटक में जीत हासिल की. यह भी रोजी-रोटी और स्थानीय मुद्दों का मसला था, जो चुनावों में हावी था. हिमाचल में पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने के कांग्रेस के वादे को मतदाताओं ने खूब सराहा.

कर्नाटक में तो सत्तारूढ़ बीजेपी शासन के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे और कांग्रेस के "फ्रीबी" के वादे ने काम किया. अगर देखा जाए तो कर्नाटक में कांग्रेस के अभियान में बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने का वादा किया गया था. कर्नाटक में किसी भी पैमाने पर नरम हिंदुत्व का नजरिया पार्टी ने नहीं अपनाया.

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कांग्रेस के लिए मुस्लिमों का वोट पैटर्न

पिछले तीन दशकों में मुसलमानों के मतदान रिकॉर्ड को देखने पर पता चलता है कि जहां बीजेपी के साथ कांग्रेस का सीधा मुकाबला है, वहां मुस्लिम कांग्रेस के लिए बढ़-चढ़कर मतदान करते हैं. वहीं, जहां कांग्रेस के मुकाबले क्षेत्रीय दल शक्तिशाली हैं, मुस्लिम कांग्रेस के बजाय क्षेत्रीय दल को वोट करते हैं.

मुस्लिम मतदाता, अन्य भारतीय मतदाताओं की तरह, नासमझ नहीं हैं. वे उस पार्टी या उम्मीदवार को वोट देते हैं जो बीजेपी या उसके सहयोगियों को हराने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में हैं.

2019 में औरंगाबाद लोकसभा सीट का परिणाम इसका एक अच्छा उदाहरण है. कांग्रेस वहां इतनी कमजोर हो गई है कि वो चौथे नंबर पर आ गई. विजेता AIMIM के इम्तियाज जलील थे, जिन्होंने शिवसेना उम्मीदवार के खिलाफ लगभग 4000 वोटों के बहुत कम अंतर से जीत हासिल की.

उस हद तक, कर्नाटक में जेडीएस को बहुत सारे मुस्लिम वोट मिलते रहे हैं. वहां, कांग्रेस के हिंदुत्व विरोधी रुख ने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के वादे को मुस्लिम मतदाताओं के मन को अपनी ओर खींचा. मध्य प्रदेश में कहा जाए तो, मुस्लिम वोटर्स जानते हैं कि राज्य में कांग्रेस ही बीजेपी को हरा सकती है ना कि AIMIM, तो क्यों बेवजह नरम हिंदुत्व चुनावी रुख अपनाकर उन्हें अलग-थलग कर दिया जाए?

कांग्रेस को BJP की नकल करने की जरूरत नहीं

चार्ट को देखने से साफ हो जाता है कि लगभग 35% कोर समर्थकों पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों का पूरी तरह कब्जा है. हिंदू आध्यात्मिक नेताओं के साथ मेल-मिलाप करने से यह तथ्य नहीं बदलने वाला है. कई विश्लेषक भूल जाते हैं कि संघ परिवार 1960 के दशक से ही मध्य प्रदेश में एक जबरदस्त ताकत रहा है.

इमरजेंसी के बाद मध्य प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार वास्तव में जनसंघ की सरकार थी. फिर भी, कांग्रेस के लिए समर्थन बरकरार रहा है. 1993 में थोड़ा पीछे जाएं तो बाबरी मस्जिद गिराए जाने के कुछ महीने बाद ही मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे. हिंदुत्व का जोश अपने चरम पर था. फिर भी, कांग्रेस (40.7% वोट शेयर) ने बीजेपी (38.9% वोट शेयर) को हराया और सरकार बनाई. हिंदुत्व के साथ बेवजह खिलवाड़ करने से पहले पार्टी के नेताओं को उस चुनाव से सबक लेने की जरूरत है.

पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस का वोट शेयर 35% से नीचे सिर्फ 2003 में गया था. उस वक्त कांग्रेस का वोट शेयर 32% से कम हो गया था. लेकिन इसमें हिंदुत्व की कोई भूमिका नहीं थी. ऐसा तबके मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी लहर की वजह से हुआ था.

2013 के भारी नुकसान (36.8% वोट शेयर) में हिंदुत्व की भूमिका देखी गई. लेकिन ऐसा दिग्विजय सिंह की बयानबाजी "भगवा आतंक" के बारे में बात करने और 26/11 को RSS की साजिश बताने की वजह से हुआ. दिग्विजय सिंह के इस तरह के बयानों ने राज्य के मतदाताओं को बुरी तरह से नाराज कर दिया था.

साध्वी प्रज्ञा, जिन्होंने 2019 में भोपाल में दिग्विजय सिंह को हराया था. (3,65,000 की जीत का अंतर और 26% वोट शेयर का अंतर) वो MP से ही हैं.

अगर दिग्विजय सिंह जैसे नेता फिर से भगवा आतंक की बात करने लगें तो यह कांग्रेस के लिए राजनीतिक आत्महत्या होगी.

वहीं, पार्टी को दूसरे रास्ते पर झूलने और बीजेपी की नकल बनने की जरूरत नहीं है. BJP के खिलाफ एंटी-इनकंबेंसी कांग्रेस के पक्ष में है और 2018 की तुलना में वोट शेयर में थोड़ी सी भी बढ़ोतरी कमलनाथ को मुख्यमंत्री के रूप में वापस लाएगी.

(सुतनु गुरु CVoter Foundation के एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर हैं. यह एक ओपीनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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