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हाल के दिनों में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने जिस तरह मशहूर चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर को कांग्रेस (Congress) में शामिल करने की कोशिश की, वह हताशा का संकेत था. सोनिया चाहती थीं कि प्रशांत कांग्रेस के सदस्य भी बनें और चीफ डिसरप्टर भी. वह मौत के करीब जाने वाली पार्टी में दोबारा जान फूंकना चाहती थीं. दूसरी तरफ प्रशांत ने अंतिम प्रस्ताव ठुकरा दिया. उनसे कहा गया था कि वह पार्टी में शामिल होकर, 2024 के लिए गठित एम्पावर्ड ऐक्शन ग्रुप के सदस्य बन जाएं. इसे लेकर प्रशांत में झिझक थी. अपना फैसला उन्होंने एक ट्वीट के जरिए सुनाया.
उन्होंने कहा
आठ साल से कांग्रेस सत्ता से बाहर है. उसका जनमत आधार रोजाना थोड़ा थोड़ा टूट रहा है. वह बेबस, शुष्क सी खड़ी है. उसके कई सदस्य हरियाली की तरफ (यानी भगवा) पलायन कर चुके हैं. सोनिया के बेटे और वारिस राहुल गांधी (जो 16 दिसंबर 2017 से 3 जुलाई 2019 के बीच कुछ समय के लिए पार्टी अध्यक्ष रहे) में पार्टी की किस्मत को बदलने की न तो इच्छा दिखाई दे रही और न ही क्षमता. इसीलिए सोनिया को महसूस हुआ कि पार्टी को किसी प्रोफेशनल की मदद की जरूरत है.
राहुल गांधी 'जी 23' से दुश्मनी पाले बैठे हैं. ये जी 23, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का वह समूह जिन्होंने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को एक चिट्ठी लिखी थी. वह उस समय पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष थीं. चिट्ठी में यह लिखा था कि कांग्रेस को तुरंत और सक्रिय नेतृत्व, संगठनात्मक परिवर्तन की जरूरत है. लेकिन इस चिट्ठी ने पार्टी का कामकाज सुधारने में सोनिया की मदद नहीं की. 2019 के आम चुनावों में पार्टी की लगातार दूसरी हार के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. वह अमेठी की अपनी पारंपरिक सीट हार गए थे. इसके बाद सोनिया को अपना काम करना मुश्किल लगने लगा. वह रिटायर तो नहीं हुईं, पर पार्टी के टुकड़ों को समेटने की कोशिश करने लगीं. और राहुल ने महज एक सदस्य रहकर भी पद की ताकत का इस्तेमाल करना जारी रखा.
वैसे इससे पहले प्रशांत किशोर 2017 में कांग्रेस की आग में अपनी उंगलिया जला चुके हैं. तब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में वह कांग्रेस के सलाहकार थे. इसके बाद उन्होंने तय किया था कि जब तक उन्हें फ्री हैंड नहीं मिलता, तब तक वह कांग्रेस के लिए काम नहीं करेंगे. वह ऐसा पद चाहते थे, जिस पर वह सिर्फ सोनिया गांधी के प्रति जवाबदेह हों. वह एक ऐसे बड़े समूह का सदस्य नहीं बनना चाहते थे, जहां उनकी आवाज तमाम आवाजों के बीच दब जाए.
13-15 मई को उदयपुर में पार्टी का चिंतन शिविर होने वाला है. इसका मकसद विचार-मंथन और पार्टी की चुनौतियों का हल निकालना है. उम्मीद की जा रही है कि इस शिविर में नेतृत्व को वही पुरानी बातें सुनने को मिलेंगी. इस कार्यक्रम से कुछ हफ्ते पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा है कि देश एक नई कांग्रेस का गवाह बनने वाला है.
तो इस प्रकरण से कांग्रेस जैसी भव्य और पुरातन पार्टी के बारे में क्या पता चलता है?
बेशक, हाल के वर्षों में कांग्रेस ने दूसरी राजनैतिक पार्टियों के लिए जगह खाली की है. इसके अलावा वह वैचारिक रूप से लगातार खोखली हो रही है.
पिछले आठ वर्षों में उसने अपने संगठन को सुधारने और उसे एक दिशा देने की कोई खास कोशिश नहीं की है. न ही पार्टी ने उस गंभीर सैद्धांतिक लड़ाई में अपनी ताकत झोंकने की कोशिश की है, जिसे लड़ना उसके लिए साफ तौर से बहुत जरूरी है.
तब से पार्टी ने कई राज्य गंवाए हैं जहां वह या तो अपने दम पर या गठबंधन में सत्ता में थी. वह हरियाणा (2014 और 2019) और असम (2016 और 2021) में लगातार दो विधानसभा चुनाव हार चुकी है. 2012 से वह गोवा में; 2013 से दिल्ली में; 2014 से आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में सरकार बनाने में असफल रही है (इस समय वह महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली सरकार में एक जूनियर पार्टनर है).
कांग्रेस ने तेलंगाना बनाने में मदद की लेकिन राज्य में लगातार दो चुनाव हारी है. मध्य प्रदेश में उसने 2018 में चुनाव जीता लेकिन 2020 में बगावत के चलते उसकी सरकार गिर गई; केरल में 1982 के बाद से राज्य में कांग्रेस के नेतृत्व वाली और लेफ्ट फ्रंट की सरकारें बारी-बारी से आती रही हैं, लेकिन पिछले साल लेफ्ट फ्रंट को दूसरा कार्यकाल मिल गया. गुजरात में निश्चित रूप से वह 1995 से सत्ता में नहीं है. 2017 में कांग्रेस ने राज्य में अच्छा प्रदर्शन किया और बीजेपी का भारी नुकसान भी किया लेकिन उसे हरा नहीं पाई और पांचवी बार भी बीजेपी की सरकार बनी. वह छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार में है लेकिन इन राज्यों में दो-दो शक्ति केंद्र हैं. इससे राज्य सरकार की ताकत कमजोर होती है. और सबसे खास, इस साल की शुरुआत में कांग्रेस को पंजाब में अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा है.
हैरानी नहीं है कि उसके सिपहसालारों में बगावत के स्वर तेज हो रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभार को दबाने की कोशिशों ने पार्टी को कमजोर किया है. भले ही उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया हो. जैसे दिल्ली में शीला दीक्षित, असम में तरुण गोगोई, आंध्र प्रदेश में दिवंगत वाईएस राजशेखर रेड्डी, हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा और पंजाब में अमरिंदर सिंह.
इसका नतीजा क्या होना था? कांग्रेस में अब भी कोई नहीं मानता कि पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर बंट जाएगी.
किसी पार्टी को एकजुट रखने की एक वजह यह होती है कि सबका नजरिया एक जैसा होता है. या फिर सब किसी एक मकसद को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं. लेकिन कांग्रेस में यह दोनों ही बातें नहीं थीं. उसे एकजुट रखने का एक ही आधार था- गांधी परिवार के प्रति वफादारी थी. लेकिन अब उस वफादारी में सेंध लग गई है. यह सवाल भी उठ रहे हैं कि किसी वंश को राज करने का क्या अधिकार है. 2020 में जी-23 की चिट्ठी में इस बात की तरफ इशारा किया गया था. हालांकि यह बहुत साफ नहीं था और सूत्रों का कहना है कि प्रशांत किशोर ने भी यही सलाह दी है.
एक पीढ़ीगत परिवर्तन नहीं हुआ है और समय के साथ होने वाले बदलावों ने बहुत कम असर किया है (रिपोर्टों से पता चलता है कि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अब भी ऐसे बदलावों के हिमायती हैं क्योंकि इससे उन्हें सांस लेने की जगह मिलती है). असल में पार्टी को अभी भी "जड़विहीन चमत्कारों और रीढ़विहीन लताओं से मुक्त होना बाकी है, जिन्होंने दो दशकों तक शासन किया है", जैसा कि वरिष्ठ नेता किशोर चंद्र देव ने 2014 की चुनावी पराजय के बाद कहा था-अब कांग्रेस में नहीं.
राहुल गांधी में अपने चाचा संजय गांधी जैसी आग नहीं, न ही वे किसी मौके को दबोचकर अगुवाई कर सकते हैं. ऐसा सोनिया गांधी कर चुकी हैं, और अब भी कर रही हैं. पार्टी के वफादारों ने 2004 में बड़े उत्साह और उम्मीदों के साथ राहुल के राजनीतिक आगमन की बधाई दी थी. आज उनका केवल मोहभंग नहीं हुआ है - वे थक चुके हैं.
(स्मिता गुप्ता एक सीनियर जर्नलिस्ट हैं और द हिंदू, आउटलुक, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के साथ काम कर चुकी हैं. वह ऑक्सफोर्ड रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की पूर्व फेलो हैं. वह @g_smita पर ट्वीट करती हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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