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मुकुल रॉय की टीएमसी में घर वापसी और कांग्रेस को लेना होगा सबक. उसे जितिन प्रसाद जैसे नहीं, दूसरे प्रभावशाली नेताओं की बात सुननी होगी. द क्विंट के एडिटर-इन-चीफ राघव बहल हाल के घटनाक्रमों पर अपनी राय जता रहे हैं.
यह रियल पॉलिटीक का असल उदाहरण है, जिसके मायने हैं, “राजनीति या सिद्धांतों की ऐसी व्यवस्था जोकि नैतिकता या वैचारिकता की बजाय व्यावहारिकता पर आधारित होती है.” मुकुल राय फिर से ममता बनर्जी से जा मिले हैं. उन्होंने टीएमसी में वापसी कर ली है.
ताबड़तोड़ अंदाजा लगाने वाले कह सकते हैं, “ममता के सिर जीत का ताज है, इसलिए मुकुल राय ने उनके आगे घुटने टेक दिए हैं.” लेकिन ऐसी टिप्पणियों को टेलीविजन के शोर शराबे के लिए सहेजकर रखना चाहिए.
बिल्कुल, राजनैतिक सफलता ममता बनर्जी की मुट्ठी में है. लेकिन उन्होंने मुकुल राय की व्यक्तिगत रूप से अगवानी की, जिससे दो विरोधी सच्चाइयां सामने आती हैं:
(क) ममता बनर्जी ने इस बात को माना है कि रॉय ने पांच साल से भी कम समय में बीजेपी को बंगाल में एक ताकतवर विरोधी के रूप में खड़ा किया, जिसका कभी राज्य में नामलेवा भी नहीं था. उन्होंने ममता के लिए राजनीतिक दहशत पैदा की. यह और कुछ नहीं, रॉय की कामयाबी को स्वीकार करना ही है, और
(ख) चूंकि बीजेपी ने सुवेंदु अधिकारी को विपक्ष का नेता बनाकर रॉय का कद कम किया है, इसलिए ममता बनर्जी ने रॉय के गुस्से का इस्तेमाल किया है और अपने दुश्मन के प्रधान सेनापति को दोबारा अपने खेमे में मिला लिया है.
कांग्रेस को इससे बड़ा सबक लेना चाहिए. अगर उसने ममता की ‘शिकायतों’ पर ऐसी कोई प्रतिक्रिया दी होती, जब उन्होंने कांग्रेस, जोकि उनका मूल राजनैतिक दल था, को छोड़ा था (हां, मैं कई साल पहले की बात याद कर रहा हूं) तो आज कांग्रेस बंगाल पर राज कर रही होती.
सिर्फ पश्चिम बंगाल ही क्यों? असम में हिमंत बिस्वा सरमा, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी, पुद्दूचेरी में एनआर कांग्रेस... चलिए, इन पर कभी और बात करेंगे. कांग्रेस को जितिन प्रसाद जैसे नहीं, राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेताओं को तवज्जो देनी होगी.
कांग्रेस से किस-किसको, कितनी शिकायतें हैं, इस पर मैं कुछ और बात करना चाहूंगा. हालांकि यह उतने असरदार नेता नहीं, जितने वे थे, जिनका हमने ऊपर जिक्र किया है.
इन नतीजों के साथ जरा, इतिहास के पन्ने पलट लिए जाएं. कम ही लोग यह जानते होंगे कि 2014 से 2019 के बीच लगातार तीन बार जितिन प्रसाद को चुनावों में अपनी जमानत बचानी भी मुश्किल हो गई थी.
नहीं-नहीं, मैं ऐसी अप्रिय बातें कहकर एक हाई प्रोफाइल नेता को नीचा दिखाने की कोशिश नहीं कर रहा. न ही खुदगर्ज खुशी तलाश रहा हूं. आखिकरकार जितिन प्रसाद ने 2004 और 2009 में जीत हासिल की थी. यूपीए-2 सरकार में मंत्री भी रहे थे. हां, मैं थोड़ा चकित हूं कि कांग्रेस का नेतृत्व ‘जमीनी स्तर’ के नेताओं को किस मानदंड के आधार पर चोटी का पद देता है.
मेरा कहने का मतलब यह है कि (अब मैं इन आंकड़ों का इस्तेमाल सिर्फ उदाहरण देने के लिए कर रहा हूं, और इसे किसी खास व्यक्ति के साथ जोड़कर मत देखें), ऐसा क्यों है कि तीन बार से सांसद शशि थरूर या जानकार पेशेवर जैसे कपिल सिब्बल पार्टी संगठन के बाहरी छोर को थामे रहें, लेकिन जितिन प्रसाद, जिन्हें उन्हीं के निर्वाचन क्षेत्र के 90 प्रतिशत लोग जानते तक नहीं, कांग्रेस वर्किंग कमिटी के लिए नामित कर दिए जाएं?
साफ है कि अगर कांग्रेस में नई जान फूंकनी है तो पार्टी को आंतरिक लोकतंत्र कायम करना होगा, जिससे राजनैतिक रूप से ताकतवर नेता पार्टी के मामलों में ताकतवर आवाज बनकर उभरें.
बेचारी आयशा सुल्ताना पर ‘राजद्रोह’ का मामला दर्ज हो गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने एक टीवी शो पर लक्षद्वीप के विवादास्पद प्रशासक पर टिप्पणी करते हुए ‘जैविक हथियार’ शब्द का इस्तेमाल किया था.
उसने सिर्फ इतना भर किया था. हिंसा का कोई आह्वान नहीं, कोई उकसाना-भड़काना नहीं, न ही राज्य के खिलाफ कोई ‘असंतोष’ जाहिर किया था (इस व्यक्तिनिष्ठ, अस्पष्ट शब्द का जो भी मतलब हो). फिर भी उसके खिलाफ मामला दर्ज हुआ, जोकि इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट की हाल की एक टिप्पणी का पूरी तरह से उल्लंघन है.
साफ तौर से हमारे आदरणीय जजों को खुद इस बात को संज्ञान में लेना चाहिए कि किस तरह कानून प्रवर्तन करने वाली एजेंसियां जानबूझकर, बदला लेने के इरादे से इस कानून का उल्लंघन कर रही हैं.
क्या आपको याद है कि जब यूके की लेबर पार्टी ने जम्मू और कश्मीर में धारा 370 हटाने की आलोचना की थी, तो भारत में क्या प्रतिक्रिया दी थी? उसने इसे पूरी तरह से खारिज करते हुए कहा था कि यह ‘लेफ्ट लिबरल’ लोग हैं जोकि ‘खान मार्केट गैंग’ के साथ तालमेल बैठा रहे हैं.
कुछ टोरी सांसदों ने मोदी सरकार की आलोचना की है. उन्होंने भारत को “लोकतंत्र और तानाशाही के बीच झूलता देश” बताया है, जिसने ‘कम से कम तीन अमेरिकी और ब्रिटिश कंपनियों की संपत्ति जब्त कर ली है.’
इस तरह वोडाफोन और केयर्न एनर्जी की तरफ इशारा किया जा रहा है. पूर्व टोरी कैबिनेट मंत्री डेविड डेविस ने तो यहां तक कह दिया है कि “अब मोदी और उनकी सरकार को चुनना होगा कि कानून का राज चलेगा या शासकों की मनमानी, उन्हें पश्चिम और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में से किसी को चुनना होगा.”
उफ... तकलीफ होती है! क्योंकि इसमें सच्चाई छिपी है.
ईमानदारी से कहा जाए तो हम वोडाफोन और केयर्न पर अपने जबरन वसूली के दावों को सही साबित करने पर क्यों तुले हैं? अपने असली हालात को समझने में ही समझदारी है, इसीलिए दो कदम पीछे हट जाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. बल्कि अपनी गलती समझने को ही तो हिंदी में ‘बड़प्पन’ कहा जाता है.
आखिरकार, शराब की होम डिलिवरी की जाएगी. तो, जाम उठाइए!
मुझे आज तक समझ नहीं आया कि हमारे राजनेताओं को शराब से इतनी घृणा क्यों है. भगवान के लिए, हमारे देवतागण भी तो ‘सोमरस’ पीते थे. काल भैरव को तो इसका प्रसाद चढ़ाया जाता है, जोकि भगवान शिव का अवतार हैं.
छोड़िए भी! नफरत को परे रखिए और लोगों को महामारी के दौर की अकेली, सूनी शाम के संगी के साथ आनंद लूटने दीजिए. वरना, शराब की दुकानों के आगे भीड़ लगती रहेगी और यह कोविड सुपरस्प्रेडर बन जाएगा.
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Published: 12 Jun 2021,02:19 PM IST