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चर्चा किस पर हो? मॉब लिंचिंग रोकने पर या मॉब लिंचिंग के विरुद्ध आवाज पर? हम मॉब लिंचिंग रोकने कि बजाए मॉब लिंचिंग की परिभाषा पर विचार करें या इसे रोकने की आवाज उठाने वालों की भाषा और उनके मकसद पर? मॉब लिंचिंग रोकने में डबल इंजन की सरकारें तक फेल हैं, मगर गलत उन लोगों को बताया जाए जो इन सरकारों की असफलता पर सवाल उठाएं?
श्याम बेनेगल, अपर्णा सेन, अनुराग बसु जैसी 49 हस्तियों की चिट्ठी के कंटेंट पर सवाल हैं कि,
इंडिया टुडे की रिपोर्ट कहती है कि 2016 और 2019 के बीच नेशनल ह्यूमन राइट कमीशन ने अल्पसंख्यकों और दलितों पर अत्याचार के 2008 मामले दर्ज किए गए. अकेले उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 869 का है. क्या यही आंकड़ा गैर-दलित और गैर अल्पसंख्यकों के लिए भी है? बिल्कुल नहीं.
गैर दलितों और गैर अल्पसंख्यकों के साथ घटी घटनाएं चुनिंदा हैं और वो ‘कमजोर पर जुल्म का प्रतीक’ घटनाएं नहीं हैं. मगर, इस तर्क का मतलब ये नहीं है कि वे घटनाएं निंदनीय नहीं हैं और सरकार को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए.
निश्चित रूप से भीड़तंत्र की प्रवृत्ति कमजोर लोगों के खिलाफ होती है- वे कमजोर लोग जो आवाज नहीं उठा पाते, जिनके पास आवाज उठाने का कोई फोरम नहीं होता. ऐसे लोगों पर हाथ साफ करना आसान होता है.
अल्पसंख्यक और दलितों के साथ बढ़ती मॉब लिंचिंग की घटनाएं बताती हैं कि इनकी आवाज उठाने के लिए देश में कोई फोरम नहीं है. जिन राजनीतिक दलों ने वोटों की खातिर इस वर्ग का इस्तेमाल किया, वो इनके लिए उचित फोरम साबित नहीं हो सके. ऐसे लोगों की आवाज हैं और उन्हें फोरम देने की कोशिश है 49 लोगों की चिट्ठी.
फरवरी 2015 में उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत में धार्मिक असहिष्णुता पर बेबाक टिप्पणी की थी और इसे गांधी जी के उसूलों के खिलाफ बताया था. नेशनल प्रेयर ब्रेकफास्ट के दौरान ओबामा ने कहा था,
तब से लेकर आगे जैसे-जैसे हम महात्मा गांधी की 150वीं जयंती की ओर बढ़ रहे हैं, लगातार असहिष्णुता की घटनाएं बढ़ती चली गई हैं. फैक्टचेकर.इन के आंकड़ों पर गौर करें
2009 से लेकर 2014 तक मॉब लिंचिंग में 40 घटनाएं घटीं. जबकि, 2015 से आगे 2019 तक यह संख्या बढ़कर 255 हो गई. मतलब ये कि पिछले 5 साल में घटनाओं में करीब गुणा बढ़ोतरी हो गई.
एक बार फिर अमेरिका के विदेश विभाग ने जून 2019 में भारत में धार्मिक असहिष्णुता को लेकर रिपोर्ट जारी की है और स्थिति को चिंताजनक बताया है. मगर, भारत सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया है.
जो लोग 49 बुद्धिजीवियों पर हमले कर रहे हैं, उन्हें सरकार विरोधी और उनके विरोध को प्रायोजित बता रहे हैं, वो इन बातों का जवाब सरकार से क्यों नहीं पूछते कि मॉब लिंचिंग हो या दलितों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामले, उन्हें सरकार रोकने में नाकाम क्यों है? अगर गैर दलित और गैर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की घटनाओं से ही ऐसे लोग व्यथित हैं तो उस व्यथा को छिपा कर क्यों रख रहे हैं?
जिन्हें लगता है कि इससे श्री राम का नाम बदनाम हो रहा है, उन्हें तो पहले इसकी चिंता करनी चाहिए. चिट्ठी में उल्लेख भर होने से राम का नाम बदनाम नहीं होता. जब राम के नाम पर मॉब लिंचिंग होती, उन्माद फैलाया जाता है तब इसका दुरुपयोग होता है और वैसी घटनाओं का विरोध करने की जरूरत है.
बुद्धिजीवियों की चिट्ठी में कमजोर तबके की आवाज बुलंद हुई है. न तो सरकारें कमजोर तबके पर जुल्म को रोक पा रही हैं और न ही उस तबके में घट रही चुनिंदा घटनाओं को रोक पा रही हैं, जो कमजोर तबके से इतर समूह में हो रही हैं. उल्टे, उस आवाज को दबाने की कोशिश में सत्ताधारी दल, मीडिया और सरकार के नुमाइंदे लगे हुए हैं. उन बुद्धिजीवियों को ही निशाना बनाया जा रहा है जो आवाज उठाने का बेहद लोकतांत्रिक, बेहद विनम्र और बेहद लोचदार तरीका, जिसे 'चिट्ठी लिखना कहते हैं', अपना रहे हैं.
धार्मिक आधार पर असहिष्णुता के बढ़ने के पीछे अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलना अहम वजह है. ये राजनीतिक संरक्षण कितना मजबूत होता है वो 49 बुद्धिजीवियों की प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी पर आ रही प्रतिक्रिया से भी साफ हो रहा है. ये वही वर्ग है, जो दलितों और अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार की पर्देदारी करता रहा है. अब विरोध की हर आवाज को दबा देने के लिए आमादा है.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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