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क्या यह जरूरी है या अनिवार्य कि आस्था रखने वाले लोग किसी सामूहिक श्रद्धा के केंद्र पर जाएं या किसी धार्मिक जमघट में भागीदारी करें, तभी व्यक्ति की प्रार्थना ईश्वर स्वीकार करेंगे? और, क्या तब भी इसकी आवश्यकता होती है, जब एक घातक संक्रामक बीमारी फैली हुई है, जब न केवल सामूहिक प्रार्थना में शामिल होने वाले लोगों के संक्रामक रोग की चपेट में आने का डर हो, बल्कि आसपास के दूसरे लोगों में भी इसके फैलने का खतरा हो?
इन सवालों के उत्तर बहुत स्पष्ट हैं. धर्म का प्राथमिक कर्त्तव्य- कम से कम इसका मूल वादा- भक्तों की रक्षा करना है. सर्वशक्तिमान के लिए पहली प्रार्थना जो भक्तों की जुबान पर होती है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, वो है, “हे ईश्वर, मेरी और मेरे करीबी व प्रिय लोगों की रक्षा करो.” चूंकि ईश्वर सृजनकर्ता हैं, वे सभी के रक्षक भी हैं. लेकिन, तब भी वे रक्षा नहीं कर सकते. अगर संगठित धर्म के श्रद्धालु गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करें और हठधर्मिता और अंधविश्वास दिखाएं. वह भी ऐसे समय पर जब अभूतपूर्व वैश्विक महामारी, जैसे कि कोविड-19, फैली हो, जिसने दुनिया भर में दस लाख के करीब लोगों को अपनी चपेट में ले रखा हो और 40 हजार के करीब जान ले ली हो.
अनंतकाल से यह जोरदार बहस रही है कि व्यक्ति और ईश्वर के बीच व्यक्तिगत संबंध होता है . यह विश्वास और अभ्यास की संस्थागत और सामुदायिक जुगलबंदी है. ज्यादातर लोगों के लिए यह एक या अन्य में खास पसंद की बात नहीं. बल्कि दोनों उनकी पसंद रहे हैं. हालांकि कोविड-19 ने अस्थायी रूप से ही सही, लगभग सबके लिए इसे तय कर दिया है. इसके प्रमाण दो सबसे ज्यादा अविश्वसनीय तस्वीरों में देखे जा सकते हैं, जो वास्तव में ऐतिहासिक हैं कि किस तरह कोरोना वायरस की महामारी ने दुनिया भर में धार्मिक अभ्यास को प्रभावित किया है.
ये तस्वीरें इस ग्रह की दो ऐसी जगहों से हैं, जिसके बारे में सोचा नहीं जा सकता- वैटिकन सिटी में सेंट पीटर्स स्क्वॉयर जहां कैथोलिक चर्च के प्रमुख का आवास है और मक्का का भव्य मस्जिद, जिसे काबा का घर माना जाता है और दुनिया भर में मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र स्थान है.
28 मार्च को पोप फ्रांसिस की वह नाटकीय तस्वीर थी, बारिश में अकेले एकांत प्रार्थना के लिए जाते हुए. सेंट पीटर का राजभवन, जो स्थापत्य का अद्भुत नमूना है, जहां आम तौर पर हजारों लोग हुआ करते हैं, निर्जन और डरावना नजर आया. मुख्य रूप से ऐसा इसलिए क्योंकि कोविड-19 के कारण इटली के पड़ोसी प्रांत में आंकड़ा बहुत विशाल है. अपनी प्रार्थना में पोप जो रोम के भी बिशप हैं, ने कहा कि कोरोना वायरस ने हर किसी को ‘एक ही नाव में’ ला खड़ा कर दिया है. उन्होंने दुनिया से आग्रह किया कि इस संकट को एकजुटता की परीक्षा के तौर पर लें.
दूसरी तस्वीर मक्का में अल हरम मस्जिद (भव्य मस्जिद) की है जो पूरी तरह खाली थी. इसके साथ मदीना में मस्जिद अल नबावी (पैगंबर मोहम्मद की मस्जिद) है जिसे कोरोना वायरस फैलने के बाद प्रार्थना के लिए बंद कर दिया गया है. मक्का में मस्जिद का विशाल प्रांगण जो ‘खुदा का घर’ काबा के चारों ओर फैला है और जहां प्रार्थना के लिए मानवता का सागर इकट्ठा हुआ करता है.
वास्तव में जब मुस्लिम भक्त मक्का में शारीरिक रूप से मौजूद नहीं होते हैं वे रोज इस्लामिक प्रार्थना के वक्त काबा को अपने सामने समझते हैं और इस तरह उससे मानसिक रूप से जुड़े होते हैं. सऊदी अरब के सुल्तान सलमान जो दोनों पवित्र मस्जिदों के रक्षक हैं, कोई बढ़-चढ़कर नहीं कह रहे थे जब उन्होंने कहा, “हम दुनिया के इतिहास में एक मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं.”
दुनिया भर में सभी धर्मों के उपासना स्थल बड़ी तादाद में लोगों को इकट्ठा होने के लिए आकर्षित करते हैं. लेकिन जब कोरोना की महामारी ने सभी देशों को लंबे लॉकडाउन में जाने को मजबूर कर दिया है तो धार्मिक स्थानों और धार्मिक जमावड़ों पर सख्त प्रतिबंध लगाए गये हैं और कोई इसके लिए शिकायत नहीं कर सकता. बड़े पैमाने पर ये प्रतिबंध महसूस किए गये हैं. दुखद है कि भारत समेत कई देशों में इसके उल्लंघन की घटनाएं भी हुई हैं और इसने गरमा गरम विवादों को जन्म दिया है. ऐसे समय में धर्म की भूमिका क्या है या क्या होना चाहिए जब अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट ने दुनिया को जकड़ रखा हो? अगर कोई शारीरिक रूप से दूरी का पालन नहीं करता है तब भी क्या ईश्वर किसी को कोरोना वायरस से प्रतिरोध की शक्ति देते हैं?
दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में, जिसे कोरोना वायरस बीमारी का हॉटस्पॉट घोषित कर दिया गया है, तबलीगी जमात के जमघट पर उठा विवाद दूसरी वाली श्रेणी में आता है. मार्च में मुस्लिम संगठन के जमावड़े के बाद, जो इसके अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय मरकज निजामुद्दीन में हुआ, कोविड-19 के दर्जनों मामले सामने आए हैं. इसमें करीब दो हजार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया जो भारत के ज्यादातर राज्यों से आए थे. कई विदेशी लोगों ने भी इसमें हिस्सा लिया. चूंकि 1926 में शुरू हुई तबलीगी जमात एक इस्लामिक मिशनरी मूवमेंट है और इसके अनुयायी दुनिया भर में फैले हैं.
क्या तबलीगी जमात (जो पैगंबर के जीवन काल में प्रचलित इस्लाम के तरीकों को अपनाने का आग्रह करता है) के नेताओं को को इतने बड़े स्तर पर धार्मिक जमघट ऐसे समय पर लगाना चाहिए जब कोरोना वायरस का खतरा पहले से ही भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों में फैल चुका था? नहीं. कतई नहीं. तबलीगी जमात की ओर से यह गैर जिम्मेदाराना था कि बीमारी की बड़े पैमाने पर संक्रामक प्रकृति जान लेने के बावजूद वे अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत आगे बढ़े. क्या अधिकारियों को समारोह के लिए अनुमति देने से बहुत पहले ही मना कर देना चाहिए था? हां.
दुर्भाग्य से इस प्रकरण पर बहस सांप्रदायिक मोड़ ले चुका है जिसमें कुछ कथित रूप से सरकार समर्थित टीवी चैनल हैं और कई शैतानी और ऊंची आवाज वाले सोशल मीडिया हैं जो इस तरह से प्रतिक्रिया दे रहे हैं मानो यह पूर्व नियोजित ‘षडयंत्र’ था ताकि पूरे देश में कोरोना वायरस का ‘सुपर स्प्रेड’ किया जा सके. एक ट्वीट में कहा गया, “ये तबलीगी जमात के लोगों को न सिर्फ ब्लैकलिस्ट किया जाना चाहिए बल्कि उन पर जानबूझकर जैविक आतंकवाद का संवाहक बनने और देश के नागरिकों का जीवन खतरे में डालने के आरोप लगाए जाने चाहिए.”
दूसरा और भी आग भड़काने वाला था- “संक्रमण विस्फोट का इकलौता विशाल स्रोत जो भारत सरकार और नागरिकों के सभी सफल प्रयासों पर मिट्टी डाल रहा है. यह जैविक आत्मघाती बमवर्षा की तरह है. अक्षम्य.”
कोरोना काल से पहले के दौर में भी इस्लामोफोबिया कम नहीं था. मतलब यह कि जब दिल्ली भयावह सांप्रदायिक हिंसा में जल रही थी जिसमें निर्दोष मुसलमानों को सबसे ज्यादा धक्का पहुंचा था.
कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से निजामुद्दीन मरकज या मुसलमानों को अलग-थलग करना असभ्यता है क्योंकि लगभग इसी समय में, यानी 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के एलान से ठीक पहले दिल्ली और पूरे देश में कई हिन्दू मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ रही थी.
इससे भी बुरी बात. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को छोड़कर कोई भी व्यक्तिगत रूप से अयोध्या में राम मंदिर के धार्मिक अनुष्ठान करने नहीं गया. जब प्रधानमंत्री ने कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए 21 दिन के राष्ट्रीय लॉकडॉउन की घोषणा की, उसके कुछ घंटे के भीतर उन्होंने ऐसा किया. ‘योगी’ ने न सिर्फ प्रधानमंत्री के ‘लक्ष्मण रेखा‘ नहीं लांघने के आह्वान का उल्लंघन किया, बल्कि उन्होंने गृह मंत्रालय की ओर से जारी गाइलाइन का भी उल्लंघन किया जिसमें साफ तौर पर कहा गया था : “बगैर किसी अपवाद के किसी भी धार्मिक जमघट की इजाजत नहीं दी जाएगी”
दूसरे तरह के विवाद पर आते हैं यानी धर्म बनाम विज्ञान. निश्चित रूप से यह कहा जाना चाहिए कि मुख्य अपराधी (हालांकि एक मात्र नहीं) यहां कुछ हठधर्मी इस्लामिक संगठन हैं जो मुस्लिम और गैरमुस्लिम दोनों देशों में हैं. उनके गैर जिम्मेदाराना बयान और व्यवहार ने न केवल खुद मुसलमानों की जिन्दगियों को बर्बाद किया है बल्कि इसने गैर मुसलमानों के बीच मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रहों को मजबूत बनाया है.
ईरान में, जहां कोविड-19 ने करीब 3 हजार लोगों की जान ले ली है, कई धर्मगुरुओं ने लोगों से मस्जिदों में नमाज के लिए आने का निवेदन यह कहते हुए किया कि अल्लाह वायरस से उनकी रक्षा करेगा क्योंकि ‘अल्लाह सबसे ताकतवर है’.
पाकिस्तान में जब राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने यह समझाने के लिए कि मस्जिदों में सामूहिक नमाज के लिए बंद कर देना चाहिए, धर्मगुरुओं के साथ बैठक की तो कई ने इस आग्रह को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा, “हम किसी भी सूरत में मस्जिदों को बंद नहीं कर सकते...एक इस्लामिक देश में किसी भी परिस्थिति में यह संभव नहीं है.”
अफगानिस्तान में लोगों को मस्जिद जाने से रोकने में अधिकारियों को परेशानी हुई क्योंकि कई धर्म गुरुओं ने कहा, “चिंता न करें. अल्लाह वायरस से मुसलमानों को बचाएंगे.”
अतिवादी सुन्नी समूह इस्लामिक स्टेट (आइसिस) ने कोविड-19 महामारी को चीन, ईरान (क्योंकि यह शियाओं के बहुमत वाला देश है) और अन्य गैर मुस्लिम देशों के लिए ‘दैवीय प्रतिशोध’ बताया है.
इस्लामिक उपदेशक हनी रमादान, जो जेनेवा में इस्लामिक सेंटर के डायरेक्टर हैं, (फ्रांस ने उन्हें तीन साल पहले मुस्लिम समुदाय को ‘कट्टर बनाने’ के आरोप में निकाल दिया था) ने दावा किया है कि “महामारी अल्लाह के प्रकोप के कारण है.” और कहा कि “अल्लाह ने महामारी उन लोगों को सजा देने के लिए भेजी है जिन्होंने उन्हें अपने कर्मों से, जैसे संगीत, नग्नता, दुर्व्यवहार, समर्पण, अशांति, स्वंत्रता..., से उसे गुस्से में ला दिया ”
एक अन्य उपदेशत ने प्रफुल्लित होकर कहा,
ऐसे भयावह बयानों को पढ़ने के बाद मैं इस आर्टिकल का निष्कर्ष निकालने में कोई मदद नहीं कर सकता. जियाउद्दीन सरकार, जो इस्लाम पर मशहूर ब्रिटिश-पाकिस्तानी लेखक हैं, के इंटरव्यू के हिस्से को पुन: प्रस्तुत कर रहा हूं. यह इंटरव्यू उन्होंने एक दशक पहले द हिन्दू अखबार के हसन सरूर को दिया था. यह उनकी किताब ‘ब्रेकिंग द मोनोलिथ’ में प्रकाशित हुआ है जिसे मैं लॉकडाउन लागू होने के दौरान इन दिनों पढ़ रहा हूं.
“आप ऐसा क्यों मानते हैं कि मुसलमानों के बारे में मान लिया गया है कि वे अड़े हुए, असहिष्णु, बदला लेने पर उतारू होते हैं? या क्या इस समुदाय को बदनाम करने की कोई प्रवृत्ति है?”
“दोनों. हमारे समुदाय का एक हिस्सा असहिष्णु और कठोर है. लेकिन सभी मुसलमानों को इस रोशनी में नहीं देखना चाहिए...”
“जिस अंधेरे से मुसलमान खुद को पाते हैं, उससे वे कैसे बाहर आएं, आंशिक रूप से कुछ अपने व्यवहार की वजह से और आंशिक रूप से मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रहों के कारण?”
“मैं समझता हूं कि मुस्लिम समाज के लिए सबसे जरूरी है इस्लाम के समकालीन अर्थ और महत्व की खोज करना. वास्तव में मेरे विचार में इस्लाम के अंदर से दोबारा गंभीर सोच उभरने की जरूरत लंबे समय से अपेक्षित है. मुसलमान बड़े आराम से भरोसा करते आ रहे हैं बल्कि बहुत अधिक समय से पुरानी व्य़ाख्याओं पर भरोसा कर रहे हैं. यही कारण है कि समकालीन दुनिया में हमें यह इतना भयावह लगता है. आधुनिकता के साथ यह इतना असहज है. विद्वान और विचारक एक शताब्दी से सुझाव देते आ रहे हैं कि हमें गंभीर प्रयास करने की जरूरत है. इस्लाम में सुधार के लिए इज्तिहाद यानी तर्कपूर्ण और पुनर्विचार की आवश्यकता है.”
इसमें मैं जोड़ना चाहूंगा : सभी संगठित धर्मों को सुधार का अपना तरीका अपनाना होगा. इसका एक परम आवश्यक तत्व है आपसी और सम्मानजनक सहयोग, जो मानवता पर आए खतरे के वक्त जरूरी है, जिस तरह के खतरे का हमलोग अभी सामना कर रहे हैं.
(लेखक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी थे. वो Music of the Spinning Wheel: Mahatma Gandhi’s Manifesto for the Internet Age के लेखक हैं. उन्हें @SudheenKulkarni पर ट्वीट और sudheenkulkarni.gmail.com पर मेल किया जा सकता है. आर्टिकल में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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