वीडियो एडिटर: संदीप सुमन
केंद्र सरकार का दावा है कि उसने एक राज्य से दूसरे राज्य में हो रहे पलायन पर पूरी तरह रोक लगा दी है. ये दावा हजारों-लाखों प्रवासी मजदूरों के बारे में है. वो कामगार जो कोरोना वायरस के लॉकडाउन के बीच अपनी और अपने परिवार की जान हथेली पर रखकर अपने घरों की तरफ निकल पड़े थे. केंद्र सरकार ने ये दावा सुप्रीम कोर्ट में किया जो प्रवासी मजदूरों की देखभाल से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई कर रही है. अगर केंद्र की बात को सही मान भी लिया जाए तो भी एक कहावत याद आती है- अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत.
कथा जोर गरम है कि ...
कोरोना से बचाव के लिए लॉकडाउन की घोषणा करते वक्त सरकार ने उन दिहाड़ी मजदूरों के बारे में नहीं सोचा जो पेट भरने के लिए रोज कुआं खोदते हैं, रोज पानी पीते हैं. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कुछ बातें बड़े साफ शब्दों में कहीं-
- शेल्टर होम गए लोगों को खाना, पानी, दवाइयां, काउंसलिंग जैसी जरूरी चीजें मुहैया करवाई जाएं.
- शेल्टर होम के रखरखाव की जिम्मेदारी वॉलंटियर्स की हो पुलिस की नहीं. यानी शेल्टर होम में रहने वालों पर कोई सख्ती नहीं होनी चाहिए.
- कोर्ट ने कहा कि आपको भजन-कीर्तन,नमाज या फिर जो कुछ करना पड़े लेकिन आपको मजदूरों को कोरोनावायरस के बारे में समझाना होगा.
- फेक न्यूज की वजह से फैले खौफ को रोकने के लिए 24 घंटे में एक पोर्टल बनाइये जो कोरोना की रियल टाइम जानकारी दे.
गुर्बत में गरीब
कोर्ट ने सरकार को ये तमाम निर्देश दे दिए. ये तो कानूनी कार्यवाही है. लेकिन जरा सा पीछे मुड़कर देखिए. आपको अहसास होगा कि 5 ट्रिलयन डॉलर की इकनॉमी का दावा करने वाले इस देश में गरीब-गुरबे किस कदर बेहाल हैं. 24 मार्च की आधी रात से पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा होते ही ये लोग शहरों से वापस अपने गांव-देहात की तरफ पैदल निकल पड़े. समस्या इतनी बड़ी थी कि उन्हें सैंकड़ो किलोमीटर की दूरी भी छोटी लग रही थी.
“पैसे नहीं हैं, खाना भी नहीं है. पानी की बोतल ली थी. देखिए कितनी चलती है. खाने के लिए तो कुछ है ही नहीं.”मोहम्मद मुदीब, फैक्ट्री मजदूर, निवासी-अयोध्या
“इस बीमारी से मत बचाओ हमें. भूखे मरने अच्छा है कि इस बीमारी से मर जाएं.”राजवती, दिहाड़ी मजदूर
एक इंसान की इससे बड़ी मजबूरी क्या होगी कि उसे दो ही रास्ते दिख रहे हों- या तो बीमारी से अपनी जान दे दे या फिर भूख से.
मर्ज से खतरनाक इलाज
बहस छिड़ी तो सरकारों ने इलाज निकाले. लेकिन इलाज ऐसे जो मर्ज से ज्यादा खतरनाक हों. मसलन यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 600 बसें चलाने का एलान कर दिया. उसका असर ये हुआ कि
- दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर यूपी जाने वालों की ऐसी भीड़ लगी कि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ बाप-बाप करने लगी.
- महाराष्ट्र के पालघर में पुलिस ने एक टैंकर खुलवाया तो अंदर से दूध के बुलबुलों की जगह जीते-जागते इंसान निकले.
- तेलंगाना से राजस्थान जाते एक ट्रक को पुलिस ने रोका तो वही हाल. अंदर बोरियों की मानिंद भरे मजदूर मिले.
- कर्नाटक के पेड्डा गोलकुंडा में ट्रक और वैन की टक्कर में 7 मजदूरों की मौत हो गई.
- दिल्ली से मुरैना पैदल चलकर जाने वाले एक युवक ने बीच सड़क भूख-प्यास से दम तोड़ दिया.
- महाराष्ट्र के पालघर जिले में एक तेज रफ्तार टैंपो ने 4 लोगों को कुचल दिया.
- अपने ठिकानों तक पहुंचे भी तो ‘शुद्ध’ करने के नाम पर कहीं लोहे-लक्कड़ की तरह केमिकल और साबुन का छिड़काव कर दिया गया.
- तो कहीं क्वारंटीन करने के नाम पर इंसानों को पेड़ों पर ‘टांग’ दिया गया.
कुछ सवाल!
सरकार ने कोर्ट में कहा है कि साढ़े छह लाख से ज्यादा लोगों को शेल्टर होम में रखा गया है और करीब 23 लाख जरूरतमंद लोगों को खाना मुहैया करवाया गया है. मामले पर अगली सुनवाई 7 अप्रैल को होगी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और सरकार के दावों के साथ हमारे कुछ सवाल हैं. केंद्र से भी और राज्य सरकारों से भी.
- क्या सरकारी शेल्टर होम में रखे लोगों के खाने-पीने के साथ उनकी मेडिकल जांच का पूरा इंतजाम है?
- शेल्टर होम में सोशल डिस्टेंसिग का नियम निभाया जाएगा?
- आखिर कब तक इन लोगों को शेल्टर होम में रखा जाएगा?
- इस दौरान अपने गांव-देहात में पहुंच चुके लोगों को लेकर क्या एहतियात बरती जा रही है?
हमारे इन सवालों के बीच ये बेबस-बेसहारा लोग शायद अपना भी एक सवाल कर रहे हैं-
क्या हम सिर्फ वोट बैंक हैं? क्या हम गैरजरूरी हैं?
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