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COVID-19 लॉकडाउन: गरीबों की हालत गवाह है कि सरकार के पास विजन नहीं

COVID-19 लॉकडाउन के बीच बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन

कपिल सिब्बल
नजरिया
Updated:
COVID-19 लॉकडाउन: गरीबों की हालत गवाह है कि सरकार के पास विजन नहीं
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COVID-19 लॉकडाउन: गरीबों की हालत गवाह है कि सरकार के पास विजन नहीं
(फोटो: Altered By The Quint)

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जो लोग हमारे देश का भाग्य तय करते हैं उन्हें अपनी आखें खोलकर रखनी चाहिए कि हम जिस भारत में रहते हैं वहां हालात हर जगह एकसमान नहीं हैं. भारतीयों का एक तबका है, शहरों में रहने वाले लोगों और ग्रामीण भारत में रहने वाले चंद विशेषाधिकार प्राप्त भूस्वामियों का, जो अपने घरों में आराम की जिन्दगी जीते हैं.

ये वही लोग हैं जो बगैर किसी अपवाद के लॉकडाउन का स्वागत कर रहे हैं. इन्होंने सोशल डिस्टेन्सिंग का बिगुल बजाए जाने का भी साथ दिया है. हमारे राजनीतिज्ञों तक पहुंच रखने वाले उच्च पदों पर विराजमान नौकरशाहों की टोली और नीति निर्माता भी इसी श्रेणी में आते हैं. लेकिन इस अभिजात्य वर्ग से इतर भी एक दुनिया है जो लॉकडाउन की स्थिति में खुद को संभालने और सामाजिक दूरी को बनाए रखने की स्थिति में नहीं है.

ऐसे करोड़ों लोग जो उतने विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हैं, घनी आबादी वाली संकरी गलियों में एक-दूसरे से चिपककर जीते हैं. कई लोग हैं जो किराए के आश्रय को साझा करते हैं और हर सुबह काम की खोज में निकल पड़ते हैं. वे शाम होने पर इस उम्मीद में अपने घरों को लौट आते हैं कि अगले दिन काम मिलेगा.

अक्सर इनके घर एक कमरे के होते हैं जिसमें 10 से 12 या फिर इससे भी ज्यादा लोग शरण लेते हैं. बड़े शहरों में आबादी के 40 फीसदी और देश के बाकी हिस्सों में शायद अच्छी खासी संख्या में लोग झोपड़ियों में रहते हैं. उनके पास भी जगह नहीं होती. भेदभाव के शिकार करोड़ों लोग अपनी हिफाजत के लिए बस्तियों में अलग-थलग जिन्दगी जीते हैं और स्वतंत्रता से वंचित होकर अपनी बस्ती के बाहर जीने को मजबूर हैं.

फिर, सड़क के रेहड़ी वाले हैं जो दिन में कमाते हैं और रात को अपने घरों को लौट जाते हैं. रिक्शा खींचने वाले, जो तिपहिया टैक्सी, ट्रक और बस चलाते हैं, वे दिन में कमाते हैं ताकि अपने परिवार का पेट भर सकें. देशभर में फैले गांवों में लोग एक-दूसरे के बहुत करीब रहते हैं. इन सभी श्रेणी के लोगों के लिए सोशल डिस्टेन्सिंग कोई विकल्प नहीं है. उनके लिए लॉकडाउन भी कोई विकल्प नहीं. यहां तक कि अगर वे उन जगहों से बाहर नहीं भी निकलें जहां वे रहते हैं तो यह संभव नहीं है कि वे अपने घरों में बंद रहें. उन्हें बाहर निकलना होगा और जिन्दा रहने के लिए बुनियादी जरूरतों तक पहुंचना होगा. इस प्रक्रिया में वे सोशल डिस्टेन्सिंग को बरकरार नहीं रख सकते.

बगैर भोजन-पानी के पैदल चलते लोगों को देखना दिल दहलाने वाला

हाल के दिनों में हमने महसूस किया है कि लोग अपने घर पहुंचने की उम्मीद में ट्रकों में भेड़-बकरियों की तरह लद कर निकले हैं.

प्रवासी मजदूरों और रोजगार से हाथ धो चुके निराश लोगों को बगैर भोजन-पानी के सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलते हुए देखना दिल दहलाने वाला है.
लॉकडाउन के दौरान गुजरात के सूरत से पलायन करते लोगों की तस्वीर(फोटो: PTI)

ये तस्वीरें सोशल मीडिया पर देखी जा सकती हैं. रास्ते भर मौत उनका पीछा करती है. लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं है. राज्यों के पास न तो तंत्र है ना ही संसाधान कि ऐसे लोगों का ख्याल रख सकें. दूसरी ओर लाखों लोग हाईवेज पर मदद का इंतजार कर रहे हैं.

लॉकडाउन के दौरान गाजियाबाद से एक तस्वीर(फोटो: PTI) 

प्रवासी मजदूर भी शहरों में फंसे हुए हैं जिनके पास रहने की कोई जगह नहीं है या कोई यातायात के साधन नहीं हैं कि वे अपने-अपने गंतव्य स्थानों तक पहुंच सकें. अकेले दिल्ली में, हम गवाह हैं कि जब से राजधानी में शट डाउन हुआ है, हजारों प्रवासी मजदूर निगमबोध घाट के पास यमुना पुश्ता के पास बैठे हुए हैं. उनके पास भोजन नहीं हैं क्योंकि वे भीड़ में बैठे हैं, काम नहीं है, आमदनी नहीं है. इतने शेल्टर होम नहीं हैं कि इन्हें उनमें रखा जा सके. करीब 3 हजार लोग फुटपाथ पर रात गुजार रहे हैं. उनके लिए एक मात्र उम्मीद है सीसगंज गुरुद्वारा, जहां उन्हें हर सुबह 7 बजे एक रोटी मिल जाती है. उसके बाद वे उम्मीद करते हैं कि कोई परोपकारी संगठन उन्हें भोजन करा दे. सरकार को जहां तक पहुंचना चाहिए, वो दिखाई नहीं देती. अगर वायरस फैलता है तो ये लोग आसान शिकार होंगे.

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का ऐलान बगैर सोचा समझा नीतिगत नुस्खा

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का ऐलान बगैर सोचा समझा नीतिगत नुस्खा भर था. इस महामारी से निपटने के लिए जिस तरीके से सरकार सामने आई, उसमें एक विजन का पूरी तरह से अभाव दिखा. इसने इस आरोप को साबित कर दिखाया कि सरकार संवैधानिक जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह है और उसे कतई पता नहीं है कि किस तरीके से इस जिम्मेदारी को निभाना है.

इस नीतिगत नुस्खे का उन लोगों ने बुलंद आवाज में समर्थन किया जो पहले से सुरक्षित हैं. असुरक्षित लोगों के लिए इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है.

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन बेवजह है. जिन लोगों के जीवन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ने वाला है, उनकी पहचान करते हुए प्रभावी तरीके से स्थिति संभालने के लिहाज से कोई भावी योजना और तैयारी नहीं दिखी. व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध बेवजह है. लॉकडाउन का तत्काल परिणाम सामने है. जिन्दगियां तबाह हो रही हैं.

लॉकडाउन के दौरान लखनऊ से एक तस्वीर(फोटो: PTI)

सरकार को नहीं पता, कैसे करना है गरीबों का भला

सरकार को बेशक अपनी नीति लागू करने का अधिकार है लेकिन वो इससे जुड़े कर्त्तव्य पूरे करने के लिए भी बाध्य है. वही कर्त्तव्य यह सुनिश्चित करता है कि सरकार नीतियां लागू करते समय जनता के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन नहीं करेगी. जीने के लिए कमाना बुनियादी अधिकार है. सरकार ने करोड़ों लोगों से यह अधिकार छीन लिया है. ऐसे लोगों की मदद करते हुए ही इसकी क्षतिपूर्ति की जा सकती है ताकि वे खुद को बचाए रख सकें. सरकार ने कोई ऐसा तरीका नहीं अपनाया है जिससे वो कमजोर और वंचित तबके तक पहुंच सके. जिन्दगी बचाने के बजाए इतने कठोर और असंवेदनशील तरीके ने जिन्दगियों को खतरे में डाल दिया है.

जब हमारे प्रधानमंत्री घोषणा कर रहे थे तो उन्होंने 21 दिन के लॉकडाउन के बुरे नतीजों के बारे में लोगों को बताना जरूरी नहीं समझा. वास्तव में उन्होंने लॉकडाउन को लेकर तैयार होने के लिए लोगों को केवल चार घंटे का समय दिया.

इसके विपरीत ‘जनता कर्फ्यू’ की सफलता के लिए सहयोग मांगते हुए चार दिन का नोटिस पीरियड दिया गया था. अपने सार्वजनिक संबोधन में उन्होंने यह भी नहीं बताया कि 21 दिन के बाद सरकार क्या करेगी? वास्तव में उन्होंने विश्वास दिलाया कि इस लॉकडाउन और सोशल डिस्टेन्सिंग के बाद हमारे बुरे दिन बीत जाएंगे. वास्तव में बुरे दिन अब आने वाले हैं. वित्त मंत्री के पैकेज के साथ-साथ आरबीआई गवर्नर की ओर से की गई घोषणा, दोनों मिलकर भी उन मुद्दों का हल नहीं देते, जिससे हमारे देश के लोग जूझ रहे हैं. इन सबके बीच बेशक गृह मंत्री जो बाकी मौकों पर हमेशा आगे आकर मोर्चा संभालते हैं, अक्सर ऐसा आभास कराते हैं कि वे मजबूत और विजेता हैं, लेकिन राष्ट्रीय आपातकाल के मौके पर साफ गायब हैं.

हम जबकि कोरोना वायरस और उससे पैदा हुई स्थितियों से निपटने की कोशिश में हैं, भारत के नीति निर्धारकों को अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करने की जरूरत है कि अभी हम पर्याप्त रूप से संकट का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं. हमें लोगों को समाधान देना होगा और भरोसा दिलाना होगा कि जो इलाज होगा, वो बीमारी से बुरा नहीं होगा. भारत के करोड़ों गरीब बदकिस्मत हैं कि उनकी सरकार उनका भला तो करना चाहती है लेकिन जानती नहीं कि कैसे करें.

(लेखक कांग्रेस के राज्यसभा सांसद हैं.)

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Published: 29 Mar 2020,03:26 PM IST

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