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एक मामूली सी बात से केंद्र की मोदी सरकार को दिक्कत है कि उसकी आलोचना क्यों होती है? दुनिया में आजतक ऐसी कोई भी सरकार नहीं हुई, जिसकी आलोचना नहीं हुई हो. मोदी कहने को तो रैलियों में कहते रहे हैं कि आलोचक जितने मुखर होंगे, उनकी चमक उतनी बढ़ेगी. उनकी ताकत उतनी बढ़ेगी. लेकिन सच ये है कि आलोचना उन्हें भयभीत करती है. इसलिए अपने तमाम आलोचकों को विपक्षी स्वर मान लिया है. इसलिए जिन मोर्चों पर वह नाकाम हो रहे हैं, उनकी आलोचना में उन्हें साजिश नजर आने लगी है.
ये सारी बातें नयी नहीं है. लेकिन मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि पिछले दिनों मेरे साथ जिन 52 लोगों के ट्वीट्स सरकार ने ट्विटर से शिकायत करके हटवाए, उनमें कोविड प्रबंधन से जुड़ी अराजकताओं के बारे में तीखी टिप्पणियां थीं, वीडियो थे. हटाये गये ट्वीट्स में उन नारों पर हमले किए गए थे, जो मोदी के तथाकथित सुशासन का प्रचार करते थे. जब इमारत ढहने लगती है, तो नेम प्लेट भी गिरता है. लेकिन मोदी सरकार को नेम प्लेट की चिंता ज्यादा है, इमारत की नहीं.
बंगाल में ताबड़तोड़ रैलियों के समानांतर जब कोविड मरीजो की संख्या बेतहाशा बढ़ने लगी और आलोचनाओं की आंधी सी आ गई, तो मोदी ने देखा कि ज्यादातर राज्य इन स्थितियों से निपटने में नाकाम हो रहे हैं. इसके लिए केंद्र सरकार की स्वास्थ्य नीति की जिम्मेदारी बनती है, लेकिन एक नया नैरेटिव गढ़ा गया ताकि केंद्र सरकार पर सीधी जिम्मेदारी न आए. टीवी चैनलों पर सिस्टम को दोष दिया जाने लगा. यानी आलोचना का रुख मोड़ने की कोशिश की गई. यानी जब आलोचना अनिवार्य हो, तो उसके केंद्र में आने से बचने की कोशिश के तहत सेंसर का सहारा लिया गया. पॉपुलर ट्वीट डिलीट करवाने से लेकर सोशल मीडिया पर आलोचना की सक्षम आवाजों की रीच कम करने तक.
एक कथन इन दिनों हवा में काफी तैर रहा है कि “कुशल और निरंतर प्रचार के जरिये नरक भी स्वर्ग की तरह दिखाया जा सकता है.” यही वजह है कि जब चारों तरफ ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मची हो, ‘मन की बात’ में नरेंद्र मोदी कहते हैं - ''सकारात्मक रहा जाए. विषम परिस्थितियों में नकारात्मकता समाज के लिए सेहतमंद चीज नहीं है.'' ऐसी बातें कोई साधु कहे, तो ठीक है, लेकिन प्रधानमंत्री को तो आरोपों के तीर झेलने ही होंगे, क्योंकि वही हैं जो अपनी तत्परता से माहौल को सामान्य कर सकते हैं. लेकिन अफसोस कि वह ऐसा नहीं कर रहे हैं.
अदूरदर्शिता का सबसे बड़ा उदाहरण ऑक्सीजन प्लांट्स के मामले में बरती गयी भारी लापरवाही है. पिछले साल अक्टूबर में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी एक स्वायत्त संस्था केंद्रीय चिकित्सा सेवा समाज ने ऑक्सीजन प्लांट्स के लिए ऑनलाइन टेंडर मंगाने की सूचना जारी की. इस सूचना में देश के 150 जिला अस्पतालों में खास तकनीक के प्लांट्स लगाने की बात थी, जो सामान्य हवा से ऑक्सीजन को इकट्ठा कर पाइप के जरिये रोगी के बिस्तर तक पहुंचाया जाता. यह संख्या बाद में 162 कर दी गयी, लेकिन पिछले हफ्ते ही स्वास्थ्य मंत्रालय ने ट्वीट करके यह बताया कि इनमें केवल 33 प्लांट्स ही स्थापित हो सके हैं.
एक खबर कहीं पढ़ रहा था कि ऑक्सीजन सिलेंडर बनाने वाले मजदूरों ने टार्गेट पूरा होने तक लंच करने की भी फुरसत खुद को नहीं दी. फेसबुक-ट्विटर पर मरीजों के लिए मदद की अपील की जा रही है. निजी रसूखों से ऑक्सीजन सिलेंडर, अस्पताल में बेड और रेमडेसिविर दवा का इंतजाम लोग एक-दूसरे के लिए कर रहे हैं. सरकार की आलोचना के साथ ही समाज अपनी जिम्मेदारी नहीं भूल रहा है, यह अच्छी बात है. वरना तो पिछले सालों में सरकार ने लोगों के बीच जाति और धर्म के आधार पर दूरी बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है.
अंत में केरल की बात करना चाहता हूं, जिससे मोदी सरकार को सीखना चाहिए था. दिल्ली, एमपी, यूपी और बिहार जैसे दूसरे राज्यों को भी. केरल में ऑक्सीजन जरूरत से अधिक मात्रा में मौजूद है और वहां से तमिलनाडु, कर्नाटक और गोवा में इसकी आपूर्ति की जा रही है. पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ओर्गेनाइजेशन (पेसो) के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में रोजाना 199 मीट्रिक टन ऑक्सीजन का उत्पादन होता है, जबकि कुल क्षमता 204 मीट्रिक टन उत्पादन की है.
सकारात्मकता ये है कि मोदी सरकार इन उदाहरणों से सीखे और संभले, वरना आलोचना उनकी नियति है. वह भी अपनी नियति जानते हैं, लेकिन उन्हें अनुपम खेर जैसे भक्तों का अंत तक भरोसा रहेगा, जो भीषण आपदा से जुड़ी सरकारी अराजकता के बाद भी डंके की चोट पर यह कहते हैं कि आएगा तो मोदी ही.
(पेशे से पत्रकार रहे अविनाश दास ने "अनारकली ऑफ आरा" के साथ अपनी दूसरी पारी फिल्म निर्देशक के रूप में शुरू की है.इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 29 Apr 2021,04:20 PM IST