Home Voices Opinion कोरोना वैक्सीन का खुला बाजार, ‘आधा सुधार’ से हो सकता है बंटाधार
कोरोना वैक्सीन का खुला बाजार, ‘आधा सुधार’ से हो सकता है बंटाधार
कीमतों पर नुकसानदेह नियंत्रण को खत्म करना सही था, परंतु ‘फ्री प्राइसिंग’ सिर्फ आधा सुधार है
राघव बहल
नजरिया
Published:
i
null
(फोटो: Quint)
✕
advertisement
विद्वानों के अनुसार आधी जानकारी खतरनाक होती है, मैं कहता हूं आधा सुधार -बंटाधार. दुर्भाग्यवश सरकार की नयी वैक्सीनेशन व्यवस्था भी 'आधा सुधार’ ही है.
कीमतों पर नुकसानदेह नियंत्रण को खत्म करना सही था. यह निर्माताओं को निवेश पर उचित लाभ सुनिश्चित करेगा. नए निवेश और क्षमता बढ़ाने के लिए यही एकमात्र प्रेरणा है. कोई भी दबाव या सरकारी आदेश कारोबारी को पैसा लगाने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकती, जब तक कि उसे नुकसान हो रहा हो.
परंतु ‘फ्री प्राइसिंग’ यानी खुला बाजार सिर्फ आधा सुधार है. इसलिए सही रास्ते पर होने के बावजूद सरकार को ‘उतावली’, ‘अधूरी रणनीति’ और ‘बड़ी पूंजी के सामने घुटने टेकना’ जैसी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है.
यह रहा सोनिया गांधी की तरफ से प्रधानमंत्री मोदी को लिखे लेटर का कुछ अंश ( मैंने सिर्फ जरूरी वाक्यों को लिया है):
“इस पॉलिसी का मतलब यह हुआ कि भारत सरकार 18 से 45 साल के अपने नागरिकों को मुफ्त वैक्सीन देने की अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है. इस पॉलिसी के नतीजतन वैक्सीन निर्माताओं जैसे द सिरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने आज अलग-अलग कीमतों की घोषणा की है. केंद्रीय सरकार के लिए प्रति डोज ₹150,राज्य सरकारों के लिये प्रति डोज ₹400 और निजी अस्पतालों के लिए प्रति डोज ₹600 . इसका मतलब नागरिकों को महंगा टीका लेने के लिए बाध्य होना पड़ेगा. इससे राज्यों की माली हालत भी बिगड़ेगी.”
पीएम मोदी से सोनिया गांधी
“यह सवाल उठाता है कि किसी एक ही कंपनी की बनाई एक ही वैक्सीन के तीन अलग-अलग दाम कैसे हो सकते हैं? इस भेदभाव वाली मनमानी को तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता. केंद्र सरकार को जो 50% वैक्सीन मिलने जा रही है वो किसको दी जा रही, वो भी हमारे संघीय ढांचे की भावना के मुताबिक पारदर्शी और न्यायसंगत हो.”
पीएम मोदी से सोनिया गांधी
मुक्तबाजार वाले उदारवादियों पर सरकार का पलटवार
विशेषज्ञों की तरफ से भी ऐसे ही विरोध का सामना कर रही सरकार ने जवाब देना शुरू किया है. विशेषकर उन मुक्त बाजार समर्थक उदारवादी और 'बुद्धिजीवी वर्ग' को जो लगातार इन बदलावों की वकालत कर रहे थे .अब सरकारी सूत्रों से सुनने को मिल रहा है कि "अब जब हमने वो कर दिया है ,जो आप चाहते थे, तो आप ने पाला बदल लिया है और फिर विरोध करने लगे हैं. यह तो गलत है !"
क्या यह शिकायत सही है? मेरे जैसे लोग (यानी मुक्त बाजार के समर्थन वाले उदारवादी) अब सरकार का विरोध कर रहे हैं जबकि उन्होंने वही किया जिनकी हम वकालत कर रहे थे? नहीं, यह सही नहीं है. मैं इसकी प्रशंसा करता हूं कि सरकार ने दामों पर से अपना नियंत्रण कम किया है. मैं इसकी भी सराहना करता हूं कि हमने अपने बाजार को विदेशी वैक्सिनों के लिए खोला है. यह दोनों कदम आपूर्ति को बढ़ाएंगे .लेकिन क्या करने को और भी चीजें नहीं बची है ?
“और क्या करना संभव था?”. सरकार यह प्रश्न करके अपना बचाव कर रही है. यह सवाल करके सरकार अपनी वही पुरानी गलती फिर से दोहरा रही है, कि मुक्त बाजार का मतलब होता है मनमाना व्यापार. दरअसल यह मुक्त बाजार के प्रति उनकी नकारात्मक सोच को प्रमाणित करता है. वह कभी समझे ही नहीं, दरअसल समझना ही नहीं चाहते हैं कि मुक्त बाजार और ‘मनमाने कारोबार’ में उतनी ही समानता है जितनी मिल्टन फ्रीडमैन और कार्ल मार्क्स में है. मुक्त बाजार प्रतियोगी, पारदर्शी नियंत्रण और उत्पादकों तथा ग्राहकों के लिए संतुलित व्यापार माहौल का निर्माण करता है. दूसरी तरफ खुली आजादी अराजक, शोषक और अपमानजनक है. दोनों को एक समझ सरकार अपनी अज्ञानता ही दिखा रही है
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
नयी वैक्सीन पॉलिसी- मुक्त बाजार से खुली अराजक अजादी
मैंने खुली आराजक आजादी पर यह छोटी क्लास क्यों ली? क्योंकि मोदी सरकार ने बिना अतिरिक्त नियंत्रण को परिभाषित किए वैक्सीन के दाम को नियंत्रणमुक्त कर के वैक्सीन के लिए मुक्त या प्रतिस्पर्धी बाजार नहीं बनाया है, बल्कि अराजकता की अवधारणा को ही आगे बढ़ाया है.
याद रखिए ,वर्तमान बाजार में एकाधिकार है यानी यहां सिर्फ एक उत्पादक है जिसके पास 90% बाजार है और चूंकी वैक्सीन जिंदगी के लिए आवश्यक उत्पाद है, उत्पादक अपनी एकाधिकारवादी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है. कल्पना कीजिए,
क्या होगा जब पानी और बिजली (दोनों जिंदगी के लिए आवश्यक हैं) का एकमात्र डिस्ट्रीब्यूटर हो. वह जिससे चाहे, जो दाम ले. वह जिसका चाहे कनेक्शन बंद कर दे. उदाहरण के लिए वह मुझसे ₹100 प्रति लीटर दाम मांग सकता है और मेरे पड़ोसी को मुफ्त में दे सकता है. वह चाहे तो मुझ पर 100 लीटर की अधिकतम सीमा बांध दे और मेरे पड़ोसी को गैलन भर भर के पानी दे. ऐसा लगेगा हम मानो जंगल में जी रहे हों. है ना? इसलिए एकाधिकार वाली शक्तियों और दामों पर न्यायसंगत नियंत्रण होना चाहिए.
वैक्सीन मार्केट पर नियंत्रण जरूरी
जब तक भारत में दूसरी वैक्सीन नहीं आ जाती और सीरम इंस्टीट्यूट का मार्केट शेयर लगभग 30 से 40% तक नहीं गिर जाता, हम वैक्सीन मार्केट को खुली आजादी नहीं दे सकते. निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए पारदर्शी नियम बनाने होंगे:
सीमित वैक्सीन आपूर्ति का आवंटन प्रतिस्पर्धी राज्यों के बीच कैसे हो ? स्वभाविक है यह पूरी आपूर्ति सिर्फ "कैश रिच" राज्य को नहीं की जा सकती, जो त्वरित भुगतान के लिए तैयार हों. गरीब राज्यों के अधिकारों की भी सुरक्षा होनी चाहिए.
राज्य और निजी अस्पतालों के बीच आपूर्ति का आवंटन कैसे हो? चूंकी सीरम इंस्टीट्यूट, हॉस्पिटलों को आपूर्ति पर 50% ज्यादा लाभ कमाएगा, उन्हें ही ज्यादा सप्लाई की कोशिश हो सकती है,जिसपर नियंत्रण जरूरी है. इस बात का ध्यान रखना होगा कि राज्यों को न्याय संगत रूप से उनका वैध हिस्सा मिले.
चूंकी केंद्र सरकार के नियंत्रण में भारी छूट वाली 50% वैक्सीन है, उसे न्यायसंगत रूप से उनका आवंटन राज्यों को करना होगा. केंद्र सरकार कुछ राज्यों के वैध हकों को नकार कर अन्य राज्यों को उनकी जरूरत से ज्यादा आवंटन नहीं कर सकती. क्योंकि इससे राज्यों पर अतिरिक्त वित्तीय भार पड़ेगा. उन राज्यों को हरेक 1 करोड़ वैक्सीन के लिए अतिरिक्त 250 करोड़ देने होंगे और इसकी वजह केंद्र सरकार के द्वारा जानबूझकर किया गया गलत आवंटन होगा.
मुझे लगता है कि अब आप समझ गए होंगे कि मेरा यह कहने से क्या मतलब था कि वैक्सीन की "फ्री प्राइसिंग" वाले नए नियम संभावित आधा सुधार-बंटाधार है. जब तक कि एकाधिकार रोकने के लिए ठोस नियम नहीं बनाए जाते और राज्यों तथा निजी अस्पतालों के बीच न्यायसंगत रूप से वैक्सीन का आवंटन नहीं होता, हम अराजकता और दुरुपयोग को ही बुलावा दे रहे हैं.
अब गेंद पूरी तरह से मोदी सरकार के पाले में है .
संघवाद का तकाजा है कि सरकार एक वैक्सीनेशन परिषद का गठन करे (GST परिषद के तर्ज पर) ताकि वह न्यायसंगत कदम उठाए और उससे भी जरूरी है कि न्यायसंगत लगे.