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एक ओर जहां कोरोना की दूसरी लहर ने देश को हलकान कर रखा है वहीं जनता वैक्सीन का बेसब्री के साथ इंतजार कर रही है. लेकिन वैक्सीन के अलग अलग दाम और केंद्र की वैक्सीन खरीद प्रक्रिया ने भम्र की स्थिति पैदा कर दी है. इस विवाद की शुरुआत तब ही हो गई थी जब कोरोना वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों ने वैक्सीन के दाम अलग अलग घोषित कर दिए. SII (सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया) और भारत बायोटेक ने राज्यों की तुलना में केंद्र सरकार को कम दामों में वैक्सीन दिया. और राज्य सरकारों को निजी बाजार से कम कीमत पर वैक्सीन मिल रही है.
इस समस्या को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने खुद से संज्ञान लेते हुए सरकार को वैक्सीन की कीमतों पर नियंत्रण रखने और वैक्सीन के दामों पर नजर रखने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग की व्यवस्था बनाने को कहा.
कानूनी तौर पर दवाओं के दाम पर तीन तरह से नियंत्रण रखा जाता है.
पहला रास्ता है असेंशियल कमोडिटी एक्ट, 1955 के तहत आने वाला ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर 2013(DPCO).
ऐसी दवाओं को 5 साल के लिए DPCO से छूट मिलती है. इसका मतलब ये है कि भारत बायोटेक की कोवैक्सीन DPCO के नियंत्रण के तहत फिलहाल नहीं लाई जा सकती है. क्योंकि इसे देश में सरकारी वैज्ञानिक संस्थानों जैसे इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (ICMR) और नेशनल इंटिट्यूट ऑफ वैक्सीन (NIV) की ओर से तैयार किया गया है. सरकार अगर चाहे तो बिना हिचकिचाहट के कोवैक्सीन को संरक्षण देनेवाले इस DPCO के नियम में संशोधन कर बदलाव ला सकती है. लेकिन अगर सरकार SII के कोविशील्ड को ड्रग प्राइस कंट्रोल की सूची में लाना चाहे तो वो ऐसा नहीं कर पाएगी क्योंकि ये दवा भारत की बजाए UK में तैयार की गई थी.
कोविड वैक्सीन के मामले में अब चूंकि कई राज्य सरकारों ने ये घोषणा कर दी है कि वे वैक्सीन को मुफ्त में मुहैय्या कराएंगी इसलिए निजी तौर पर बाजारों में वैक्सीन की खुदरा कीमतें चिंता का विषय है.
अगर हम ये मान भी लें कि DPCO, 2013 खुदरा मूल्यों का निर्धारण नहीं करती हैं तो भी केंद्र सरकार या साफ तौर से कहें तो रसायन और उर्वक मंत्रालय का औषधि विभाग कोरोना जैसी महामारी के दौर में भी वैक्सीन के दामों पर नियंत्रण कसने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के तहत एक विशेष DPCO की घोषणा कर सकता था.
कोरोना वैक्सीन को लेकर कुछ लोगों ने, जिसमें अदालतें भी शामिल है, ने एक और विकल्प सुझाया है जिसमें इन वैक्सीन को अनिवार्य लाइसेंसिंग के तहत लाने का सुझाव दिया है. सैद्धांतिक रूप से भी चूंकि पेटेंट कंट्रोलर अनिवार्य लाइसेंसिंग के तहत वैक्सीन के दामों को अगर तय करेगा तो दवा उत्पादकों की संख्या बढ़ेगी और वैक्सीन के दाम कम हो सकेंगे.
पहली बार वैक्सीन बनाने के लिए, लिए गए बायोलॉजिकल सैंपल्स कंपनी द्वारा उपलब्ध नहीं कराए जाने पर भी दोबारा वही वैक्सीन तैयार करना सम्भव नहीं हो सकता. क्योंकि वैक्सीन को दोबारा तैयार करने के लिए फिर से एक बार क्लिनिकल ट्रायल की प्रक्रिया अपनानी होगी जिसमें समय और खर्च दोनों लगेगा. इसलिए वैक्सीन टेक्नोलॉजी के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का विकल्प व्यवहारिक साबित नहीं होगा.
तीसरा विकल्प, जिस पर सबसे कम ध्यान दिया गया, वह यह कि सरकार भारत बायोटेक के साथ कॉन्ट्रैक्चुअल क्लॉसेस के तहत सरकारी फंडिंग का इस्तेमाल करे जो कंपनी को खुद दाम कम करने के लिए मजबूर करे. फंडिंग एग्रिमेंट में इस तरह का क्लॉज है भी या नहीं, फिलहाल हमें इसकी जानकारी नहीं है क्योंकि सरकार ने इस एग्रिमेंट को अब तक सार्वजनिक नहीं किया है.
ये ऐसा बाजार है जहां केवल एक खरीदार है. जो खरीदार को मोलभाव करने के बेहतर मौके देता है. ये एक तरह का वास्तविक मूल्य नियंत्रण है.
खरीदार के बाजार को तोड़ने का यह फैसला, राज्यों को वैक्सीन निर्माताओं के साथ अलग से बातचीत करने के लिए मजबूर करने वाला 'बुरा अर्थशास्त्र' है. - आशीष कुलकर्णी और मुरली नीलकांतन के चर्चा के अंश
(लेखक आईपी, दवा विनियमन, पारदर्शिता और राजनीति में रुचि रखने वाले वकील हैं. वे @ Preddy85 नाम से ट्वीट करते हैं. ऊपर दी गई राय और विचार लेखक द्वारा व्यक्त अपने निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही उसके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 01 May 2021,10:19 AM IST