मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019कोरोना से जीतना है तो जनता से अधिकार छीनने नहीं, देने होंगे

कोरोना से जीतना है तो जनता से अधिकार छीनने नहीं, देने होंगे

न्यूजीलैंड का अनोखा लोकतांत्रिक प्रयोग

मयंक मिश्रा
नजरिया
Updated:
जर्मनी में बोरोजगारी रोकने का बड़ा कदम
i
जर्मनी में बोरोजगारी रोकने का बड़ा कदम
(फोटो: क्विंट)

advertisement

कोरोना संकट के बीच हंगरी के ‘मजबूत’ नेता ने कैसे अपने आप को और शक्तिशाली बना लिया, इसके बारे में हम काफी पढ़ चुके हैं. महामारी के दौरान ही वहां की संसद ने यह प्रस्ताव पारित किया कि वहां के प्रधानमंत्री विक्टर के पास अनिश्चित काल तक के लिए निरंकुश सत्ता होगी. कहने का मतलब कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा जैसा शक्तिशाली हो गए वहां के प्रधानमंत्री और सारा पावर बिना किसी चेक्स और बैलेंस के.

लेकिन इसी दौरान न्यूजीलैंड में जो हुआ वो अपने आप में मिसाल है. कोरोना से लड़ने के लिए देश में इमरजेंसी लगी. लेकिन सरकार निरंकुश ना हो जाए, इसीलिए विपक्ष के नेता की अध्यक्षता में 11 सदस्यों की एक सेलेक्ट कमेटी बनी जिसका काम है इमरजेंसी के दौरान सरकार के हर फैसले की समीक्षा करना. उस कमेटी में अध्यक्ष सहित 6 सदस्य विपक्ष के हैं और 5 सत्ताधारी पक्ष के. कमेटी हफ्ते में 3 दिन ढाई घंटों की बैठक करती है. और सरकार इन सिफारिशों को मानती भी है.

न्यूजीलैंड का अनोखा लोकतांत्रिक प्रयोग

कमेटी ने पहली बैठक में तय किया कि सरकार को ज्यादा टेस्ट करना चाहिए ताकि कोरोना संक्रमण कितना फैला है इसका सही आकलन हो सके. इससे वायरस के रोकथाम में सहूलियत होगी. सरकार को कमेटी की बात माननी पड़ी. मतलब इमरजेंसी में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूती से काम कर रहा है.

हंगरी और न्यूजीलैंड की अलग-अलग स्टाइल का नतीजा देखिए. जहां हंगरी के मजबूत तानाशाह नेता कोरोना के खिलाफ लड़ाई में हारे हुए दिख रहे हैं, अत्यंत ही लोकतांत्रिक न्यूजीलैंड इस लड़ाई में पूरी दुनिया में रोल मॉडल बन कर उभरा है. हंगरी में कोरोना बीमारी से डेथ रेट पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा में से एक है जबकि न्यूजीलैंड फिलहाल के लिए कोरोना से मुक्त हो गया है.

न्यूजीलैंड की ‘जनता के लिए, जनता वाली’ सरकार अकेली नहीं है जिसने महामारी के दौर में भी सिर्फ जनता का ही खयाल रखा है. एक और महिला नेता और जर्मनी की चांसलर एंजला मर्कल ने साबित कर दिया है कि बड़े संकट के दौर में जनता को सशक्त किए बगैर कोई भी जंग नहीं जीती जा सकती है. कोरोना जैसी बीमारी से तो बिल्कुल ही नहीं.

मर्कल खुद क्वांटम केमिस्ट्री में पीएचडी हैं और उनका एक विडियो, जिसमें वो लॉकडाउन से कैसे निकला जाए पर चर्चा कर रही हैं, सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया में काफी वायरल भी हुआ है. जनता को राहत पहुंचाने के लिए जितना जर्मनी में खर्च किया गया है शायद दुनिया के और किसी देश में  नहीं हुआ है.

जर्मनी में बोरोजगारी रोकने का बड़ा कदम

जर्मनी में एक सिस्टम लागू किया गया है, जिसके तहत इस आर्थिक संकट के दौर में निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों की दो तिहाई तक सैलरी सरकार दे रही है. इसका फायदा करीब 23 लाख कर्मचारियों को मिलने वाला है. सीएनबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसका कुल बिल आएगा करीब 10 अरब यूरो. ऐसा ही सिस्टम जर्मनी में 2008 के वैश्विक मंदी के बाद भी लागू किया गया था. और इसकी वजह से तब वहां बेरोजगारी की दर में बढ़ोतरी नहीं हुई थी.

जर्मनी में कोरोना का संकट कंट्रोल में दिख रहा है और वहां का डेथ रेट दुनिया के किसी भी बड़े देश के मुकाबले काफी कम है. जनता के सशक्तिकरण का शायद यही फायदा होता है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

महामारी के बीच चुनाव, दक्षिण कोरिया ने वो करके दिखाया

इस संकट के बीच दक्षिण कोरिया ने भी एक मिसाल पेश की है. इसीलिए पूरी दुनिया में दक्षिण कोरिया के दो मॉडल की बात हो रही है. एक कि कोरोना से कैसे लड़ा जाए और दूसरा कि इस दौरान चुनाव कैसे कराए जाएं.

जहां दुनिया के 47 देशों ने कोरोना की वजह से अलग-अलग स्तर के चुनाव टाले, कोरिया ने ऐसा नहीं किया. दक्षिण कोरिया के पास चुनाव नहीं कराने के कई बहाने थे- चीन के बाद कोरोना का हॉट स्पॉट दक्षिण कोरिया ही बना था, सत्ताधारी पार्टी की अप्रुवल रेटिंग नीचे थी, अर्थव्यवस्था में सुस्ती के संकेत थे और इस सबकी वजह से वहां के राष्ट्रपति की डेमोक्रेटिक पार्टी को शायद हारने का भी डर था.

लेकिन कोई बहाना नहीं बनाया गया. चुनाव समय से हुए, वोटर टर्नआउट 26 साल में सबसे ज्यादा रहा और डेमोक्रेटिक पार्टी को बंपर जीत मिली. वहां भी जनता पर भरोसा किया गया. और जैसा कि हमें पता है कि दक्षिण कोरिया में भी कोरोना काबू में है.

स्वीडन में कोई लॉकडाउन नहीं

इस महामारी के दौरान स्वीडन उन चुनिंदा देशों में एक रहा है जहां किसी तरह का लॉकडाउन नहीं हुआ. हां, लोगों से घर से ही काम करने की अपील की गई. लेकिन स्कूल खुले रहे, बार और रेस्टोरेंट भी कभी बंद नहीं हुए.

यह बात सही है कि स्वीडन में कोरोना से मरने वालों की तादाद तुलनात्मक रुप से ज्यादा है. लेकिन नई रिसर्च में सामने आया है कि इस दौरान जहां दूसरे देशों में दूसरी बीमारियों से ज्यादा मौते हुई हैं, स्वीडन में ये संख्या काफी कम है. वहां की अर्थव्यवस्था को भी झटके लगेंगे. लेकिन उतना नहीं जितना दूसरे देशों को और रिकवरी भी शायद दूसरे देशों से पहले हो. और वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन का कहना है कि लॉकडाउन से बाहर आने वाले देशों को स्वीडन से यह सीख लेना चाहिए कि लोगों पर कैसे भरोसा किया जाए.

ये भी पढ़ें : कोरोना संकट: म्यूचुअल फंड में निवेश का अभी सही समय क्यों है?

ये कहानियां क्या कहती हैं? सबसे बड़ी बात कि वो पॉलिसीज, जिसमें जनता को प्राथमिकता दी गई है, वो कोरोना से लड़ाई में ज्यादा कारगर साबित हुई है. लोगों को भरोसा में लेना सही तरीका है. वो नहीं जो शायद अमेरिकी राष्ट्रपति, लगातार बयान बदलकर और सबकी क्रेडिट हड़पकर, करना चाह रहे है. क्या यही वजह है कि दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमेरिका कोरोना के सामने लाचार ही नजर आ रहा है. कम से कम अब तक की कहानी तो यही है.

क्या हमारे हुक्मरान इन कहानियों पर गौर फरमाएंगे और जनता फर्स्ट वाली पॉलिसी से कोरोना पर विजय पाने की कोशिश करेंगे?

ये भी पढ़ें- कोरोना के कारण बाजार में उतार-चढ़ाव- SIP लीजिए मस्त हो जाइए

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 07 May 2020,03:03 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT