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अर्थशास्त्री इजाबेला एम वेबर (Isabella M Weber) को हाल ही में टाइम्स100 की मोस्ट इन्फ्लूएंशियल लोगों की लिस्ट में शामिल किया गया है. अमेरिका और ईयू के संदर्भ में उनके लेख में सेलर्स इन्फ्लेशन (seller’s inflation यानी विक्रेता जब किमतों में बढ़ोतरी करते हैं) के बारे में बताया गया है कि जिसमें कंपनियां, खासतौर से ओलिगोपोलिस्टिक मार्केट (ऐसे बाजार जहां चंद कंपनियों के पास किसी प्रोडक्ट का मार्केट शेयर पर कब्जा होता है) में बहुत ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए कीमतें ऊंची रखी जाती हैं.
दरअसल ऐसी महंगाई को लालच के चलते जानबूझ कर पैदा किया जाता है जो सबसे कमजोर और गरीब लोगों पर टैक्स के रूप में आती है.
हालांकि पिछले साल से एनर्जी की कीमतों में भारी कमी आई है, मगर इसका असर अभी भी यूरोप के आम परिवारों को चुभ रहा है.
बड़ी ताकतों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता की तनातनी में यूरोप फंसा हुआ है, और कोविड महामारी के दौर में सप्लाय चेन में रुकावट से हालात और बदतर होने का नतीजा ट्रांसपोर्ट की बढ़ी लागत के रूप में सामने आया, जिससे जरूरी चीजें महंगी हुईं.
रूस और यूक्रेन दोनों ही निर्यात पर आधारित अर्थव्यवस्थाएं हैं, और यूक्रेन दुनिया का एक बड़ा एनर्जी सप्लायर है. गेहूं जैसे फूड आइटम भी दोनों देशों से निर्यात किए जाते हैं, जो दुनिया की मांग का 30 फीसद है. एशिया और अफ्रीका के देश इन दोनों देशों की बदौलत अपनी खाद्य आयात की जरूरतों को पूरा करते हैं.
इन हालात में हमें भारत की अपनी एनर्जी जरूरतों और मौजूदा सरकार में अपनाए गए मूल्य निर्धारण उपायों की जरूर जांच करनी चाहिए.
जब से बीजेपी सत्ता में आई है, भारत में तेल आयात की मांग लगातार बढ़ रही है. साल 2014 से 2022 के दौरान कच्चे तेल और दूसरे पेट्रोलियम उत्पादों का आयात लगभग तीन गुना हो गया है.
इसी अवधि में एनर्जी की बढ़ती मांग का मर्चेंडाइज आयात में भी हिस्सा बढ़ा है, तेल उत्पादों के आयात का खर्च अप्रैल 2014 में 78,281 करोड़ रुपये से लगभग दोगुना होकर जुलाई 2022 में 1,68,226 करोड़ रुपये हो गया है (नीचे देखें).
हालांकि यह बढ़ता आयात खर्च किसी भी सरकार के लिए समस्या हो सकता है, लेकिन सरकार टैक्स बढ़ाकर पेट्रोल और डीजल जैसे तेल उत्पादों की कीमतों को सीमित दायरे में रखने में कामयाब रही है.
तेल और पेट्रोलियम उत्पादों पर लगाए गए टैक्स की खुदरा कीमतों में बड़ी हिस्सेदारी होती है, जो उपभोक्ताओं की जेब से आता है.
हम दिल्ली का उदाहरण लेते हैं, जहां पेट्रोल की मौजूदा रिटेल कीमत 96.72 रुपये और डीजल की 89.62 रुपये है. इसमें उत्पाद शुल्क (एक्साइज) और वैट कीमत का क्रमशः 36 फीसद और 31 फीसद है.
अक्टूबर 2021 के अंत में एनर्जी की बढ़ती कीमतों के समय, यह हिस्सेदारी क्रमशः 54 फीसद और 49 फीसद हुआ करती थी.
केंद्र सरकार पेट्रोल और डीजल के बेस प्राइस पर उत्पाद शुल्क की एक निश्चित दर रखती है, जिसने ऐसे शुल्कों से राजस्व उगाही पर निर्भरता बढ़ाने में योगदान किया है.
पिछले 10 सालों में पेट्रोलियम सेक्टर से सरकारी खजाने में कुल टैक्स योगदान में पेट्रोल और डीजल पर लगाए उत्पाद शुल्क की हिस्सेदारी तकरीबन 75-90 फीसद है (इसी अवधि में राज्य सरकारों के लिए पेट्रोल और डीजल से वैट की हिस्सेदारी 85-95 फीसद है.)
लंबे समय से साल 2002 तक डीजल और पेट्रोल दोनों की कीमतें सरकार द्वारा तय मूल्य प्रणाली (Administered Price Mechanism) से तय होती थीं, जिसमें दाम में स्थिरता और महंगाई से उपभोक्ताओं को बचाने जैसे मकसद का ध्यान रखा जाता था.
हालांकि यह व्यवस्था खत्म कर दिए जाने के बाद भी IOCL, HPCL और BPCL जैसी सरकारी तेल निर्माता कंपनियों (OMC) की उपभोक्ताओं के हितों को प्राथमिकता देने की कोशिश होती थी.
कोविड के उफान पर होने के दौरान जैसे-जैसे कीमतें बढ़ीं, इन कंपनियों के मुनाफे में भी बढ़ोत्तरी होती गई, और यह तभी रुका जब 2022 की शुरुआत में बढ़ती लागत के बावजूद कीमतों पर रोक लागू कर दी गई. चूंकि उत्पाद शुल्क में कमी के बावजूद पेट्रोल और डीजल की कीमतें 100 रुपये के आसपास पहुंच गई हैं, यह देखना बाकी है कि सरकार उत्पादन कटौती का कैसे सामना करती है.
2024 के आम चुनाव से पहले उत्पादन में कटौती का OPEC का फैसला निश्चित रूप से सरकार के फ्यूल आयात बिल के लिए अच्छा नहीं होगा. इसके अलावा RBI के दखल के बावजूद डॉलर एक्सचेंज रेट पहले से ही रिकॉर्ड ऊंचाई पर है, और मुद्रास्फीति भी पहले से ही ज्यादा है. ऐसे में फ्यूल की लागत में होने वाली बढ़ोत्तरी निश्चित रूप से आग में घी डालने का काम करेगी.
फ्यूल इनफ्लेशन को लेकर हेडलाइंस को मैनेज करने में माहिर मोदी सरकार द्वारा पेश नैरेटिव में हालात वाली कहानी दिलचस्प है.
पहले तो ‘बाहरी वजहों और जियो-पॉलिटिकल मुश्किलों’ का हवाला देते हुए LPG की तरह खुदरा पेट्रोल और डीजल की कीमत को बढ़ाने का मौका दिया जाता है, और साथ ही सरकार को राजस्व बढ़ाने और तेल कंपनियों को असामान्य फायदा कमाने की छूट दी जाती है, और फिर उन्हें थोड़ा सा घटा दिया जाता है— चुनाव की बेला में प्रधानमंत्री की रहमदिली का हवाला देते हुए.
जो जरूरी बात है वह यह है कि इस दुष्प्रचार के धुंद के पार देखा जाए, जिसके पीछे भारत में फ्यूल और उसके साथ सेलर्स इन्फ्लेशन को छिपाकर रखा गया है.
नीचे के चार्ट में बड़ी OMC के नफा/नुकसान का स्तर देखें.
साल 2022 में सबसे निचले स्तर पर जाने के बाद से अब तक कंपनियों ने लगातार मुनाफा दर्ज किया है.
अगर हम नीचे दिए गए आंकड़े में कुल महंगाई और कच्चे तेल की कीमत के बीच संबंध की प्रकृति को देखते हैं तो पाएंगे कि 2018 के दौरान और 2023 की शुरुआत के बीच, तेल की कीमतों में कमी आने के बावजूद महंगाई ऊंचे स्तर पर बनी रही.
जी हां, कई देशों में कीमतों में शुरुआती बढ़ोत्तरी में सप्लाई की रुकावटों का बड़ा योगदान था, लेकिन अगर सिर्फ भारत के संदर्भ में ध्यान से देखें तो ऊंचे टैक्स/सेस और सरकार द्वारा कम आयात लागत (जब कच्चे तेल की कीमत कम थी) से मिला कम कीमत का फायदा ग्राहकों को देने से इनकार के चलते फ्यूल की कीमतें ऊंची बनी रहीं.
इससे फर्म-स्तरीय परिवहन लागत पर गहरा असर पड़ा और ऊंची लागत से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में मुद्रास्फीति हुई, जिससे ज्यादातर कंपनियों (सिर्फ OMC नहीं) ने गरीबों की कीमत पर मुनाफा कमाया.
नीचे दिया गया चार्ट ऐसे बड़े शहरों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक-तेल मूल्य प्राइस के बीच एक संबंध का खाका पेश करता है जो पूरे देश में शहरी विकास के अगुआ हैं.
इस तरह यह ऐसे जरूरी सवाल हैं जिनका जवाब मोदी सरकार को देना बाकी है क्योंकि वह कम विकास, कम रोजगार और ऊंची मुद्रास्फीति दर जैसे बड़े मुद्दों के साथ 2024 के चुनावी दौर में दाखिल हो रही है.
जब विश्व बाजार में तेल की कीमतें कम हो गईं और भारत सरकार ने सस्ते रूसी कच्चे तेल का आयात किया तो कच्चे तेल की कम कीमत से आयात बिल में आपदा से मिले अवसर से केंद्र सरकार ने कैसे लाभ कमाया? (उपभोक्ता-लागत लाभ की दुहाई देकर ऐसा करना सही ठहराते हुए).
सरकार ने किस हद तक तेल, गैस, पेट्रोलियम और पेट्रोकेमिकल कंपनियों को फायदा कमाने की छूट दी, और उन्होंने कच्चे तेल की सस्ती आयात लागत से दाम में कमी का फायदा उपभोक्ताओं को दिए बिना मुनाफा कमाया?
क्या इन कंपनियों पर (यूरोप की तरह) अप्रत्याशित लाभ कर (windfall profit tax) लगाया जाएगा?
बहुत से सवालों का जवाब मिलना बाकी है.
(दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES), जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के निदेशक हैं. यशोवर्धन चतुर्वेदी CNES में काम करते हैं. यह एक राय है और व्यक्त किए गए विचार लेखक हैं ' अपना. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए ज़िम्मेदार है.) यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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