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गेहूं (Wheat) को डिजिटल नहीं किया जा सकता. क्रिप्टो (Crypto) को आप खा नहीं सकते. लेकिन भारत के नीति निर्माताओं के हाथों दोनों की एक सी गत है. बैन करें, अगर आपके कर सकते है. बैन करें, अगर आप नहीं कर सकते हैं! आइए बात की शुरुआत गेहूं से करते हैं. रूस और यूक्रेन की लड़ाई (Russia-Ukraine war) भारत के गेहूं किसानों के लिए मुनाफा लेकर आई. तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दो साल चले प्रदर्शनों के कारण उनके लिए जो तकलीफदेह हालात पैदा हुए थे, यह एक तरह से उसका दैवीय पुरस्कार था.
युद्ध (War) ने दुनिया की लगभग 40% सप्लाई को रोक दिया जिसके कारण अनेक देश भारत की मंडियों के बाहर कतार लगाकर खड़े हो गए. वैश्विक कीमतों में उछाल आया. और निर्यात में भारत की भूमिका बदल गई. अभी तक निर्यात में उसका छोटा सा हिस्सा है- एक या दो प्रतिशत. छोटा... क्योंकि अब तक रूस के बाद गेहूं के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक भारत को शायद ही निर्यात की जरूरत महसूस हुई हो. हमारी सरकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) आम तौर पर वैश्विक कीमतों से बेहतर होता है. फिर हमें अपनी बड़ी जनसंख्या का पेट भरना होता है. इसलिए हमारी लगभग 99% फसलों की घरेलू खपत होती है.
अचानक, वैश्विक कीमतें एमएसपी (MSP) से एक चौथाई अधिक बढ़ गईं. अगर भारत सरकार प्रति क्विंटल दो हजार डॉलर का भुगतान कर रही थी, तो दुनिया के देश घबराकर ढाई हजार की पेशकश करने लगे. स्वाभाविक रूप से, किसान विदेश की तरफ मुंड़ गए. वे कुछ अतिरिक्त कमाई की उम्मीद में खुश थे, इसके बावजूद कि इस साल फसल बहुत अच्छी नहीं हुई.
हां, हमारे किसानों के सामने एक अजीब द्वंद्व था. मार्च में हीटवेव ने उनकी फसलों को बर्बाद कर दिया था, लगभग एक दशक के बाद राष्ट्रीय उत्पादन 100 मिलियन टन से नीचे गिर गया था. इससे भी ज्यादा भयावह यह था कि सरकारी खरीद 40 मिलियन टन से गिरकर 20 मिलियन से कम हो गई थी.
इसके अलावा चालू वर्ष में इसके दोगुना होने की उम्मीद थी. चिलचिलाती धूप ने जिसे नष्ट कर दिया था, उसे रूस की हमलावर सेना ने दोनों हाथों ने झोली में भरा था.
सो, सुनहरे गेहूं से लदे हजारों ट्रकों और वैगनों ने भारत के बंदरगाहों की राह पकड़ी. जहाज लदने लगे और गोदी में अनाज के भंडार भरने लगे. उम्मीद जताई जाने लगी कि इस बार दोहरा आंकड़ा छू लेंगे क्योंकि निर्यात 10 मिलियन टन से अधिक हो सकता है. यह गेहूं के राष्ट्रीय उत्पादन का एक बटा दसवां हिस्सा है.
बातूनी सरकार ने गाल बजाने शुरू कर दिए. प्रधानमंत्री ने खुश होकर राष्ट्रपति बाइडेन से कहा कि दुनिया को चिंता करने की जरूरत नहीं है. भारत का किसान धरती के हर भूखे का पेट भर सकता है. स्वामिभक्त मंत्रियों और ब्यूरोक्रेट्स ने भी ढोल पीटने शुरू कर दिए. “हम गेहूं के निर्यात को प्रोत्साहित करेंगे, उस पर पाबंदी नहीं लगाएंगे. आखिरकार, हमें जितने अनाज की जरूरत है, हमारे भंडार में उससे ज्यादा है. इसलिए हमारे देश की खाद्य सुरक्षा मजबूत है. आगे बढ़ो किसान!”
इस गहमागहमी में हमारे नीति निर्माताओं ने एक छोटे से आंकड़े पर नजर नहीं फेरी. गेहूं की कीमतों में दोहरे अंक में बढ़ोतरी हुई. आटे की कीमत 35 रुपए प्रति किलो थी. रुपया अपने अब तक के सबसे निचले स्तर 78 प्रति डॉलर की ओर बढ़ रहा था.
तूफान की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन इसे समझदारी भरी नीति के जरिए रोका जा सकता था. उदाहरण के लिए:
250 रुपये/क्विंटल का एक स्पेशल प्लस-एमएसपी बोनस स्थानीय कीमतों को विश्व स्तर के बराबर कर सकता था, जिससे सरकार को मंडियों में अधिक खरीद करने की अनुमति मिल जाती.
आउटफ्लो को थोड़ा कम करने के लिए एक छोटा एक्सपोर्ट टैक्स जोड़ा जा सकता था.
घरेलू उपभोक्ताओं को प्राथमिकता मिलती रहे यह सुनिश्चित करने के लिए न्यूनतम निर्यात मूल्य जैसे टैक्स लगाए जा सकते थे.
मैं ऐसी कई चीजें कर सकता था, लेकिन क्लाउड्स... नील डायमंड मुझे माफ करें, क्लाउड्स नहीं, सरकारी नीति निर्माता... दे गॉट इन द वे! (यहां मैं अमेरिकी सिंगर नील डायमंड का बोथ साइड्स नाउ नाम का गाना याद कर रहा हूं जिसकी लाइनें हैं- बट क्लाउड्स गॉट इन माय वे, यानी मेरे रास्ते में बादल आ गए!)
बैन! रातों-रात गेहूं निर्यात को बैन कर दिया गया. प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता के बावजूद. राजमार्गों पर हजारों ट्रकों के दौड़ने के बावजूद. बंदरगाहों पर आधे लदे जहाजों के फंसे होने के बावजूद. टनों गेहूं के गोदामों में सड़ने के बावजूद. कुछ भी नहीं, बस एक बड़ा, अड़ियल सा बैन!
अब क्या आसमान टूटकर गिरने वाला था, कि 30 दिनों का समय नहीं दिया जा सकता था, जब लेनदेन का काम पूरा हो जाता. और एक निश्चित तारीख से यह पाबंदी लागू होती.
अब आप लोग पूछेंगे कि हम इतना सब लिख गए, लेकिन इसमें क्रिप्टो कहां आया- जिसका जिक्र हमने शुरू में किया था! दोस्तों, धीरज रखिए. क्योंकि यहीं से हम क्रिप्टो की बात शुरू करने वाले हैं. इसके बावजूद कि गेहूं को डिजिटल नहीं किया जा सकता, और क्रिप्टो को हम खा नहीं सकते!
कॉइनबेस अमेरिका में लिस्टेड दुनिया का सबसे बड़ा क्रिप्टोकरंसी एक्सचेंज है जिसकी कीमत लगभग 15 बिलियन डॉलर है. बड़ी भव्यता से इसने भारत के क्रिप्टो क्रेजी मिलेनियल्स को लुभाने की योजना बनाई. बहुत से घरेलू क्लोन्स भी पहले से कॉइन्स को मिंट और माइन कर रहे थे. बड़ी मासूमियत से कॉइनबेस ने कहा कि वह व्यवसाय के लिए भारत के करामाती वर्चुअल पेमेंट गेटअवे यूपीआई, या यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस का इस्तेमाल करेगा.
ऐसे में भारत सरकार खुश हो सकती थी. आखिरकार, यूपीआई एक घरेलू पहल थी, जिसका खुद प्रधानमंत्री मोदी ने प्रचार किया था. आधुनिक, तकनीक संचालित, डिजिटल भारत के सबसे शानदार वर्चुअल प्रतीकों में से एक. इस ओपन सोर्स पेमेंट प्लेटफॉर्म ने कुछ ही महीनों में फर्श से अर्श तक का सफर तय किया है. अपने रोजाना के हजारों लाखों लेनदेन के साथ इसने कई पुराने, अधिक परिष्कृत पश्चिमी प्लेटफॉर्म्स को भी पीछे छोड़ दिया है. आधार की ही तरह इसकी बनावट भी व्यापक और कल्पना से परे है. कॉइनबेस के कारण यूपीआई की इज्जत में चार चांद लगने वाले थे.
लेकिन.... बैन!
“सरकार के बनाए पेमेंट गेटअवे को ऐसे वर्चुअल एसेट्स की ट्रेडिंग के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसकी वैधता अभी साबित होना बाकी है? क्या अवैध ट्रेडिंग में भारत सरकार की मिली-भगत है?”
ऐसी चीख पुकार लगाई गई, सोशल मीडिया पर उन ट्रोल्स ने रेगुलेटर्स को भयभीत कर दिया जिनके पास कोई जानकारी नहीं थी जिसका नतीजा हुआ, “पूरी तरह से बैन”! सभी बैंकों को “औपचारिक रूप से निर्देश दे दिया गया” कि “क्रिप्टो ट्रेडिंग के लिए ऑनलाइन पेमेंट्स की अनुमति न दें.” इससे बड़े पैमाने पर एक गलतफहमी पैदा हुई, जो सिर्फ भारत में ही संभव है. लेकिन जरा इस तर्कहीन नीति पर गौर करें:
इससे पहले कि भारत सरकार इस पर नीति बनाए कि क्रिप्टो ट्रेड वैध है या नहीं, वो इसपर टैक्स लगाती है. मानो सरकार स्मगलर्स से कहे कि वे पंजाब सीमा के आस-पास नशीले पदार्थों के कारोबार का इनवॉयस बनाओ, जीएसटी चुकाओ, फिर हम तुम्हें इस अवैध कारोबार के लिए जेल में डालेंगे??
क्रिप्टो ट्रैड वैध है अगर आप इसे खरीदने के लिए चेक लिख कर अपने बैंक खाते से पैसा ट्रांसफर करते हैं लेकिन अगर आप यूपीआई से ऑनलाइन भुगतान करें तो यह गैरकानूनी है... आपको इस अघोषित बैन की मूखर्ता समझ आई? मेरा मतलब है कि यह मूखर्तापूर्ण है कि रेगुलेटर इस नियम को लिखकर नहीं दे सकते, इसलिए जुबानी जमाखर्च कर दिया. जिसे अंग्रेजी में कहते हैं ‘नज नज विंक विंक’ (nudge nudge, wink wink) यानी धूर्त तरीक से बात कर दी, चूंकि शर्मनाक बात है इसलिए खुले तौर पर नहीं कहा.
क्या आसमान टूटकर गिर जाता है, अगर यूपीआई को ट्रेडिंग में इस्तेमाल किया जाता और सरकार नियम बनाती, न कि सिर्फ बैन लगाया जाता.
यह अजीब है कि हमारे नीति निर्माता शपथ लेते हैं- बैन करो, अगर कर सकते हो, बैन करो, अगर आप नहीं कर सकतो हो!
(राघव बहल द क्विंट ग्रुप, जिसमें BQ प्राइम शामिल है, के को-फाउंडर हैं . उन्होंने तीन किताबें लिखी हैं- ‘Superpower?: The Amazing Race Between China’s Hare and India’s Tortoise’, ‘Super Economies: America, India, China & The Future Of The World’, और ‘Super Century: What India Must Do to Rise by 2050’)
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