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अनुसूचित जातियों में क्यों शामिल होना चाहते हैं ईसाई और इस्लाम अपनाने वाले दलित?

अनुसूचित जातियों को आरक्षण के मसले की जड़ें धर्म, समाज, संस्कृति और राजनीति से गहरी तौर पर जुड़ी हुई हैं.

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30 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलितों को आरक्षण का लाभ देने के मुद्दे पर केंद्र सरकार को उसका रुख रखने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया है. यह मसला वर्ष 2004 से सर्वोच्च न्यायालय के सामने है. सेंटर फॉर पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन ने अपनी पीआईएल 180/04 के जरिए संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के तीसरे पैराग्राफ के संबंध में उठाया है. इस याचिका में इस्लाम और ईसाई धर्म में धर्मांतरित हुए दलितों को अनुसूचित जातियों का लाभ न दिए जाने को अनुच्छेद 14, 15 तथा अनुच्छेद 25 के तहत चुनौती दी गई है.

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अभी तक केवल हिन्दू, सिख और नव-बौद्धों के अस्पृश्य एवं बहिष्कृत वर्गों (जातियों) को ही संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 के तहत अनुसूचित जाति के तौर पर अनुसूचित किया गया है. इस मसले पर अगली सुनवाई आगामी 11 अक्टूबर को होनी है, जहां सरकार इस संबंध में अपनी स्थिति स्पष्ट करेगी.

अनुसूचित जातियों को आरक्षण

अनुसूचित जातियों को आरक्षण के मसले की जड़ें धर्म, समाज, संस्कृति और राजनीति से गहरी तौर पर जुड़ी हुई हैं. मौलिक तौर पर अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने की वजह उनका समाज (गैर-हिन्दू समाज सहित) में बहिष्कृत और अस्पृश्य होना था. हिन्दू धर्मशास्त्रों में अनुसूचित जातियों को बहिष्कृत और अस्पृश्य माने जाने की मान्यता दिखती है. इसी वजह से वह समाज की प्रत्येक सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांकृतिक गतिविधि से दूर थे.

आजादी से पूर्व ईसाई या इस्लाम भी इन बहिष्कृत और अस्पृश्य माने जाने वाले लोगों को अपने धर्म में शामिल कर भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के बहिष्कार का सामना नहीं करना चाहते थे. यही नहीं ईसाई और इस्लाम दोनों ही खुद को अस्पृश्यता-मुक्त बताते हुए अपने यहां अस्पृश्यता को नकारते रहे हैं. ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय में पेश गाजी सादुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र एवं अन्य की दीवानी अपील और पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन 180/04 एवं 94/2005 एवं अन्य याचिकाओं के जरिए ईसाई और मुस्लिम दलितों को अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जाति में शामिल कर आरक्षण की मांग का मुद्दा मौजूदा अनुसूचित जातियों के अधिकारों को हड़पने का प्रयास है.

अनुसूचित जातियां कहां से आईं?

भारत को शासन सौंपने के लिए ब्रिटेन में तीन गोलमेज सम्मेलन हुए. इन सम्मेलनों में डॉक्टर अंबेडकर के प्रयासों के चलते साल 1932 में ब्रिटिश सरकार ने भारत के बहिष्कृत और अस्पृश्य ने पृथक निर्वाचन की घोषणा की. इस घोषणा के तुरंत बाद पूना की यरवड़ा जेल में बंद गांधी जी ने इसके खिलाफ आमरण अनशन कर दिया.

इस अनशन कि परिणति गांधीजी के नेतृत्व में हिन्दू समाज और डॉक्टर अंबेडकर के नेतृत्व में अस्पृश्य समाज के बीच पूना पैक्ट हुआ. पूना पैकट ने देश में भारतीय समाज और “बहिष्कृत और अस्पृश्य समाज” के संबंधों को पुर्न-परिभाषित किया. इसी समझौते के बाद ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 पारित किया, जिसमें दलित वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण शामिल किया गया.

यह आरक्षण 1937 में लागू हुआ. सबसे पहले शैड्यूल्ड कास्ट (अनुसूचित जातियों) को इसी ऐक्ट में परिभाषित किया गया. इस संबंध में ब्रिटिश भारत सरकार (अनुसूचित जाति) आदेश, 1936 में ब्रिटिश-प्रशासित प्रांतों में जातियों का एक शैड्यूल (या अनुसूची) शामिल थी. इस शैड्यूल (अनुसूची) में होने की वजह से ही “अस्पृश्य और बहिष्कृत जातियों” का नाम अनुसूचित जातियां पड़ा.

स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा ने अनुसूचित जातियों की प्रचलित परिभाषा को जारी रखा और अनुच्छेद 341 के तहत - राष्ट्रपति "जातियों, नस्लों या जनजातियों या जातियों, नस्लों या जनजातियों के समूहों या समूहों को निर्दिष्ट कर सकते हैं, जिन्हें अनुसूचित जाति माना जाएगा।" बाद में कान्स्टिटूशन (शैड्यूल्ड कास्ट) आदेश, 1950 के अनुसार संविधान में जातियों का एक शैड्यूल या लिस्ट जारी किया गया. ज्ञातव्य है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी अनुसूचित जातियां हैं. पाकिस्तान सरकार ने 1956 में 32 हिन्दू जातियों को अनुसूचित जातियां घोषित किया.

इस प्रावधान के 1950 में जारी पहले आदेश में केवल “अस्पृश्य और बहिष्कृत” हिंदुओं को ही शामिल किया गया था. सिख समुदाय की मांगों के बाद, 1956 में आदेश को संशोधित करते हुए इसमें “अस्पृश्य और बहिष्कृत” सिखों को शामिल किया गया. 1990 में, सरकार ने “अस्पृश्य और बहिष्कृत” नव-बौद्धों को भी शामिल कर दिया. केन्द्रीय सरकार ने संशोधित आदेश में स्पष्ट किया कि "कोई भी व्यक्ति को, जो हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म को छोड़ अन्य किसी धर्म को मानता है, वह अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा.”

सेंटर फॉर पब्लिक इन्टरेस्ट लिटीगेशन ने अपनी पीआईएल 180/04 के जरिए केन्द्रीय सरकार के संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 को चनौती दी और इसे अनुच्छेद 14 और 15 तथा अनुच्छेद 25 का उल्लंघन बताते हुए इसमें “अस्पृश्य और बहिष्कृत मूल” के गैर-हिन्दू, गैर-सिख एवं गैर-बौद्धों को अनुसूचित जातियों में शामिल कर और उन्हें हिन्दू, सिख और बौद्धों की तरह अधिकार देने का मुद्दा उठाया गया है.

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इस मसले पर अपनी समझ बनाने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की केन्द्र सरकार ने मार्च 2005 में इस मुद्दे को भारत सरकार ने पूर्व मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में गठित “राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग” को “आरक्षण के संबंध में 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा तथा साथ ही अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल किए जाने की रीतियों के संदर्भ में संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 के पैरा 3 से संबंधित उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में दायर की गई रिट याचिकाएं 180/04 तथा 94/05 में उठाए गए मुद्दों के संबंध में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करना”.

राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग ने रंगनाथ मिश्र के नेतृत्व में मई 2007 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. आयोग ने सिफारिश की कि अनुसूचित जाति का दर्जा "धर्मों से पूरी तरह से अलग होना चाहिए और अनुसूचित जातियों को अनुसूचित जनजातियों की तरह पूरी तरह से धर्म तटस्थ बनाया जाना चाहिए." रिपोर्ट को 18 दिसंबर 2009 को संसद के दोनों सदनों में पेश किया गया. पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद फील्ड डेटा के अभाव और भिन्न वास्तविक स्थिति के आधार पर आयोग की सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया गया.

इसके अलावा कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की केन्द्रीय सरकार ने मार्च 2005 में देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय मुस्लिम के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थितियों का अध्ययन करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया. सच्चर कमेटी के नाम से प्रसिद्ध इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि धर्मांतरण के बाद दलित मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हुआ.

उपरोक्त दोनों (जस्टिस मिश्र आयोग और जस्टिस सच्चर कमेटी) रिपोर्टों ने अलग-अलग तरीके से ईसाई और मुस्लिम धर्मों की “अस्पृश्य और बहिष्कृत जातियों को अनुसूचित जातियों कि जमात में शामिल करने की सिफारिश की. लेकिन, जस्टिस मिश्र आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है कि “अन्य पिछड़ा वर्ग की राज्यवार तैयार सूची में धर्म और जाति निरपेक्ष अल्पसंख्यक समुदाय शामिल किए गए थे.

कई राज्यों में नव-बौद्ध, ईसाइयत और इस्लाम में परिवर्तित अनुसूचित जातियों को इन सूचियों मे शामिल किया गया. इसलिए महत्वपूर्ण सवाल यह है कि जब अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में दलित-मूल के ईसाई और मुस्लिम को पहले से ही सरकारी सेवा और शिक्षा में ओबीसी के तहत आरक्षण प्राप्त है, तो उनका इस पीआईएल की मार्फत सर्वोच्च न्यायालय से अनुसूचित जातियों में शामिल किए जाने की मांग करने के कुछ और भी निहितार्थ होंगे, जो आने वाले कुछ दिनों में सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई में सामने आएंगे.

(लेखक नेशनल कोन्फ़ेडेरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ओर्गानाईजेशन्स (नैकडोर) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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