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दलित जाति के बंधन में बंधकर जातिवाद से लड़ेंगे तो उन्नाव,हाथरस,जालोर कैसे रुकेगा

जालोर की घटना एक उदाहरण है जिसे मीडिया ने इतना दिखाया कि लाखों लोग बिना संगठित हुए पहुंच गए.

डॉ. उदित राज
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>दलित जब तक जाति के बंधन में बंधकर जातिवाद से लड़ेंगे- उन्नाव, हाथरस, जालोर होगा</p></div>
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दलित जब तक जाति के बंधन में बंधकर जातिवाद से लड़ेंगे- उन्नाव, हाथरस, जालोर होगा

The Quint

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दलितों और आदिवासियों की खबर मीडिया में तभी छपती है जब कोई उत्पीड़न होता है. जालोर में इंद्र कुमार मेघवाल की हत्या की ख़बर मीडिया में खूब रही. अब मध्य प्रदेश के सागर में जैन मंदिर में दलित बच्चे की पिटाई की खबर है. इतना स्थान मीडिया में इनके शिक्षा, विकास और नौकरी आदि के लिए मिला होता तो लाखों का उत्थान हो जाता. करोड़ों दलित बच्चों का वजीफा नहीं बढ़ा, मिलता है तो बहुत बाद में. लाखों बच्चों की स्कॉलरशिप का गबन हो जाता है. लाखों करोड़ के स्पेशल कॉम्पोमेंट प्लान और ट्राइबल सब प्लान के पैसे का दुरपयोग होता रहता है. लाखों सरकार में पद खाली हैं.

मीडिया में ऐसे मुद्दे को स्थान कहां मिलता है. जो मीडिया सामाजिक और राजनैतिक नेताओं के अच्छे काम को स्थान नहीं देती वही उत्पीड़न होने पर ही क्यों सक्रिय होती है?

यूपीएससी का सदस्य या चेयरमैन के लिए कभी दलित सक्रियता नहीं दिखती

जालोर की घटना को मीडिया ने इतनी जगह दिखाया कि लाखों लोग बिना संगठित हुए पहुंच गए. जालोर अपवाद नहीं है बल्कि और उत्पीड़न के मामले में भी ऐसा होता है. कई घटनाएं ऐसी भी होती हैं कि नजर से बच जाती हैं भले ही बहुत संगीन हों. कई बार न चाहते हुए भी कवर करना पड़ता है, जब खबर किसी एक जगह चल जाए.

सबसे आश्चर्य की बात है कि दलित सक्रियता इसी समय दिखती है. ऐसे समय क्यों दिखती है? यही यक्ष प्रश्न है. कभी एक जज बनाने या कुलपति के लिए क्यों नहीं इकठ्ठे होते. एक जज के कलम से पूरा आरक्षण प्रभावित हो जाता है. एक विश्व विद्यालय के कुलपति से कितने प्राध्यापक भर्ती किए जा सकते हैं, और छात्रों का तो भला होगा ही. भारत का सचिव या यूपीएससी का सदस्य या चेयरमैन के लिए कभी दलित सक्रियता नहीं दिखती जिससे करोड़ों के जीवन में परोक्ष या अपरोक्ष भला हो सकता है.

दलित-आदिवासी को लगभग वैसे मंत्रालय दिए जाते हैं जो ज्यादा भला नहीं कर सकते. राजनैतिक दल संगठन ऐसे पद नहीं देते जिससे अपने समाज का भला हो सकता है. जो सासंद या विधायक इनके लड़े उसके पीछे क्यों नहीं खड़े होते ? जब पार्टी ऐसे लोगों का पत्ता काट देती है तो कोई दलित सक्रियता नहीं दिखती.

दलित खुद के जातिवाद करने पर गर्व करते हैं

दलित खुद के जातिवाद करने पर गर्व करते हैं. शायद ही कोई कथित दलित सक्रियता वाला हो जो जाति के संगठन से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से न जुड़ा हो. एक जाति दूसरे से लड़ते रहते हैं. पंजाब में चुनाव हुआ, मज़हबी दलित वने नाममात्र का वोट दिया, क्योंकि चन्नी रविदासी थे. खुद जातिवाद करें तो ठीक और जट सिख जट करें तो गलत.

बहुजन अंदोलन के पहले भले ही चेतना कम थी लेकिन उपजातिवाद कम था . कहा गया कि जो अपनी जाति को जोड़ेगा वो पाएगा. फिर क्या था निकल पड़े जाति के नेता अपनी-अपनी जाति को संगठित करने के लिए और किए भी.

जब टिकट और सम्मान नहीं मिला तो अपनी जाति का वोट लेकर दूसरी दुकान पहुंच गए. जो भी कीमत लगी समझौता कर लिया. कुछ न से कुछ भी भला और जाति इतने पर बौरा जाति है, और दनादन वोट डाल देती है.

छाती चौड़ी हो जाती है और उस पार्टी के लिए झंडा, डंडा उठा लेते हैं. थोड़े से लालच के चक्कर में एक दलित की जाति दूसरे के खिलाफ खड़ी हो जाती है.

हरियाणा में ए और बी का इतना गहरा अंतर्विरोध है कि दबंग और शोषण करने वाली जाति से हाथ मिला लेंगे लेकिन एक दूसरे को फूटी आंख से देखने को तैयार नहीं हैं.
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इनके जातीय सम्मलेन की बातें जानें तो आश्चर्य होगा. व्यवस्था के अनुसार जो जातियां सबसे नीचे पायदान पर हैं, वो भी गला फाड़-फाड़ कर भाषण करेंगे कि हमें अपनी जाति पर गर्व है. जब इन्हें गर्व है तो राजपूत और बनिया को अपनी जाति पर क्यों न गर्व हो ? खुद करें जातिवाद तो गर्व की बात है, जब ब्राम्हण करें तो जातिवाद. जब तक यह चलेगा जालोर, हाथरस और उन्नाव जैसी घटनाएं होती रहेंगी.

उत्पीड़न का श्रोत जनतंत्र में नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था है. सामाजिक व्यवस्था ज्यों का त्यों बनी रहे तो सरकार किसी की भी हो उत्पीड़न नहीं रुकेगा. जनत्रंत्र की ताकत जब ढीली हो जाती है तो उत्पीड़न हो जाता है. जाति व्यवस्था का भेदभाव और उत्पीड़न हिस्सा है. संविधान के कारण भेदभाव कम हुआ है और जहां संवैधानिक प्रवधान निष्क्रिय हुए वहीं पर जालौर जैसा कांड हो जाता है.

बहुजन अंदोलन था डॉ अंबेडकर की विचाराधारा के खिलाफ

बहुजन अंदोलन था डॉ अंबेडकर की विचाराधारा के खिलाफ लेकिन लोग समझे कि यही सामाजिक न्याय, जाति का उन्मूलन और एकता है. इसे ऐतिहासिक ठगी या नासमझी कहा जाए. बाबा साहेब हिंदू धर्म तक जाति से मुक्ति के लिए छोड़ दिए. हमारे सारे नेता हिन्दू धर्म में ही मरे कुछ अपवाद को छोड़कर. बाबा साहब के संघर्ष का प्रतिफल जैसे आरक्षण और अन्य सुविधाएं तो लेने में कोई देरी नहीं. छात्र जीवन से ही लेने लगते हैं और जब बौद्ध धर्म अपनाने की बात आए तो बुढ़ापे का इंतजार. बौद्ध धर्म तो आरक्षण लेने से पहले ले लेना चाहिए ताकि जातिवादी संस्कार से मुक्त हो जाएं .

खुद जातिवादी संस्कार में रहकर जाति के खिलाफ लड़ रहे हैं. खुद जाति उन्मूलन न करें और सवर्णों से कहें कि वो जातिवाद न करें. जब तक मेघवाल , बेरवा, बलाई, खटीक, चमार , महार, मतंग रहेंगे तो एकता कहां होगी और बिना एकता के अन्याय से लड़ कैसे पाएंगे? जिन संस्कारों के कारण अत्याचार हो रहा है उसी को माने तो सामाजिक व्यवस्था मजबूत रहेगी और उत्पीड़न होता रहेगा, हां कभी कम कभी ज्यादा होता रहेगा.

दलित पीएम और सीएम भी बन जाएं तो उत्पीड़न बंद नहीं हो जाएगा, हां कम हो सकता है. दलित उत्पीड़न की घटना से किसी राजनैतिक दल को फायदा हो सकता है. जो लोग दर्द और सहानुभूति प्रकट करने जालोर गए , उनका नाम मीडिया में छप गया और नेता बन जाने का अवसर मिल जाए लेकिन दलितों के शोषण को रोकने का उपाय यह नहीं. ऐसी घटना का विरोध होना चाहिए और हुआ भी लेकिन स्थाई समाधान खोजना होगा.

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