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सजा-ए-मौत: दर्द रहित मौत नहीं, बल्कि मौत की सजा पर फिर से सोचने की जरूरत है

क्या राज्य इतना पवित्र इतना निर्दोष और नैतिक है कि वह किसी के जीवन और मृत्यु के बारे में निर्णय ले सके?

चैतन्य नागर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>दर्द रहित मौत नहीं, बल्कि मौत की सजा पर फिर से सोचने की जरूरत है</p></div>
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दर्द रहित मौत नहीं, बल्कि मौत की सजा पर फिर से सोचने की जरूरत है

(फोटोः क्विंट हिंदी)

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सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार, 21 मार्च को सजा-ए-मौत पाए दोषियों के लिए दर्द रहित मृत्यु की मांग करने वाली जनहित याचिका पर सुनवाई हुई. याचिका में कहा गया कि फांसी की जगह कुछ मानवीय और दर्द रहित मौत होनी चाहिए. मौत की सजा इस तरीके से दी जानी चाहिए, जिसमें कम से कम दर्द हो और यातना से बचा जा सके. जो बात तुरंत दिमाग में आती है वह यह है कि आसन्न मृत्यु का विचार ही क्या कभी कम दुखदायी हो सकता है? सजा-ए-मौत पाने वाले को दर्द और दुःख, भय और पीड़ा तो इस विचार से ही होती होगी कि कल सुबह मौत होनी है. उसके तरीके बदल दिए जाएं, तो क्या पीड़ा कम हो जायेगी?

मृत्यु दंड का प्रश्न हमेशा से विवादास्पद रहा है. हमारी जटिल सामाजिक-राजनैतिक प्रणाली, नैतिक और धार्मिक मत, हमारे समाजशास्त्रीय सिद्धांत, इस प्रश्न पर सभी अपनी अपनी दुविधाएं, विचार और पक्ष लेकर सक्रिय होते दिखाई देते हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने एक वक्तव्य दिया था कि अपने कार्यकाल में एक अभियुक्त की दया याचिका को खारिज कर देना उनके लिए सबसे कठिन फैसलों में था. इसके अलावा नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के एक अध्ययन से पता चला कि मृत्यु दंड देने में इस देश में पक्षपात होता रहा है. इस अध्ययन में यह तथ्य भी सामने आया कि जिन अभियुक्तों को मौत की सजा सुनाई गयी उनमें 70 फीसदी पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के होते हैं. 

इन अभियुक्तों में 75 फीसदी लोग आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के होते हैं. ये स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि किसी अपराधी की आर्थिक-सामाजिक स्थिति काफी हद तक उसके अपराधी होने के लिए जिम्मेदार होती है. अपराध का सामान्य, सर्वमान्य परिणाम दंड होता है. शुरू से कानून और आम आदमी की नैतिक, सामाजिक सोच ने इसे एक सिद्धांत के रूप में स्थापित किया है. साथ ही यह भी माना जाता रहा है कि सजा अपराध के हिसाब से ही होनी चाहिए.

उसकी गंभीरता अपराध की गंभीरता के साथ मेल खाती हो, न ही उससे ज्यादा हो और न ही कम. इस विवादास्पद विषय पर सर्वोच्च न्यायालय के पक्ष को भी समझा जा सकता है कि किसी भी हालत में उसके लिए यह संभव नहीं कि भारत जैसे विशाल देश में कोई ऐसा फैसला दिया जाए, जिससे सभी पक्ष सामान रूप से खुश और संतुष्ट हो जाएं.   

मौत की सजा पर फिर से विचार करने की जरूरत

बदलती परिस्थितियों में सजा-ए-मौत पर ही फिर से विचार करने की जरूरत है. 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सजा-ए-मौत सिर्फ ‘दुर्लभतम’ मामलों में दी जानी चाहिए. पर जरा देखिये कि वास्तव में क्या हुआ. 2004 से 2014 के बीच की अवधि में 5454 मामलों में निचली अदालतों ने अलग-अलग मामलों में मृत्यु दंड की सजा सुनाई. उच्चतर अदालतों ने इनमें से सिर्फ 1303 मामलों में मृत्युदंड की पुष्टि की और इस पूरी अवधि में सिर्फ तीन लोगों को फांसी की सजा दी गयी. एक प्रश्न यह भी है कि..

  • क्या देश में निचली अदालतें मृत्यु दंड का किसी तरह से गलत इस्तेमाल कर रही हैं?

  • इसका क्या यह अर्थ हुआ कि ‘दुर्लभतम’ शब्द को विभिन्न स्तर पर न्यायालयों ने खुद से ही परिभाषित किया है?

  • क्या यह शब्द व्यक्तिपरक है और अलग-अलग परिस्थितियों में इसके अलग अर्थ निकाले जा सकते हैं?

मृत्यु दंड पाए हुए अभियुक्त को बरसों सलाखों के पीछे बिताना पड़ता है और इस पीड़ादायी अनुभव के बाद सर्वोच्च न्यायालय यह फैसला सुनाती है कि उसका अपराध मृत्यु दंड के लायक था ही नहीं. यह अपने आप में बड़ी विचित्र और अमानवीय बात है. इस विषय पर एक गंभीर अध्ययन होना चाहिए कि...

  • किन हालात में और कैसी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निचली अदालतें सजाए-मौत सुनाती हैं?

  • क्या उनके पास इस सम्बन्ध में उच्चतर न्यायालयों के स्पष्ट निर्देश हैं?

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को 14 प्रतिष्ठित पूर्व जजों ने एक पत्र लिख कर यह स्पष्ट किया था कि कम से कम तेरह मामलों में सजा-ए-मौत सुनाया जाना उचित नहीं था और इन मामलों में भी दो अभियुक्तों को तो फांसी पर लटकाया भी जा चुका था. इसका सीधा अर्थ यही है कि ऐसे मामले हैं, जिनमें न सिर्फ निचली अदालतें बल्कि उच्चतर और सर्वोच्च अदालत भी चूक कर सकती है.    

संयुक्त राष्ट्र संघ के 193 देशों में से 49 में मृत्युदंड का प्रावधान 

संयुक्त राष्ट्र संघ के 193 देशों में से अब सिर्फ 40 देशों में ही मृत्युदंड का प्रावधान है. 140 देशों में तो इसे पूरी तरह खत्म कर दिया है और बाकी में पिछले 10 वर्षों से किसी को सजा-ए-मौत दी नहीं गयी है. आम तौर पर ऐसा मानते हैं कि मौत की सजा का डर अपराधी को अपराध करने से रोकता है, पर आंकड़े ऐसा साबित नहीं करते. जहां मृत्युदंड खत्म हुआ, वहां अपराध बढ़े नहीं, और जहां मृत्युदंड है, वहां अपराध कम नहीं हुए. अभी तक कोई ऐसा समाज नहीं रहा है जहां अपराध पर पूरी तरह रोक लग पायी हो. जहां थोड़ी बहुत रोक है, वहां सिर्फ इसलिए है क्योंकि कानून कठोर हैं और उनका भय बहुत ज्यादा है. 

आज की स्थितियों को देखकर कहा जा सकता है कि अपराध मुक्त समाज तो फिर भी कभी संभव हो सकता है, पर अपराधी मुक्त समाज तो संभव ही नहीं. जब तक हम सभी अपने अंतरतम में हिंसा और ऐसी इच्छाओं से मुक्त न हों, जिनसे दूसरों को कष्ट पहुंचता हो तब तक वह एक यूटोपिया की तरह ही रहेगा.
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मृत्यु दंड का विरोध करने का अर्थ अपराधी  के साथ नरमी से पेश आना नहीं. अस्तित्ववादी विचारक और लेखक अल्बेयर कामू मृत्यु दंड के घोर विरोधी थे.  उनका कहना था कि...

“ हमारे पास इतनी समझ तो है कि हम कह सकें कि फलां अपराधी को पूरी जिन्दगी के लिए सश्रम कारावास मिलना चाहिए, पर हम इस स्थिति में अभी नहीं पहुंचे कि कह सकें कि उसका पूरा भविष्य ही खत्म कर दिया जाना चाहिए. दूसरे शब्दों में यह कि उसे सुधार का अब कोई मौका नहीं दिया जाना चाहिए." 

ऐसा भी हुआ है कि फांसी दिए जाने के बाद यह पता चला है कि जिसे फांसी दी गयी वह असली अपराधी था ही नहीं, और वास्तविक अपराधी, गलत व्यक्ति को मृत्युदंड दिए जाने के बाद अपराध बोध के तहत यह स्वीकार कर लेता है कि जुर्म उसने किया था, जिसे मृत्यु दंड दिया गया उसने नहीं. अलाबामा, अमेरिका के अपराध विशेषज्ञ और समाजशास्त्री वॉट इसपे ने अमेरिका में दी जाने वाली मौत की सजा पर अपने गंभीर शोध में बताया है कि सिर्फ अलाबामा राज्य में दस मासूम लोगों को फांसी दी गयी. उनका मानना है कि इस तरह की घटना पूरे अमेरिका में हुई है.  

क्या राज्य बहुत ज्यादा पवित्र, निर्दोष और नैतिक हैं?

एक और बड़ा ही भयानक सच सजा-ए-मौत के साथ जुड़ा हुआ है. फांसी पर लटकाया जाने वाला व्यक्ति कई बार एक लंबी सजा के बाद मानसिक तौर पर असंतुलित हो चुका होता है और उसे उसी हालत में फांसी दे दी जाती है. हिंसा के बारे में भी विचार करने की जरूरत है. राज्य द्वारा की जाने वाली हिंसा को हम उचित क्यों ठहराते हैं? फांसी की सजा किसी व्यक्ति के जीवन को लेकर राज्य को परम, अंतिम अधिकार देती है. राज्य फैसला करता है कि उसे जीना चाहिए या नहीं. 

  • क्या राज्य इतना पवित्र इतना निर्दोष और नैतिक है कि वह किसी के जीवन और मृत्यु के बारे में निर्णय ले सके?

  • क्या राज्य कभी इस बात पर विचार कर सकता है कि किसी का अपराधी होना उसकी गलत नीतियों का ही परिणाम है?

  • क्या मृत्यु दंड देने वाला जल्लाद, या जेलर या डॉक्टर और बाकी के जेल कर्मचारी किसी आंतरिक द्वंद्व, उलझन, आत्मग्लानि के बगैर यह काम कर सकते हैं?

इसका अर्थ यह हुआ कि राज्य उनसे अपनी अंतरात्मा की आवाज दबा कर जबरन ऐसे काम करवा रहा है जिसके उचित या अनुचित होने के बारे में अभी अंतिम फैसला हम कर ही नहीं पाये हैं.

न्याय व्यवस्था पर जहां तरह-तरह के गंभीर सवाल उठते हों, वहां किसी के जीवन को लेकर अंतिम फैसला देना उचित नहीं लगता. जिन परिस्थितियों में कोई अपराध करता है, उनके निर्माण में हम सभी का हाथ होता है. अपराध तो हमारी गलत शिक्षा व्यवस्था, हमारी सामाजिक विषमताओं की वजह से हो सकता है. और फिर हम ही किसी ‘अपराधी’ को फांसी पर लटका देते हैं. एक ही तरह की सजा के लिए एक अभियुक्त को फांसी दी जाती है, और दूसरे को हलके में या अपेक्षाकृत कम सजा दे कर छोड़ दिया जाता है.

अमेरिका के एक सोशल एक्टिविस्ट लेस्जेक सीस्की ने इस सन्दर्भ में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही है...

"सवाल यह नहीं कि हत्यारों को मृत्यदंड दिया जाना चाहिए या नहीं, सवाल तो यह है कि दूसरे इंसानो के पास उन्हें मारने का हक होना चाहिए या नहीं."

ये जटिल प्रश्न हैं, पर इनकी पड़ताल जरूरी है. इनके पूर्वनिर्मित उत्तर नहीं, क्योंकि जब किसी के अपने रिश्तेदार या मित्र के साथ कोई जघन्य अपराध हो जाए तो वह व्यक्ति इन सवालों को बिलकुल अलग दृष्टि से देखेगा. पर सवाल तो हैं ही. जब जेल में कैदियों को यातना देना गलत माना जाता है तो फिर उसे मौत देना सही क्यों माना जाता है?

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