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ब्रिटेन में 50 साल पहले ही धारा 377 खत्म, क्यों ढो रहा है भारत?

सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि आईपीसी की धारा 377 यानी की समलैंगिक संबंध अपराध है या नहीं.

प्रसन्न प्रांजल
नजरिया
Updated:
एलजीबीटीक्यू समुदाय की निगाहें सुप्रीम कोर्ट की तरफ टिकी हुई है.
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एलजीबीटीक्यू समुदाय की निगाहें सुप्रीम कोर्ट की तरफ टिकी हुई है.
(फोटोः क्विंट)

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गुलामी के दिनों में ब्रिटेन ने भारत पर धारा 377 का कानून थोपा. पर उसने 50 साल पहले कानून खत्म भी कर दिया, तो फिर भारत में इसे अभी तक क्यों ढोया जा रहा है?

देश में मौजूद तमाम LGBTQ (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीयर) लोग सालों से अपने हक के लिए आवाज उठा रहे हैं. 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने जब धारा 377 को अवैध ठहराया, तो लगा इन्होंने जंग जीत ली है. लेकिन 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट दोबारा इस पर विचार कर रहा है तो दोबारा उम्मीदें जग गई हैं. सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि आईपीसी की धारा 377 यानी समलैंगिक संबंध अपराध है या नहीं.

पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि वह धारा 377 की संवैधानिक वैधता और समलैंगिक संबंधों को अपनाने वाले समुदाय के मौलिक अधिकारों पर विचार करेगी.

अगर धारा 377 को अवैध ठहराया जाता है तो यह मौलिक अधिकारों की बड़ी जीत होगी. हैरानी और परेशानी वाली बात ये है उस कानून को हम क्यों नहीं छोड़ हो पाए हैं जिसे लागू करने वाली ब्रिटिश सरकार अपने देश में इसे 50 साल पहले खत्म कर चुकी है.

ब्रिटेन में समलैंगिकों के लिए क्या है कानून

यूनाइटेड किंगडम में हेनरी VII के शासनकाल में 'बगरी एक्ट 1533' के तहत पहली बार समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित किया गया. इस अपराध के लिए उस समय मौत की सजा थी, हालांकि 1861 में 10 साल की सजा का प्रावधान किया गया.

एक सदी की लंबी लड़ाई के बाद 1967 में ब्रिटेन के समलैंगिकों को एक जीत हासिल हुई. और 21 साल से अधिक उम्र के पुरुषों के बीच आपसी सहमति से बनने वाले संबंध को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया.

इसके बाद 1980 में स्कॉटलैंड में और 1982 में उत्तरी आयरलैंड ने भी इसे अपराध की श्रेणी से हटा लिया. वहां 1994 में आयु सीमा को कम करके 18 साल और 2000 में घटाकर16 साल कर दी गई.

ब्रिटेन में बढ़ते गए अधिकार

ब्रिटेन में साल-साल दर समलैंगिकों को अधिकार मिलते गए. 2000 में वहां की सरकार ने कानून में बदलाव करते हुए गे और बाइसेक्सुअल को सेना में भर्ती होने की अनुमति भी दे दी.

2 साल बाद 2002 में समलैंगिकों को बच्चों को गोद लेने का अधिकार मिल गया. वहीं 2004 में इनके लिए सिविल पार्टनरशिप की शुरुआत की गई. जिसमें उन्हें वो तमाम अधिकार दिए गए जो एक शादी-शुदा इंसान को मिलते थे.

तमाम कानूनों के बावजूद इंग्लैंड में समलैंगिकों के साथ भेदभाव के मामले देखते हुए सरकार ने अपने स्तर पर भेदभाव खत्म करने वाले कदम उठाए. इंग्लैंड ने 2013 में समलैंगिक शादी (गे मैरिज) को कानूनी मान्यता दे दी. इसी साल वेल्स और स्कॉटलैंट में इसकी अनुमति मिल गई.

ब्रिटेन में समलैंगिकों के साथ भेदभाव

इन सबके बावजूद अभी भी ब्रिटेन में समलैंगिकों का हाथ में हाथ डालकर घूमना और साथ रहना वहां के लोगों को पसंद नहीं है.

अभी हाल ही में ब्रिटिश सरकार ने समलैंगिकों को सुधारने पर कानूनी रूप से बैन लगा दिया है. पीएम टेरीजा मे ने कहा है कि LGBTQ को पूरा हक है कि वे जैसे चाहे जिएं, उन्हें सुधारने की कोई जरूरत नहीं है.

ब्रिटेन ने पिछले 5 दशक में जिस तरह समलैंगिकों को तमाम अधिकार दिए है. वो भारत के लिए भी रोड मैप बन सकता है.

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150 सालों से अपराध

भारत में पहले समलैंगिक संबंधों को लेकर कोई कानून नहीं था. लेकिन साल 1860 में उस समय की ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैंड की तर्ज पर भारत में समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित कर दिया. साथ ही आईपीसी में धारा 377 को शामिल कर दिया.

धारा 377 के तहत अगर कोई इंसान किसी महिला, पुरुष या जानवर के साथ अप्राकृतिक तरीके से संबंध बनाता है तो वह कानूनन अपराध है. और इसके लिए 10 साल की सजा से लेकर आजीवन कारावास के साथ जुर्माना भी हो सकता है.

नाज फाउंडेशन की याचिका पर 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 377 को गैर कानूनी करार दिया. लेकिन समलैंगिकता को जायज ठहराने वाले इस फैसले को 11 दिसंबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया. लेकिन साथ ही कहा कि इस धारा को हटाने का अधिकार संसद के पास है और वही इसे हटा सकती है.

भारत में समलैंगिकों का संघर्ष

सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला समलैंगिकों के लिए एक झटके से कम नहीं था. LGBTQ समुदाय के हक के लिए काम करने वाले लोग और संगठन तब से इसे हटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इनका समर्थन किया है. सुप्रीम कोर्ट के उस वक्त फैसले के बाद जेटली ने कहा था..

कोर्ट का फैसला दुनियाभर में हो रहे परिवर्तन से मेल नहीं खाता. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को आईपीसी की धारा 377 पर पुनर्विचार करना चाहिए. पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम  का भी यही मानना था. इतना ही नहीं लॉ कमीशन की 172वीं रिपोर्ट में भी इसे आईपीसी से हटाने की सिफारिश की जा चुकी है.

सुप्रीम कोर्ट अगर धारा 377 को अवैध ठहराता है तो उसके बाद कानून बदलने की जिम्मेदारी केंद्र की होगी.

किसी की निजी जिंदगी में दखल क्यों?

इंग्लैंड के अलावा अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस समेत 26 देशों ने समलैंगिक सेक्स को अपराध की कैटेगरी से हटा दिया है. भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भी 24 अगस्त 2017 को निजता के अधिकार (राइट टू प्राइवेसी) को मौलिक अधिकार बताया है, साथ ही कहा कि सेक्सुअल पसंदगी निजता के दायरे में है. किसी के सेक्स संबंधी झुकाव के आधार पर भेदभाव गलत है. .

ये भी पढे़ं-धारा 377 पर क्या कहता है कानून और कोर्ट में कब क्या हुआ?

(इनपुटः BBC, independent )

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Published: 10 Jul 2018,04:10 PM IST

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