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1951 में जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो आरएसएस ने दीनदयाल उपाध्याय को इससे जुड़ने के लिए कहा. इस तरह वह जनसंघ के सह-संस्थापक बने. 15 सालों तक वो इस संगठन के ऑल-इंडिया जनरल सेक्रेट्री रहे. इस दौरान उन्होंने लोकसभा चुनाव भी लड़ा लेकिन जीत नहीं मिल सकी. दिसंबर, 1967 में वह जनसंघ के अध्यक्ष बने.
25 सितंबर, 1916 को जन्में दीनदयाल उपाध्याय की 51 साल की उम्र में जनसंघ के अध्यक्ष बनाए जाने के मात्र 40 दिनों के भीतर ही मौत हो गई थी.
अपने छोटे राजनीतिक जीवन में उपाध्याय ने भारतीय राजनीतिक इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी. इसके पीछे मुख्यतः तीन कारण रहे हैं. ये कारण हैं
उनके द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानवतावाद की पृष्ठभूमि में देखा जाए, तो पिछली शताब्दी के अंतिम सालों में पूरी तरह से वैचारिक टकराव के तौर पर देखा जा सकता है. उस समय न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर पूंजीवाद को बुरा बताया गया. समाजवाद के साथ कुछ सीमित प्रयोग बेहद सामान्य बात हो गई थी. जनसंघ ने सार्वजनिक और निजी के बीच चल रहे संघर्ष के बीच के रास्ते के साथ मध्यमार्गी विचार को अपनाया.
दीनदयाल उपाध्याय इसकी गहराई में गए और उन्होंने एक सिद्धांत को जन्म दिया, जो मानव जीवन के विस्तृत और एकीकृत विचार के आधार पर निर्मित था. उन्होंने बताया कि मानव केवल आर्थिक प्राणी नहीं है. उन्होंने उसके भौतिक, मनोवैज्ञानिक, बौद्धिक व आध्यामिक आदि चार गुणों के ऊपर जोर दिया. पूंजीवादियों और वामपंथियों, दोनों ने ही उनके एकात्म मानवतावाद की आलोचना की.
महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यह हमें राजनीतिक कार्रवाई के लिए समग्र वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य और सरकारी नीतियों के लिए आधार प्रदान करता है. उनका सिद्धांत सृष्टि के कानूनों व मानव जीवन की सार्वभौमिक आवश्यकताओं के साथ लगातार खड़ा रहा. संक्षेप में कहें, तो दीनदयाल उपाध्याय ने चारों तरफ चल रही सार्वजनिक या निजी बहसों से परे सामाजिक-आर्थिक पहलू पर बहस शुरू की.
भारत के शानदार इतिहास की गहरी अंतर्दृष्टि व उसके गौरवमयी भविष्य पर पूर्ण विश्वास के साथ उन्होंने हमारी सामाजिक यात्रा के कई परिवर्तनों को देखा था. उन्हें इस तथ्य की पूरी जानकारी थी कि समाज भविष्य से वर्तमान और फिर भविष्य की ओर चलता है. वह मानव जीवन को उद्देश्यपूर्ण मानते थे और मानव जीवन के बारे में एक एकीकृत, आवश्यक और सर्वांगीण विचार रखते थे.
राजनीति में वह गैर-समझौतावादी और कठोर विचार के लिए जाने जाते थे. जब उन्होंने वर्ष 1963 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर से उपचुनाव लड़े, तो उन्होंने अपने को ब्राह्मण बताकर इसका फायदा उठाने से मना कर दिया. उपाध्याय यह चुनाव हार गए थे और यह उनका अंतिम चुनाव था, लेकिन उन्होंने किसी तरह से अपने विचार के साथ कोई समझौता नहीं किया. लोकतांत्रिक सरकार की सीमाओं, विशेष तौर पर लोगों की गिनती वाले लोकतंत्र (चुनावी लोकतंत्र) के बारे में गहरी सोच के बाद यह तय करने के लिए प्रयासरत रहे कि यह सीमा न तो, उनकी पार्टी और न ही उनकी राजनीति के रास्ते में आए.
लोकतांत्रिक सुधार के प्रारंभिक समर्थकों में से एक दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीतिक दलों के निर्माण के लिए सब कुछ किया. अगर राजनीतिक दल अपने आपको संचालित करने में असफल रहे, तो किस तरह जनता देश को चलाने की क्षमता विकसित करने में विश्वास करे. वर्तमान में देश में कई राजनीतिक दलों के सामने उद्देश्यों की समस्याओं की पृष्ठभूमि में उनके द्वारा वैचारिक पहचान पाने के सिद्धांत पर जोर देने वाला विचार आज भी प्रासंगिक है. उन्होंने चेतावनी दी थी कि राजनीतिक पार्टी कोई ज्वाइंट स्टॉक कंपनी नहीं है. इसके साथ-साथ वह उन राजनीतिक हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने इस बात पर बार-बार जोर दिया कि राजनीतिक दलों को जनशिक्षा के माध्यम से जनता का विचार बदलना चाहिए और उन्हें प्रभावित करना चाहिए.
दीनदयाल उपाध्याय सादगी के अवतार थे. उनका व्यक्तित्व करिश्माई भले न समझा जाए, लेकिन जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ खुद को जोड़ने, सादगीपूर्ण व्यवहार आदि के मामले में वे एकदम निपुण थे. यही उनके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा आकर्षण था. वह उन कुछ लोगों में से एक थे, जो आरएसएस के स्वयंसेवक के तौर पर शुरुआत करके उभरती हुई पार्टी के अध्यक्ष बने.
हालांकि, दीनदयाल उपाध्याय के बारे में सबसे महत्पूर्ण बात उनका भारतीय जनसंघ के लिए योगदान है. उन्होंने इसे ऊंचाई पर पहुंचाया. यह सच है कि जनसंघ की स्थापना वैचारिक और सांगठनिक आधार पर हुई थी और इसमें आरएसएस की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी. लेकिन दीनदयाल जी के अथक प्रयासों के कारण ही देश के अधिकांश हिस्सों में इस पार्टी का सांगठनिक आधार बना.
इससे भी महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने जनसंघ को अपने एकात्म मानववाद के जरिए एक वैचारिक पहचान दिलाई. सदियों तक उन्हें वैसे राजनीतिक नेता के तौर पर जाना जाएगा, जिनके लिए प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनीतिक विचारक हेराल्ड लास्की के शब्दों में कहा जा सकता है, ‘लोगों का नेतृत्व करो और उनके नेतृत्व को अस्वीकार करो.’
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(विनय सहस्रबुद्धे बीजेपी सांसद हैं. इस आलेख में लेखक के अपने विचार हैं. ट्टिटर पर उनसे @vinay1011 पर जुड़ा किया जा सकता है.)
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Published: 25 Sep 2016,04:18 PM IST