advertisement
अच्छी खबर यह है कि देश के पश्चिमी हिस्सों में मॉनसून की बरसात शुरू हो गई है. 28 जून को देर शाम तक मुंबई में 12 घंटों के भीतर 150 मिलीमीटर पानी बरस गया. लेकिन पूरा जून निकल जाने के बाद भी देश के अधिकतर हिस्सों से मॉनसून नदारद ही रहा. मौसम विभाग कहता है कि दिल्ली और एनसीआर के इलाकों में बारिश जुलाई के पहले हफ्ते में ही पहुंच पायेगी. हालांकि, वेबसाइट स्काइमेट वेदर ने शुक्रवार को बताया कि अरब सागर में दक्षिण पश्चिमी हवायें सक्रिय हुई हैं और मॉनसून द्वारिका से आगे बढ़कर भोपाल और जबलपुर तक पहुंच गया है.
चिन्ता की बात ये है कि जून के महीने में - जो तकनीकी रूप से मॉनसून सीजन (जून-सितंबर) का पहला महीना है – रिकॉर्ड कम बरसात हुई है. सामान्य तौर पर जून में कुल मॉनसून का 17% पानी बरसता है लेकिन पिछले साल के मुकाबले इस साल आधी बारिश भी इस महीने में नहीं हो पाई. सवाल है कि क्या जुलाई और अगस्त में इस साल हुई कम बरसात की भरपाई हो पायेगी?
बरसात की इस कमी का असर लू यानी हीटवेव के तौर पर देखने को मिला है. देश के कई हिस्सों में हीटवेव से सैकड़ों मौतें हुई हैं. इस साल मार्च के महीने से गर्मी का जो प्रचंड रूप दिखना शुरू हुआ उसके बाद करीब 100 दिन के भीतर ही 22 राज्यों की कुल 6 दर्जन से अधिक जगहों में हीटवेव की मार दिखी है.
उधर वैज्ञानिकों ने पाया है कि कनाडा के उत्तरी हिस्से में अनंतकाल से जमी बर्फ – जिसे पर्माफ्रॉस्ट भी कहा जाता है – अनुमानित समय से 70 साल पहले ही पिघलने लगी है. उत्तरी ध्रुव पर हो रही इस हलचल से वैज्ञानिक चकित और परेशान हैं. यह विनाशकारी परिवर्तन न केवल पिछले साल रिलीज हुई आईपीसीसी (IPCC) रिपोर्ट की चेतावनियों को सही साबित करता है बल्कि उससे कहीं अधिक बड़े संकट की ओर भी इशारा कर रहा है क्योंकि पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से कई हजार टन ग्रीन हाउस गैसें (मीथेन इत्यादि) रिलीज होंगी जो पहले ही गरमा रही धरती का तापमान और बढ़ायेंगी.
दुनिया में हो रहे ऐसे बदलावों का भारत के लिये क्या मतलब है? कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्ट कह चुकी है कि अपनी भौगोलिक स्थिति, बड़ी आबादी, मॉनसून आधारित कृषि और सी-फूड कारोबार पर करोड़ों लोगों की निर्भरता जैसे कारकों की वजह से भारत पर ग्लोबल वॉर्मिंग के दुष्प्रभावों का सबसे अधिक नुकसान होगा. हिमालयी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की खबरें लगातार आती रही हैं और पिछले हफ्ते कोलंबिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट में इन ग्लेशियरों के दुगनी रफ्तार से पिघलने की चेतावनी दी.
मौसम और कृषि विज्ञानियों को इस बात का डर है कि जून में बरसात की कमी की भरपाई अगर जुलाई से सितंबर की बीच नहीं हुई तो भूजल (ग्राउंडवॉटर) में भारी कमी आ सकती है. कुछ दिन पहले नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि अगले साल तक देश के 21 बड़े शहरों में ग्राउंडवॉटर खत्म हो सकता है.
साफ है कि 21 महानगरों में भू-जल खत्म होने के आंकड़े को लेकर भले ही बहस हो सकती हो लेकिन देश में गंभीर जल संकट और बार-बार पड़ रहे सूखे से बिगड़ते हालात से इनकार नहीं किया जा सकता. पूरे देश में भूजल के स्तर में 54% तक गिरावट आ गई है और सरकार मानती है कि हर साल 2 लाख लोग इसलिये मर जाते हैं क्योंकि या तो उन्हें साफ पानी नहीं मिलता या फिर पानी मिलता ही नहीं है.
बढ़ती आबादी और संसाधनों पर दबाव के हिसाब से साल 2030 तक देश में पानी की मांग दोगुनी हो जायेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद कहा है कि 2024 तक सारे घरों में पीने का पानी पहुंच जायेगा लेकिन मौजूदा हालात में पानी को लेकर मचे हाहाकार, मौसम के बिगड़ते मिजाज और जलवायु परिवर्तन के असर को देखते हुये यह आसान नहीं है. जल संरक्षण के लिये बड़े पैमाने पर काम करने के साथ जंगलों और नदियों के बचाने की सख्त जरूरत है.
(हृदयेश जोशी स्वतंत्र पत्रकार हैं. उन्होंने बस्तर में नक्सली हिंसा और आदिवासी समस्याओं को लंबे वक्त तक कवर किया है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined