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राजकोट (Rajkot Fire) हादसा, जिसमें 27 लोगों ने अपनी जान गवां दी और दिल्ली बेबी केयर सेंटर हादसा (Delhi Baby Care Centre Fire) जिसमें 13 नवजात की मौत हो गई, दोनों त्रासदियां हमारी सबसे बुनियादी शासन संरचनाओं में मौजूद गंभीर और प्रणालीगत खामियों को उजागर करती हैं, जो अब इस हद तक गिर चुकी हैं कि उन पर आम नागरिकों को न्याय दिलाने के लिए भरोसा नहीं किया जा सकता है.
1995 की डबवाली अग्निकांड (460 से अधिक मृत), 1997 की उपहार सिनेमा अग्नि त्रासदी (59 मृत), या उसके बाद से हमारे सामने आई अनेक अन्य गंभीर अग्नि त्रासदियों से भी हमने अबतक कुछ नहीं सीखा है.
उपहार कांड प्रतीकात्मक है. स्ट्रक्चर और फायर सेफ्टी का ठीक से पालन नहीं करने के कारण जून 1983 में सिनेमा का लाइसेंस चार दिनों के लिए निलंबित कर दिया गया था, लेकिन फिर दिल्ली हाई कोर्ट ने मामले पर सुनवाई के दौरान स्टे ऑर्डर जारी कर दिया. इसके बाद सिनेमा दो महीने के अस्थायी परमिट पर 14 वर्षों तक (यानी कुल 84 अस्थायी विस्तार) काम करता रहा. 13 जून 1997 के उस त्रासदी वाले दिन तक उपहार सिनेमा घर संचालित होता रहा.
केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा जांच के बाद, जुलाई 2000 में दिल्ली हाई कोर्ट के निर्देश पर, ट्रायल कोर्ट ने फरवरी 2001 में सभी 16 आरोपियों के खिलाफ आरोप तय किए.
सुप्रीम कोर्ट ने सजा बढ़ाने की मांग वाली 2009 की याचिका पर विचार करते हुए अप्रैल 2013 में अपना आदेश सुरक्षित रख लिया .
जुलाई 2022 में, पटियाला हाउस कोर्ट ने अंसल के खिलाफ ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित दोषसिद्धि के आदेश को बरकरार रखा, लेकिन सजा के तौर पर पहले से दोनों ने जो समय जेल में गुजारा था, उसे (आठ महीने और 12 दिन) अवधि से कम कर दिया, और कहा, "हमारी सहानुभूति आपके साथ है. कई लोगों की जान चली गई, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी. लेकिन आपको यह समझना होगा कि दंड नीति का उद्देश्य प्रतिशोध लेना नहीं है. हमें उनकी (अंसल) उम्र पर विचार करना होगा. आपको कष्ट हुआ है, लेकिन उन्हें भी इस हादसे से तकलीफ हुई है."
मोरबी पुल त्रासदी एक और उदाहरण पेश करती है.
अक्टूबर 2022 में उद्घाटन के चार दिन बाद ही यह पुल ढह गया. हादसे में 135 लोगों की मौत हो गई और 56 घायल हो गए. पुल ढहने की घटना की जांच के लिए गुजरात सरकार द्वारा नियुक्त स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम ने कहा कि पुल के रखरखाव के लिए अनुबंधित कंपनी की प्रशासनिक चूक और कुप्रबंधन इस घटना के लिए जिम्मेदार थे. सरकारें ऐसे उल्लंघनों से अनभिज्ञ क्यों रहती हैं?
राजकोट और दिल्ली की आग दुर्घटनाएं, यहां तक कि पुणे ‘पोर्शे’ घटना और 2022 में मोरबी पुल का ढहना, भारतीय रेगुलेटरीज और कानून का पालन करानेवाली संस्था की भ्रष्ट छवि को उजागर करता है.
राजकोट में गेमिंग जोन-सह-मनोरंजन पार्क को टिन की छतों वाले अस्थायी ढांचों में बनाया गया था.
इसमें न तो पर्याप्त अग्निशमन व्यवस्था थी, न ही आपातकालीन निकास की व्यवस्था थी और यह राजकोट अग्निशमन विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र (No Objection Certificate) के बिना काम कर रहा था. गेमिंग मॉल में में भारी मात्रा में ईंधन भी रखा हुआ था.
दिल्ली के बेबी केयर न्यू बोर्न हॉस्पिटल (12 बच्चों की मौत) का लाइसेंस 31 मार्च को समाप्त हो गया था; इसमें अग्निशमन की कोई व्यवस्था नहीं थी, कोई आपातकालीन निकास नहीं था - फिर भी, यह काम करता रहा.
मोरबी पुल के मामले में, मेसर्स ओरेवा ने मरम्मत का काम एक “गैर सक्षम एजेंसी” को आउटसोर्स किया था. यह समझने के लिए किसी आइंस्टीन-जैसे दिमाग की जरूरत नहीं है कि नगर पालिका के मुख्य प्रशासक ने नागरिक निकाय की आम सभा की उचित मंजूरी के बिना कॉन्ट्रैक्ट क्यों दिया.
उपहार मामले में, 28 परिवारों के ‘उपहार त्रासदी पीड़ितों के संघ’ (AVUT) के बावजूद, यह एक अकेला जोड़ा, नीलम और शेखर कृष्णमूर्ति ही है, जो पीड़ितों के लिए न्याय की लड़ाई में अग्रणी रहा है.
पिछले अनुभव हमें बताते हैं कि जिन अधिकारियों को ऐसी चीजों की निगरानी करने और नियमों को लागू करने का अधिकार दिया गया था, उनमें से किसी को भी दंडित नहीं किया गया, क्योंकि "बाबूशाही" में एक-दूसरे को बचाने के कोशिश होती रहती है. क्योंकि हर त्रासदी में मुख्य अपराधी लाइसेंसिंग/नियामक/प्रवर्तन विभाग होते हैं, जो ऐसे व्यवसायों के मालिकों के साथ आपराधिक गठजोड़ में काम करते हैं.
इस प्रकार, सबसे पहला कदम यह है कि प्रत्येक अधिकारी जो नियमों को लागू करने के लिए जिम्मेदार था/है, लेकिन ऐसा करने में विफल रहा, उसे कम से कम सेवा से बर्खास्त किया जाना चाहिए और उस पर हत्या का मुकदमा चलाना चाहिए.
केवल तभी ऐसे अधिकारी निर्दोष लोगों की लाशों पर अपने महल बनाना बंद कर देंगे और/या दूसरा राजनीतिक "सुझावों" पर ध्यान देना बंद कर देंगे.
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की लगभग 69 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण और 31 प्रतिशत शहरी थी.
लेकिन लगभग 80 प्रतिशत अस्पताल और डॉक्टर शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं और शहरी लोगों को ही सेवाएं देते हैं (साथ ही चिकित्सा पर्यटन भी) - लेकिन कई शहरी अस्पताल आवासीय बिल्डिंग में स्थित हैं, जो अस्पतालों में आवश्यक फायर सेफ्टी के अनुकूल नहीं हैं.
लालच के कारण आईसीयू या क्रिटिकल केयर वार्डों में बिस्तरों की संख्या बढ़ा दी जाती है, जिससे बिजली का भार बढ़ जाता है. इस ट्रेंड को कड़ी जांच के जरिए से खत्म करने की जरूरत है.
आखिरी चरण, लोगों के भीतर जागरूकता को बढ़ाना है.
व्यापक अध्ययनों से पता चलता है कि घरेलू आग को भीषण होने में दो से तीन मिनट लगते हैं, और स्मोक अलार्म बजने के बाद घर की आग से बचने का औसत समय लगभग 2.5 मिनट होता है. और इस वक्त स्मोक अलार्म और पोर्टेबल अग्निशमन उपकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
इसलिए, अग्नि सुरक्षा उपायों के बारे में जनता को शिक्षित करने के लिए एक गहन अभियान की आवश्यकता है. जब आग का सामना करना पड़ें तो:
किसी भी अलार्म सिस्टम को एक्टिवेट करें और अग्निशमन विभाग को सूचित करने का प्रयास करें
तत्काल खतरे में फंसे किसी भी व्यक्ति की सहायता करें, या उसकी मदद करें जो अपने दम पर आग से बाहर निकलने में असमर्थ हैं, लेकिन अपने आप को जोखिम में बिना डाले.
आग भड़कने के केवल शुरूआती कुछ मिनटों में आग बुझाने का प्रयास करें.
आग भड़कने पर घटनास्थल से दूर चले जाएं
एक देश अपने संस्थान की ताकत से मजबूत होता है. हमारी समस्या यह है कि हमारे पास दृढ़ विश्वास रखने वाले साहसी लोग बहुत कम हैं और नैतिकता को ताक पर रखने वाले बहुत सारे.
हालांकि, साहसी व्यक्ति अब लगभग विलुप्त प्रजाति हो चुका है. क्योंकि जिन संस्थानों को उन अधिकारियों की रक्षा करनी चाहिए, जो गलत रास्तों को अपनाने से इनकार करते हैं, वे विफल हो गए हैं - बहुत से लोग ना कहने की कीमत चुकाते हैं.
यह पतन आखिर में न्याय से वंचित लोगों को कानून अपने हाथों में लेने के लिए प्रोत्साहित करती है जिसकी कल्पना बिल्कुल सुखद नहीं है.
इसलिए बुनियादी शासन में इन कमजोर करने वाली कमियों को दूर करने के लिए, यह कुछ अच्छे पुरुष (और महिलाएं) पर निर्भर करता है, अगर असल में कोई नैतिकता के राह पर चलता है तो!
(कुलदीप सिंह भारतीय सेना से सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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