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सत्ता के आम केंद्रों की तरह दिल्ली भी एक नाजुक जगह है. सत्ता की 'धारणा' में राजधानी ताकत पर निर्भर करती है जो न तो वास्तविक है और न ही उचित. लोकतंत्र में वास्तविक सत्ता आम लोगों में होती है लेकिन प्रशासनिक जरूरतों को मजबूत करना दिल्ली का नैतिक दायित्व है. इसी गलत धारणा के कारण किसानों से सलाह मशविरा किए बगैर और संसद के भीतर उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना मौजूदा केंद्र सरकार ने 60 दिन पहले किसान बिलों को पारित किया है.
पहला विकल्प मौजूदा केंद्र सरकार के लिए अक्सर इस्तेमाल होने वाला हथकंडा है. 2014 से किसान निम्न मुद्दों पर विरोध करते रहे हैं- भूमि अधिग्रहण, किसानों की आत्महत्या, जीएमओ, सिंचाई परियोजनाओं में देरी, बेहतर एमएसपी, ऋण माफी, बिजली की आपूर्ति और बिजली दर और अन्य मुद्दे. 2018 में 70 हजार से ज्यादा किसान अपनी मांगें नहीं सुने जाने पर धीरज खो बैठे थे और दिल्ली की सीमाओं पर तूफान खड़ा कर दिया था. वे अपनी फसल के लिए बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग कर रहे थे और इस बात पर विरोध जता रहे थे कि सरकार की कीमतें 40 फीसदी तक कम हैं.
2018 में किसान मांग कर रहे थे कि आत्महत्या करने वाले किसान परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी दी जाए. प्रदर्शनकारियों को तब दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए उन पर लाठीचार्ज किए गये थे और आंसू गैस के गोले छोड़े गये थे.
पहले की ही तरह मामला शबाब पर है और वर्तमान संकट स्पष्ट है. दिल्ली ने जमीनी हकीकत और दुर्दशा का शिकार लोगों से जो दूरी बना रखी है वह इसका प्रमाण है. अगले राष्ट्रीय आम चुनाव में चार साल बाकी हैं. सत्ता को लेकर सरकार की धारणा को, जो वास्तव में गलत है, कोई खतरा नहीं है. इसके परिणाम गरीबों, किसानों और उन लोगों को भुगतने पड़ सकते हैं जो राष्ट्रीय राजमार्ग पर वॉटर कैनन का सामना कर रहे हैं.
दूसरे विकल्प के जरिए सरकार ग्रामीण भारत में समावेशी विकास की पहल कर सकेगी. किसान आज वर्तमान एमएसपी व्यवस्था को तहस-नहस करने और ग्रामीण बाजारों पर कब्जे के लिए कॉरपोरेट को दी जा रही छूट के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं जो व्यवस्था सितंबर 2020 में तीन किसान बिलों के पारित होने के बाद बनी है. देश के विभिन्न इलाकों में किसान अपना अनाज एमएसपी से कम कीमत पर बेच रहे हैं क्योंकि मंडियों के बाहर कीमत तय करने की कोई व्यवस्था नहीं है.
किसान संगठन जानते हैं कि सरकार की कॉरपोरेट के साथ सांठगांठ है और वह किसान बिल में बदलाव के लिए कोई बातचीत की इच्छुक नहीं है. सरकार की ओर से प्रदर्शनकारी किसानों के साथ बातचीत के किसी प्रस्ताव की विश्वसनीयता नहीं रह जाने का मुख्य रूप से यही कारण है.
इसके साथ-साथ बीजेपी ने किसानों की दशा सुधारने में दिलचस्पी कम रखते हुए अपनी छवि कॉरपोरेट समर्थक की बना रखी है.
किसानों को भूमि और खेती से दूर करने की योजना और गांवों का तेजी से शहरीकरण करने पर फोकस के तौर पर का किसान बिलों को देखा जा रहा है. ग्रामीण भारत के अविश्वास का यह एक और कारण है.
अंत में केंद्र सरकार को निश्चित रूप से यह आंकना होगा कि वह किसान वोटरों की नाराजगी झेल पाएगी या नहीं. आंकड़े बताते हैं कि किसानों के प्रदर्शनों के बावजूद बीजेपी ने पिछला आम चुनाव ग्रामीण भारत में 37.6 प्रतिशत वोट हासिल करते हुए जीता था. 2014 के चुनावों के मुकाबले यह 6 प्रतिशत ज्यादा था. इसके अलावा सबसे ज्यादा संकट की घड़ी में लोकप्रिय मीडिया ने सरकार का साथ दिया है.
किसान बिल संकट का सामना करने के लिए केंद्र सरकार किस विकल्प को चुनती है उसी से पता चलेगा कि केंद्र सरकार खुद को कितनी सुरक्षित या असुरक्षित समझती है- क्या यह प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए ताकत का इस्तेमाल करती है या फिर किसानों के साथ जुड़ने के लिए नये सिरे से इस पर विचार करती है. यही इस सरकार की वास्तविक विरासत होगी न कि 20 हजार करोड़ का सेंट्रल विस्टा.
प्रॉजेक्ट, जिसे वही करदाता चुकाएंगे जो दिल्ली हाईवे पर गरीब किसानों पर लाठीचार्ज के लिए चुका रहे हैं. उम्मीद है कि भोले भाले भारतीयों के लिए साल का कुछ ऐसा ही अंत होने वाला है.
(डॉ कोटा नीलिमा लेखक और रिसर्चर हैं, जो ग्रामीम दिक्कतों और किसानों के बारे में लिखती हैं. उनकी हालिया किताबें Widows of Vidarbha, Making of Shadows हैं. ये एक ओपीनियन आर्टिकल है जिसमें व्यक्त किए गए विचार उनके हैं. क्विंट हिंदी का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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