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MCD संशोधन बिल लोकसभा में पास: सत्ता हथियाने के लिए केंद्र का एक कदम?

मौजूदा बिल से सब कुछ केंद्रीकृत हो जाएगा और केंद्र सरकार को सभी महत्वपूर्ण चीजों पर फैसला लेने का हक होगा.

एमजी देवसाहयम्
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>MCD का एकीकरण लोकसभा में पास: सत्ता हथियाने के लिए केंद्र का एक कदम</p></div>
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MCD का एकीकरण लोकसभा में पास: सत्ता हथियाने के लिए केंद्र का एक कदम

फोटो- क्विंट

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दिल्ली (Delhi) में एमसीडी (MCD) के एकीकरण का बिल अंतत: लोकसभा में पास हो गया. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड समेत दूरवर्ती राज्य गोवा, मणिपुर के विधानसभा चुनावों में 10 मार्च 2022 को जीत का चौका लगाने के बाद भी भारत की सबसे बड़ी सियासी ताकत में कुछ घबराहट सी है. नहीं तो अप्रैल 2022 में दिल्ली में होने वाले नगर निगम चुनाव टालने के लिए केंद्र सरकार ने जो विचित्र कार्रवाई की, उसे कोई और कैसे समझा सकता है?

9 मार्च को, दिल्ली के राज्य चुनाव आयोग (एसईसी) ने उत्तरी, दक्षिणी और पूर्वी एमसीडी के चुनावी कार्यक्रम बताने के लिए शाम 5.00 बजे एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई थी. लेकिन शाम 4.00 बजे चुनाव आयोग को केंद्र सरकार से चुनाव स्थगित करने का आदेश आया. इसमें दिल्ली नगर निगम के तीनों हिस्से को मिलाकर एक करने की बात कही गई.

“दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना है कि आदेश सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से आया और चुनाव आयोग ने तुरंत झुककर अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस को वापस ले लिया. एमसीडी चुनाव की तारीखों की घोषणा टाल दी गई.

2011 के संशोधन में क्या है?

कुछ ही हफ्ते बाद 22 मार्च को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दिल्ली नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2022, (डीएमसी बिल ) को अपनी मंजूरी दे दी. 30 25 मार्च 2022 को बिल लोकसभा में पास भी हो गया. इसमें संसद से पारित दिल्ली नगर निगम अधिनियम, 1957 में और संशोधन किया गया है. . इससे पहले दिल्ली विधानसभा ने साल 2011 में संशोधन कर एमसीडी को उत्तरी दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली और पूर्वी दिल्ली में बांट दिया था.

DMC बिल जिसमें तीनों नगर निगम को एक करने की बात कही गई है, इससे निगम पूरी तरह से केंद्र के कंट्रोल में आ जाएगा. बिल में कहा गया है कि जब तक MCD का पहली मीटिंग ना हो जाए तब तक कामकाज के लिए एक स्पेशल ऑफिसर की नियुक्ति होगी. इससे दिल्ली में शहरी नगर निकाय चुनावों (ULB) और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लंबे समय तक के लिए निलंबित कर दिया गया है. अधिनियम में साल 2011 के संशोधन से दिल्ली सरकार, कई मसलों पर फैसले लेने में पहले ही सक्षम हो गई थी. जैसे

• पार्षदों की कुल सीटों की संख्या और अनुसूचित जाति के सदस्यों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या

• निगमों के क्षेत्र और वार्डों का बंटवारा

• वार्डों का परिसीमन

• वेतन और भत्ते जैसे मामले और

• निगम से कर्ज का कंसोलिडेशन

इसी तरह, अधिनियम में कहा गया है कि दिल्ली सरकार से मिले निर्देशों के तहत कमिश्नर अपने अधिकारों का उपयोग करेंगे.

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केंद्र सरकार को मिलेगी पूरी ताकत

मौजूदा संशोधित विधेयक से अभी तक जो लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण चला आ रहा था, वो उलटकर अब केंद्रीकृत हो जाएगा. इससे केंद्र सरकार को इन सभी मामलों पर निर्णय लेने का अधिकार मिल जाएगा. वार्डों और काउंसलिरों की संख्या 272 से घटाकर 250 कर दी गई है. समन्वय और निगरानी करने वाले स्थानीय निकायों के निदेशक का पद खत्म कर दिया गया है. अब हर चीज पर केंद्र फैसला लेगा. इसके लिए एक स्पेशल ऑफिसर की नियुक्ति होगी. बिल में इससे भी परेशानी की बात ये है कि समाज का सबसे निचला तबका मैला ढोने वाले कर्मचारियों की नौकरी की गारंटी खत्म हो जाती है.

बिल पर विपक्ष के सवाल कि ‘संशोधित बिल संघीय ढांचा पर हमला है’ के जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय, जिन्होंने बिल को लोकसभा में पेश किया , ने बिल को दिल्ली की जनता के फायदे में बताया. इससे निगम की मनमानी वाली स्कीम रुकने की बात कही. बिल के लक्ष्यों के बारे में उन्होंने बताया कि “पहले जो निगम को तीन हिस्सों मं बांटा गया था वो क्षेत्र के हिसाब और रेवेन्यू लाने दोनों ही फ्रंट पर सक्षम नहीं था. नतीजतन इन तीनों निगमों पर काम करने की जो जिम्मेदारी है और उसे पूरा करने के लिए जो संसाधन हैं , उनमें एक बड़ा अंतर आ गया था.

बिल में कहा गया है कि साल दर साल ये गैप बड़ा ही होता गया और इससे स्टाफ को सैलरी और उनके रिटायरमेंट सुविधा मिलने में भी मुश्किलें होने लगीं.

बिल में कहा गया है – पिछले 10 साल का अनुभव बताता है कि निगम को तीन हिस्से में बांट कर जनता को बेहतर सुविधा देने की बात कही गई थी , वो पूरी नहीं हुई.

क्या संसाधनों की कमी सच में बड़ा मुद्दा है?

ये किसी को बुरा बताकर उसे मारने के सबसे अच्छा उदाहरण जैसा है. यदि "तीन निगमों को उनके कामकाज और उस तुलना में संसाधनों में बड़ा अतंर " असली मुद्दा था, तो इसका उपाय दिल्ली सरकार के हितधारकों के साथ विचार-विमर्श और क्रॉस-सब्सिडी सिस्टम के जरिए निकाला जा सकता था. इसके लिए किसी को 74वें संविधान संशोधन अधिनियम (सीएए), 1992 को बदलने सभी शक्तियां केंद्रीकृत करने की जरूरत नहीं है

शहर या मेट्रो इलाके में शासन संविधान के 243 वें अनुच्छेद में 1992 के संशोधन से चलता है. इसमें मेट्रो की परिभाषा बताई गई. कम से कम 10 लाख या उससे अधिक की आबादी, एक या एक से अधिक जिले और दो या दो से अधिक नगर निगम, पंचायतों को मिलाने पर ही मेट्रो बनता है.

संविधान संशोधन अधिनियम के अनुसार, यूएलबी यानि शहरी नगर निगमों को शहरी स्थानीय सरकार बनाया जाना था, जिन्हें 12वीं अनुसूची (अनुच्छेद 243 के तहत सौंपे गए काम जैसे – टाउन प्लानिंग और डेवलपमेंट, जमीन का इस्तेमाल, आर्थिक और सामाजिक विकास, सड़कें और पुल, पानी सप्लाई, पब्लिक हेल्थ और साफ सफाई,, शहरों में हरियाली और पर्यावरण की रक्षा, कमजोर तबके और दिव्यांगों की देखभाल, झुग्गी बस्तियों का विकास, शहरी गरीबी मिटाना, शहरों में सांस्कृतिक, शैक्षणिक और कलात्मक सुविधाएं और सौंदर्य का विकास करना था.

स्थानीय शासन की पहचान जनता की भागीदारी है, खासकर महानगरों और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में. स्थानीय प्रशासन में लोकतांत्रिक और जनता की भागीदारी से सरकार मजबूत बनती है , वो लोगों के करीब पहुंचती है. इससे उन्हें सार्वजनिक संस्थानों के लिए नीतियां बनाने और कार्यक्रम को लागू करने में मदद मिलती है.

जनता की भागीदारी से पब्लिक स्पेस का विस्तार होता है. इससे समाज और सरकार के रिश्ते सुधरते हैं और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई अथॉरिटी को वैधता मिलती है. नागरिक अधिकारों का सम्मान बढ़ाने से राजनीति का स्तर भी सुधरता है. ये एकजुटता और सहयोग को बढ़ाता है.

इस प्रक्रिया के जरिए, जमीनी स्तर पर जानकार नेतृत्व उभर सकता है जो नगर निगम में प्रशासन को आगे बढ़ा सकता है. ये सब करने के लिए नगर निगमों (ULB) का विकेंद्रीकरण जरूरी है ना की केंद्रीकरण जैसा कि अब बिल से किया जा रहा है.

दिल्ली को एक और ‘सरकारी अमले’ की जरूरत नहीं

अभी दिल्ली में शासन का सरंचना बहुत भारी और अस्तव्यस्त है. नागरिकों पर अपने अपने नियम चलाने के लिए कई रेगुलेटरी बॉडी हैं. भारत सरकार में दिल्ली में सीधे तौर पर पुलिस, शहरी विकास, और परिवहन व्यवस्था को कंट्रोल करती है. अनिर्वाचित लेफ्टिनेंट गर्वनर का दफ्तर , एक तरह से चुनी हुई दिल्ली सरकार के बॉस की तरह की काम करता है.

नेशनल कैपिटल रीजन यानि NCR प्लानिंग बोर्ड जो कि दिल्ली की आर्थिक तरक्की और विकास पर नजर रखती है. इसका काम प्रभावशाली रेल, और रोड नेटवर्क तैयार करना, लैंड यूज पर उपाय सुझाना . बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए ही शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना है. इसके बाद शहरी स्थानीय निकाय हैं (ULD) जो जरूरी सुविधाएं जैसे पानी सप्लाई, पब्लिक हेल्थ, और सफाई और कचरा प्रबंधन मुहैया कराती है. .

दिल्ली के अस्तव्यस्त शासन से एक बार नाराज सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी किया ‘ अगर दिल्ली कोई ऑर्डर नहीं है तो उसे वैसा ही होने दें’ . 1 नवंबर 2018 को जस्टिस मदन बी लोकुर, एम एम शांतानागोउदर और एस अब्दुल नजीर की पीठ ने राष्ट्रीय राजधानी में अनधिकृत निर्माण की याचिका पर अधिकारियों के कामकाज पर सवाल उठाते हुए ऐसी टिप्पणी की थी.

DMC बिल के कानून बनने के बाद दिल्ली के शासन में केंद्र सरकार एक अमला बन जाएगा. दो पाटों में पहले ही दिल्ली पिसी हुई है और अब अगर ऐसा हुआ तो इसकी कमर पूरी तरह से टूट जाएगी.

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